हैदराबाद: बिहार चुनाव दो कारणों से निराले कहे जा सकते हैं – पहला कारण ये कि वे कोविड संकट के दौरान आयोजित किए गए और दूसरा कि वे ऐसे समय में हुए, जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा राजनीतिक दलों पर आपराधिक राजनीति को खत्म करने का पूरा दारोमदार सौंप दिया गया है. 13 फरवरी को, न्यायपालिका ने स्पष्ट तौर पर कहा कि उम्मीदवारों के चयन के लिए एकमात्र मापदंड चुनाव में सफलता की संभावना नहीं है और यह भी कि राजनीतिक दलों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि उन्होंने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को टिकट क्यों दिया है.
राजनीतिक दलों ने इन आदेशों की परवाह नहीं की. यह तथ्य इस बात से साफ हो जाता है कि 89 प्रतिशत से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तीन से अधिक उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है. जिन दलों ने बाहुबलियों को बाहुबल और धन शक्ति के साथ एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने के लिए चुनाव के मैदान में उतारा, उन्होंने बाहुबलियों की लोकप्रियता, सामाजिक सेवा, शैक्षिक योग्यता, कोविड संकट से निपटने में कुशल प्रदर्शन आदि गुणों और योग्यता का प्रायोजित तरीके से प्रचार किया.
साथ ही आपराधिक मामलों को विरोधियों द्वारा राजनीति से प्रेरित आरोप बताते हुए दरकिनार कर दिया. उन्होंने कुछ अलोकप्रिय हिंदी अखबारों में अपने उम्मीदवारों की विशेषताओं और आपराधिक मामलों के ब्यौरे को प्रकाशित किया और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का पालन करने की औपचारिकता पूरी कर दी. चुनाव आयोग के आदेशों की यह भावना कि उम्मीदवारों को मतदान की तारीख से पहले मीडिया के माध्यम से बार-बार अपने आपराधिक रिकॉर्ड के इतिहास की घोषणा करनी चाहिए कहीं खो सी गई.
नतीजतन, आज बिहार विधानसभा में आपराधिक रिकॉर्ड के साथ 68 प्रतिशत सदस्यों ने प्रवेश कर लिया है – जोकि पिछली विधानसभा की तुलना में दस प्रतिशत अधिक है. हत्या, अपहरण और महिलाओं पर अत्याचार जैसे जघन्य अपराधों के आरोपों का सामना कर रहे नए विधायकों की कुल संख्या में 51 प्रतिशत की रिकॉर्ड बढ़त देखी गई है, जिसमें 73 प्रतिशत राजद के सदस्य हैं. 64% भाजपा के, 43 में से 20 जद (यू) के और 19 में से 18 कांग्रेस के विधायक अपराधी हैं. बिहार के अच्छे दिनों को आपराधिक राजनीतिक दीमकों द्वारा चाट लिया गया है.