देहरादून :तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को उनके अनुयायी एक जीवित ईश्वर के तौर पर देखते हैं. चीन और तिब्बत के बीच विवाद तिब्बत की कानूनी स्थिति को लेकर है. चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतंत्र राज्य था. 1951 में चीनी सेना ने तिब्बत पर नियंत्रण जमा लिया. बातचीत के लिए तिब्बत से गए शिष्टमंडल से तिब्बत के चीन में शामिल होने की एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिया. 31 मार्च 1959 को तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा ने लाखों अनुयायियों के साथ भारत में कदम रखा. भारत ने उस वक्त तिब्बत से आए शरणार्थियों का साथ दिया. तिब्बती शरणार्थी उत्तर और पूर्वोत्तर भारत में बसे और दलाई लामा के लिए हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में व्यवस्था की गई. इस दौरान उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में भी तिब्बतियों की एक कॉलोनी बनाई गई.
हामुन ताशी की जुबानी चीनी दरिंदगी की कहानी
तिब्बत की आर्मी में कार्यरत बुजुर्ग हामुन ताशी आज भी चीन की दमनकारी नीतियों को याद कर सहम जाते हैं. हामुन ताशई के मुताबित चीन ने बड़े ही चालाकी के साथ धीरे-धीरे तिब्बत को निगलना शुरू किया था. उन्होंने बताया कि तिब्बत आम्दो, खाम्बा और ऊंचाऊंग तीन हिस्सों से मिलकर बना है. चीनी सैनिकों ने आम्दो की तरफ से घुसपैठ शुरू की तो तिब्बत आर्मी के जवानों ने डेढ़ सालों तक डटकर मुकाबला किया. लेकिन धीरे-धीरे चीन ने तिब्बत में बड़ी संख्या में सैनिकों को उतार दिया और उन्हें ढकेलते हुए ल्हासा पर कब्जा कर लिया.
तिब्बत के साथ कैसा रहा है चीन का सलूक ये भी पढ़ें:क्या है भारत-चीन के बीच LAC विवाद, सीमा विवाद से जुड़े हर सवाल का यहां जानिए जवाब
दलाई लामा के पूर्व बॉडीगार्ड की जुबानी तिब्बत की दास्तां
1959 में दलाई लामा के बॉडीगार्ड रहे शिरिंग बताते हैं कि पहले चीन ने तिब्बत के राजनीतिक और सामाजिक चक्र अस्थिर किए और फिर आम लोगों पर निशाना साधने लगा. धीरे-धीरे चीन ने तिब्बत में अपनी पूरी फौज लगा दी. शिरिंग के मुताबिक चीन का केवल एक मकसद है, धर्मगुरु दलाई लामा को हासिल कर तिब्बत की आवाज को दबाना.
चीन-तिब्बत विवाद में कब क्या हुआ. शिरिंग उस दौर के कत्ल-ए-आम को याद कर आज भी सहम जाते हैं. शिरिंग के मुताबिक, चीनी सरकार ने अपने सैनिकों को आदेश दिया था कि तिब्बत में मौजूद सभी लामाओं और लाल वस्त्र धारण करने वाले हर एक शख्स का सिर धड़ से अलग कर दिया जाए.
तिब्बत में चीनी सैनिकों की मौजूदगी. तिब्बत में मचे नरसंहार के दौरान शिरिंग दलाई लामा अन्य लोगों के साथ रात के अंधेरे में भारत के लिए चल दिए. 17 मार्च को वो तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकले थे और हिमालय के पहाड़ों को पार करते हुए 15 दिनों बाद तवांग के रास्ते भारतीय सीमा में दाखिल हुए थे. भारत में दाखिल होने के बाद भारतीय सेना ने दलाई लामा और उनके साथियों को शरण दी.
