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आर्मेनिया-अजरबैजान युद्ध : जानें भारत का क्या है रूख

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Published : Oct 17, 2020, 4:14 PM IST

आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र में 27 सितंबर 2020 से युद्ध शुरू हुआ था. युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों सैनिकों ने जान गवाईं. इस पर कई देशों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दी है. भारत भी दोनों देशों से शांति बनाए रखने की अपील की. इस संबंध में ईटीवी भारत ने आर्मेनिया में भारत के पूर्व राजदूत अचल मल्होत्रा से खास बातचीत की. आइए जानते हैं उन्होंने क्या कुछ कहा...

अचल मल्होत्रा
अचल मल्होत्रा

हैदराबाद: ईसाई बहुल आर्मेनिया और मुस्लिम बहुल अजरबैजान के बीच सोवियत विरासत के अवशेष नागोर्नो-काराबाख को लेकर गत 27 सितंबर को अचानक दुश्मनी की आग भड़क उठी, जिसमें हजारों लोगों की जान चली गई. इस पर दुनियाभर से प्रतिक्रियाएं आईं. कुछ आर्मेनिया के समर्थन में तो अन्य अजरबैजान के समर्थन में थीं. हमेशा की तरह इसके बारे में दक्षिण एशिया के अपने विचार हैं और सच यह है कि भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ एक संतुलित संबंध बनाए हुए है. भारत ने एक बार फिर क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बने आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच शत्रुता दोबारा से बहाल होने पर चिंता व्यक्त की है. भारत ने दोनों पक्षों से तत्काल शत्रुता को रोकने, संयम रखने और सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए सभी संभव कदम उठाने की जरूरत दोहराई है.

ईटीवी भारत ने आर्मेनिया में भारत के पूर्व राजदूत अचल मल्होत्रा बताते हैं कि नागोर्नो में आर्मेनिया-अजरबैजान संघर्ष क्या है और भारत कहां खड़ा है? ईटीवी भारत के साथ एक साक्षात्कार में पूर्व राजदूत ने कहा कि नागोर्नो-कराबाख को लेकर आर्मेनिया-अजरबैजान का संघर्ष करीब तीन दशक पुराना है. इसका बीज 1921 के शुरू में तब बोया गया था, जब एक ईसाई आर्मेनियाई बहुसंख्यक बस्ती एक मुस्लिम बहुसंख्यक अजरबैजान के क्षेत्र नागोर्नो-कराबाख में बनाई गई थी. तब जब सोवियत संघ विकसित हो रहा था और दक्षिण काकेशस क्षेत्र का उसमें समावेश हो रहा था.

चूंकि आर्मेनियाई, नागोर्नो- कराबाख व अजरबैजान वासी 70 साल से सोवियत संघ का हिस्सा थे. इसलिए यह मुद्दा नहीं भड़का. इन 70 वर्षों के दौरान नागोर्नो-कराबाख से मॉस्को में केंद्रीय अधिकारियों को आर्मेनिया के साथ विलय के लिए कई याचिकाएं भेजी गईं, लेकिन खारिज कर दी गईं.

उन्होंने आगे कहा कि सोवियत संघ के आसन्न पतन और स्वतंत्र राज्यों के रूप में अपने घटक गणराज्यों के उभरने की पृष्ठभूमि में नागोर्नो-कराबाख के 1991 के सितंबर में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करने का निर्णय लिया. परिणामस्वरूप अजरबैजान और नागोर्नो-कराबाख के बीच युद्ध हुआ, जिसके बाद आर्मेनिया ने पूरे दिल से समर्थन किया था.

उन्होंने कहा कि 1992-1994 तक कम से कम दो साल तक युद्ध चला. 1994 में रूस ने संघर्ष विराम समझौता किया था, जो सोवियत संघ का सबसे बड़ा उत्तराधिकारी राज्य था. तब से संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और फ्रांस ने आर्मेनिया और अजरबैजान को ऑर्गेनाइजेशन फॉर सिक्योरिटी एंड कॉर्पोरेशन इन यूरोप (ओएससीई) में सह-अध्यक्ष के रूप में शामिल किया है. बेलारूस की राजधानी के नाम पर गठित इस मिन्स्क समूह में कुल 11 सदस्य हैं. इसका मकसद दोनों देशों के बीच इस संघर्ष का एक सौहार्दपूर्ण समाधान खोजना था. दुर्भाग्य से वे ऐसा कोई समाधान नहीं निकाल पाए हैं जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य हो.

