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अमेरिका ने वुहान के वैज्ञानिकों की फंडिंग की थी, बैट वायरस का कर रहे थे अध्ययन

वुहान के वैज्ञानिकों ने चमगादड़ पर एक अध्ययन किया था. इसे अमेरिकी रक्षा विभाग ने फंडिंग की थी. इन्होंने नगा जनजाति के एक समुदाय पर अध्ययन किया था. यह समुदाय चमगादड़ को खाने में उपयोग करता रहा है. इस प्रोजेक्ट में भारत की परमाणु ऊर्जा एजेंसी भी शामिल थी. क्या है पूरी रिपोर्ट, जानें विस्तार से.

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कोरोना संकट पर अमेरिका चीन

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Published : Apr 27, 2020, 3:11 PM IST

नई दिल्ली: कोरोना वायरस से जुड़े एक प्रोजेक्ट के बारे में अध्ययन रिपोर्ट तैयार की गई थी. इसमें चमगादड़ से निकलने वाले वायरस की विस्तार से जानकारी दी गई है. इस प्रोजेक्ट में भारत भी शामिल था. इस प्रोजेक्ट के लिए नगा जनजातियों के एक खास वर्ग के लोगों के खून का सैंपल लिया गया था. अमेरिकी रक्षा विभाग ने इसका वित्त पोषण किया था. अब सवाल ये उठ रहे हैं कि क्या अमेरिकी सैनिक और जीव विज्ञानी के बीच कहीं कोई सांठगांठ तो नहीं थी ?

अमेरिका, चीन और भारत के वरिष्ठ वायरोलॉजिस्ट ने मिलकर ये रिपोर्ट तैयार की थी. इसमें चमगादड़ और वायरस के बीच मानव पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया गया था.

शक इसलिए गहरा होता है क्योंकि नोवल कोरोना वायरस के फैलने के पीछे चमगादड़ को ही जिम्मेवार माना जा रहा है. अभी तक की जानकारी के अनुसार चमगादड़ में पाए जाने वाले वायरस की वजह से संक्रमण फैला है.

2017 में वैज्ञानिकों का एक दल नगालैंड गया था. वहां से नगा जनजाति के 85 लोगों के खून के सैंपल लिए गए थे. ये वे लोग थे, जिनकी सात पीढ़ियां चमगादड़ हार्वेस्टिंग करती आई हैं. ये उसका भोजन के रूप में उपयोग करते रहे हैं. उससे दवा भी बनाते रहे हैं. ये जनजाति भारत-म्यामां सीमा पर रहती है.

इस टीम में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के दो वैज्ञानिक शामिल थे. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक वायरस वुहान से ही फैला है. वुहान चीन के हुनेई प्रांत की राजधानी है.

जो वैज्ञानिक शामिल हैं, उनमें से एक हैं शी झींगली. वे सार्स (एसएआरएस) के विशेषज्ञ हैं. सार्स मुख्य रूप से चमगादड़ से निकलता है. शी को चीन का 'बैट वुमन' भी कहा जाता है. वह सेंटर फॉर इमर्जिंग इन्फेक्शियस डिजीज की निदेशक हैं.

दूसरे वैज्ञानिक का नाम झिंगलू यांग है. वह भी उसी संस्थान से हैं.

कोरोना वायरस के फैलने के बाद शी विवादों में रही हैं. उन पर षडयंत्र रचने का आरोप लगा रहा है.

हालांकि, इस रिपोर्ट को लेकर कुछ अनसुलझी पहेली भी है. प्रोजेक्ट का खर्च अमेरिका ने वहन किया था. वो भी अमेरिका के मिलिट्री विभाग ने. अमेरिका के रक्षा विभाग, द डिफेंस थ्रिट रिडक्शन एजेंसी, द बायोलॉजिकल डिफेंस रिसर्च डायरेक्टोरेट ऑफ द नेवल मेडिकल रिसर्च सेंटर. भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग ने भी सहयोग किया था.

चमगादड़ हार्वेस्टिंग की रिपोर्ट पीएलओएस जर्नल को प्रस्तुत किया गया था. यह एक नॉन प्रोफिट साइंस, टेक्नोलॉजी और मेडिसीन पब्लिशर है. 31 दिसंबर 2019 को रिपोर्ट छपी थी.

रिपोर्ट में एक डिस्क्लेमर भी डाला गया है. यह लिखता है, 'अध्ययन डिजाइन, डेटा संग्रह और विश्लेषण, प्रकाशन के लिए निर्णय, या पांडुलिपि की तैयारी में फंडर की कोई भूमिका नहीं है.'

ईटीवी भारत ने शुक्रवार को व्हिसल-ब्लोइंग बॉडी विकिलीक्स द्वारा हाल ही में जारी किए गए दस्तावेज़ पर रिपोर्ट दी थी कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) में प्रस्तुत एक पेपर ने इस तकनीक के दोहरे-स्वरूप की प्रकृति को रेखांकित किया है, जिसका इस्तेमाल टीकों के उत्पादन में किया जा सकता है. इससे जैविक हथियारों का भी उत्पादन किया जा सकता है.

इस रिपोर्ट में कहा गया है, 'रोगजनक इन्फ्लूएंजा वायरस और टीकों के उत्पादन पर अनुसंधान के लिए सुविधाओं, जानकारी और उपकरणों की आवश्यकता होती है. लेकिन इस जानकारी का जैविक हथियार बनाने में दुरुपयोग हो सकता है.'

डब्ल्यूएचओ के एक आंतरिक पेपर में साफ तौर पर इसका जिक्र किया गया था कि एक इन्फ्लूएंजा जैसी महामारी बहुत ही संभावित थी. फिर भी तैयारी क्यों नहीं की गई. सवाल यही पूछे जा रहे हैं, यदि महामारी का खतरा इतना भयानक था, तो व्यावहारिक प्रतिक्रिया इतनी मौन क्यों रही ?

(संजीव बरुआ)

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