भिंड: दबोह क्षेत्र में ग्राम बघेड़ी की एक ऐसी गुमनाम शख़्सियत हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन पर्यावरण सवांरने में लगा दिया. 85 साल के कन्हई बघेल ने अपने जीवनकाल में अब तक 2000 हजार से अधिक पौधे लगाए हैं. बघेड़ी गांव के कन्हई बघेल पर पेड़ लगाने का ऐसा जुनून सवार है कि लोगों ने उन्हें पागल तक करार कर दिया. लेकिन उनकी मेहनत रंग लायी आज उनके द्वारा रोपे गए पौधों में से करीब 1200 विशाल वृक्षों में बदल चुके हैं. पेड़-पौधे इनके लिए इनकी संतान से कम नहीं.
भिंड के गुमनाम 'ट्री मैन'
दुनिया में कई लोग हैं जो पर्यावरण से बेहद लगाव रखते हैं, लेकिन जो प्रकृति से प्रेम में अपनी हदें पार करते हैं, क्षमता से ज़्यादा समर्पण रखते हैं उनकी अलग पहचान बनती है. समाज में कई ऐसे भी लोग हैं जिन्हें नाम होने या ना होने से कोई अंतर नहीं पड़ता. ऐसे ही शख़्स हैं भिंड ज़िले में रहने वाले कन्हई बघेल, आज जब लोग पौधा रोपण के नाम पर बड़े-बड़े नेता-अभिनेता तक फ़ोटो सेशन कराते नज़र आते हैं, वहीं बघेड़ी गांव के कन्हई बघेल ने चुपचाप बड़ी संख्या में पेड़ लगाने के बाद भी इस क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने की कभी परवाह नहीं की. उन्होंने अपना जीवन प्रकृति के नाम कर दिया है. अपने जीवनकाल में 2 हज़ार से ज़्यादा पौधे लगा चुके कन्हई बघेल 85 वर्ष की आयु में भी पौधे उतने ही जतन से लगाते हैं.
श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने शुरू किया था पौधे लगाना
पेड़ों की देखभाल उनकी दिनचर्या का हिस्सा है. बीते 50 सालों से नंगे पैर पेड़ों की सेवा करते आ रहे कन्हई कहते हैं कि वे शुरू से ही ग़रीबी भरा जीवन जीते आए हैं. पहले वो मज़दूरी करते और अपने बच्चों का परिवार का पेट पालते थे. एक दिन ख़याल आया की इस तरह वे कब तक जीवन गुज़ारेंगे, आगे बढ़ने के लिए क्या करेंगे. लोगों के पास खेती है, ज़मीन है. मजदूरी कर वो आगे नहीं बढ़ पाएंगे तो उन्होंने सोचा कि इस रास्ते को छोड़ कर विद्या मार्ग पकड़ना चाहिए, लेकिन विद्या पकड़ने के लिए भगवान को राज़ी करना था. इसलिए मन में ख़याल आया कि उन्हें पेड़ लगाने चाहिए, क्योंकि गीता में बताया गया है कि पेड़ लगाने से श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं. पेड़ लगाने का पुण्य अश्वमेध यज्ञ के सामान होता है.
पौधारोपण का मिला पुण्य
कन्हई बाबा कहते हैं कि उन्होंने पेड़ लगाना शुरू किया तो इसका फ़ायदा भी दिखा. उनके तीन बेटे और एक बेटी है. तीनों को स्कूल और पढ़ाई का मन लगने लगा. रोकने पर भी बच्चे स्कूल जाते थे. उनकी मानें तो ज्ञान और बुद्धि के लिए किया गया प्रयास और पुण्य उनके बच्चों को मिला, जब उनके बच्चों की पढ़ाई पूरी हुई तो कन्हई ने एक और निर्णय लिया उन्होंने अपने जूते त्याग दिए और उस दिन के बाद से अब तक वे नंगे पांव ही रहते हैं.