परिणामस्वरूप, उनका प्रयास कि था भले ही ये संघर्ष का समाधान नहीं कर सके, लेकिन यह सुनिश्चित कर सके कि यह वास्तव में उत्तेजना का चरम बिन्दु नहीं बन जाए. वे वर्ष 2016 में एक बार नाकाम रहे जब उस साल अप्रैल में आर्मेनिया और अजरबैजान के बीच बहुचर्चित चार दिन का युद्ध हुआ. रूस उसे एक बार और नियंत्रित करने में सक्षम हुआ.

पूर्व राजदूत ने जोर देकर कहा कि सबसे हाल में गत 27 सितंबर को जो युद्ध भड़का वह कई अर्थों में अभूतपूर्व था. तीव्रता और पैमाने में यह अप्रैल 2016 में हुए चार दिन के युद्ध सहित सभी पिछले संघर्षों को पार कर गया था.

उन्होंने कहा कि मेरी राय में इसका एक कारण यह है कि तुर्की ने अब तक अजरबैजान को केवल नैतिक समर्थन दिया था, अब वह खुलेआम आ गया है और संघर्ष में प्रत्यक्ष भागीदारी की पेशकश कर रहा है. ऐसी खबरें हैं कि तुर्की, सीरिया और लीबिया से भाड़े के सैनिकों को भेज अजीरी सैनिकों की तरफ से लड़ने में मदद कर रहा है.

उन्होंने कहा कि तुर्की ऐसा इसलिए कर रहा है, क्योंकि तुर्की वैश्विक इस्लामी समुदाय का नेता होने के साथ-साथ एक क्षेत्रीय खिलाड़ी भी है. शायद वह सऊदी अरब के इस्लामी दुनिया के नेतृत्व को चुनौती दे रहा है.

दूसरी बात यह है कि ऐसा लगता है कि अजरबैजान भी अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ओर से किए जा रहे प्रयासों से थक चुका है, क्योंकि 1992-1994 में जब युद्ध समाप्त हुआ, तो आर्मेनियाई लोगों ने न केवल नागोर्नो कराबाख, बल्कि अजरबैजान के आस-पास के सात जिलों पर नियंत्रण कर लिया था. आर्मेनिया ने आर्मेनिया और नागोर्नो कराबाख के बीच एक भूमि गलियारा भी बनाया था, जिसे लाचिन कॉरिडोर कहा जाता है.

संघर्ष का अभी तक कोई हल क्यों नहीं निकला ?
पूर्व राजदूत ने ईटीवी भारत से कहा कि अजरबैजान और आर्मेनियाई दोनों ने अड़ियल रूख अपना रखा है. अजरबैजान अपनी प्रादेशिक सीमा के भीतर नागोर्नो-कराबाख को कुछ स्वायत्तता देने के लिए सहमत हो सकता है, जबकि आर्मेनियाई लोग पूर्ण स्वतंत्रता से कम कुछ भी लेने के लिए तैयार नहीं हैं. ये दोनों स्थितियां सामंजस्य से परे हैं.

उन्होंने समझाया कि यह लड़ाई एक जातीय-क्षेत्रीय संघर्ष से कहीं अधिक है. यह दो सिद्धांतों के बीच टकराव है. जैसा कि अजरबैजान लागू करता है वह क्षेत्रीय अखंडता का सिद्धांत है और भारत सहित अधिकांश देश जिसका समर्थन करते हैं और आत्म निर्णय लेने के अधिकार का सिद्धांत जिसे नागोर्नो-कराबाख लागू करता है और आर्मेनिया जिसका समर्थन करता है.

इस पर भारत का क्या रूख है?
अचल मल्होत्रा का कहना है कि भारत ने बहुत ही निष्ठा के संतुलित रूख बनाए रखा है. अगर हम भारत के संबंध की तुलना करते हैं एक तरफ आर्मेनिया और दूसरी ओर भारत-अजरबैजान, तो यह देखा जाता है कि आर्मेनिया-भारत के बीच अजरबैजान की तुलना में राजनीतिक समझ का स्तर बहुत ऊंचा है.

यह ध्यान रखना उचित है कि भारत को आर्मेनिया के तीन राज्य प्रमुख प्राप्त हुए हैं, लेकिन अजरबैजान या जॉर्जिया में से कोई भी नहीं. दूसरी ओर आर्मेनिया बहुत मुखर है और कश्मीर मुद्दे पर भारत को अपना भरपूर समर्थन करता है, जबकि अजरबैजान और तुर्की न केवल पाकिस्तान का समर्थन करते हैं, बल्कि इस मुद्दे पर पाकिस्तान द्वारा कह गई बात को अलग फोरम में उठाकर उसे बढ़ावा भी देते हैं.

उन्होंने कहा कि भारत आर्मेनिया के समर्थन में खुलकर नहीं आ रहा है और अजरबैजान के खिलाफ है, इसका कारण है कि परंपरागत रूप से भारत पूरी दुनिया में टकराव के संदर्भ में एक संतुलित दृष्टिकोण रखता है. पक्ष न लेना भारत की विदेश नीति का हिस्सा है. वर्तमान संघर्ष के मामले में भी भारत ने एक संतुलित और जो संभव है वह सबसे अच्छा तटस्थ रूख अपना रखा है.

भारत के पास अजरबैजान का समर्थन नहीं करने का हर कारण है. उसने अपना मामला क्षेत्रीय अखंडता के आधार पर बनाया है, जबकि अजरबैजान ने जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से भारत की क्षेत्रीय अखंडता के उल्लंघन के लिए बहुत कम सम्मान दिखाए हैं.

इसके साथ ही, भारत के लिए आर्मेनिया का समर्थन करना मुश्किल है और नागोर्नो-कराबाख के आत्मनिर्णय के अधिकार का सार्वजनिक तौर पर समर्थन करना भारत के लिए संभव नहीं है, क्योंकि उसके विरोधी इसे कश्मीर में लागू करने की मांग करके न केवल इसका गलत इस्तेमाल कर सकते हैं, बल्कि भारत के कुछ हिस्सों में अलगाववादी आंदोलन को फिर से आग लगाने के लिए भी कर सकते हैं.

इस बीच, भारत ने भी शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में ओएससीई मिन्स्क समूह के निरंतर प्रयासों के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया है, जिसका अर्थ है कि भारत तुर्की सहित किसी अन्य देश की भागीदारी के पक्ष में नहीं है.

इसके अलावा, दोनों देशों के बीच संघर्ष भारत की स्थिति को प्रभावित करने वाला नहीं है, क्योंकि भारत का आर्मेनिया में कोई निवेश नहीं है और व्यापार की मात्रा महत्वहीन है. आर्मेनिया के साथ भारत के व्यापार या निवेश भी बहुत कम है. अजरबैजान के मामले में, ओएनजीसी/ओवीएल ने अजरबैजान में एक ऑयलफील्ड परियोजना में निवेश किया है पर अपेक्षाकृत कम है. गेल एलएनजी में सहयोग की संभावनाएं तलाश रहा है. अजरबैजान से भारत के लिए गैस या तेल की कोई सीधी पाइपलाइन आपूर्ति नहीं है.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत के आर्मेनिया और अजरबैजान दोनों के साथ अच्छे संबंध हैं. उत्तर-दक्षिण अंतरराष्ट्रीय परिवहन गलियारा मुंबई से चाबहार से होते हुए अजरबैजान होकर मास्को तक जाता है जो भारत की संपर्क योजनाओं के लिए महत्वपूर्ण है.

दूसरी ओर, आर्मेनिया उस क्षेत्र का एकमात्र देश है, जिसके साथ भारत की मैत्री और सहयोग संधि है. (इस पर 1995 में हस्ताक्षर हुए थे) जो संयोग से आर्मेनिया के क्षेत्र में नागोर्नो-कराबाख के मामले में किसी कुत्सित कार्य के करने पर भारत को अजरबैजान को सैन्य या अन्य कोई सहायता देने से से रोक देगा, भारत आर्मेनिया के साथ मजबूत सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध साझा करता है.

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