फ्री तिब्बत की मांग को लेकर तिब्बती शरणार्थियों का प्रदर्शन. परिजनों से की बात तो चीनी मार डालेंगे
शिरिंग के मुताबिक उनके दो भाई आज भी तिब्बत में रहते हैं. उनसे आज तक कोई बातचीत नहीं हो पाई. उम्र के इस आखिरी पड़ाव में भी दलाई लामा के बॉडीगार्ड शिरिंग आज भी चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ करने को तैयार हैं. शिरिंग का कहना है कि अगर वे तिब्बत में रह रहे अपने भाइयों से कोई बातचीत या संपर्क स्थापित करते हैं तो चीनी सरकार उन्हें मार डालेगी.
युवावस्था में 14वें दलाई लामा. 9 साल की शमंकी ऐसे आईं भारत
देहरादून में रह रहीं शमंकी जब भारत आईं थीं तो उनकी उम्र महज 9 साल थी. चीन की दमनकारी नीतियों का खुलासा करते हुए शमंकी बताती हैं कि साल 1959 में तिब्बत में चीनी सरकार ने एक समारोह का आयोजन करवाया था. इसमें तिब्बत के सभी प्रबुद्ध और महत्वपूर्ण लोगों को आमंत्रित किया गया था लेकिन समारोह में शामिल होने के लिए चीन ने एक शर्त रखी थी.
पहाड़ पर सामान ढोते तिब्बती. शमंकी के मुताबिक, चीनी सरकार की शर्त थी कि इस समारोह में दलाई लामा बिना बॉडीगार्ड और सहयोगियों के साथ शामिल होंगे. तिब्बत के लोगों ने चीन की इस शर्त का विरोध किया और दलाई लामा के समर्थन में लाखों लोग खड़े हो गए.
ये भी पढ़ें:बॉर्डर पर सेना के 'तीसरी आंख' हैं चरवाहे, जानिए कैसे परेशान करते हैं चीनी सैनिक
शमंकी बताती है कि उनके पिता तिब्बती आर्मी में एक ऑफिसर थे. 1956 में चीन और तिब्बत के बीच मौजूदा हालात को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें, उनके भाई और मां को चाचा के साथ भारत भेज दिया. क्योंकि 1951-52 में चीन तिब्बत के बड़े-बड़े अधिकारियों के बच्चों को बहला-फुसलाकर चीन ले जाते थे और लोग कई वर्षों तक उनकी शक्ल नहीं देख पाते थे. हालांकि, वापस तिब्बत जाने की सवाल पर शमंकी कहती हैं 'वापस जाने को कोई सवाल ही नहीं'.
तिब्बत में बौद्ध भिक्षु की चीनी सेनाओं से मुकाबले की तैयारी करते. चीन ने कैसे किया तिब्बत पर कब्जा
साल 1950 में चीन ने तिब्बत पर अपना झंडा लहराने के लिए हजारों की संख्या में सैनिक भेज दिए थे. तिब्बत के कुछ इलाकों को स्वायत्तशासी क्षेत्र में बदल दिया गया और बाकी इलाकों को इससे लगने वाले चीनी प्रांतों में मिला दिया गया.
चीन कहता रहा है कि तिब्बत 13वीं शताब्दी के मध्य से चीन का हिस्सा रहा है लेकिन तिब्बतियों का कहना है कि तिब्बत कई शताब्दियों तक एक स्वतन्त्र राज्य था और चीन का उस पर निरंतर अधिकार नहीं रहा. मंगोल राजा कुबलई खान ने युआन राजवंश की स्थापना की थी और तिब्बत ही नहीं बल्कि चीन, वियतनाम और कोरिया तक अपने राज्य का विस्तार किया था.
फिर 17वीं शताब्दी में चीन के चिंग राजवंश के तिब्बत के साथ संबंध बने. 260 साल के रिश्तों के बाद चिंग सेना ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया लेकिन तीन साल के भीतर ही उसे तिब्बतियों ने खदेड़ दिया और 1912 में तेरहवें दलाई लामा ने तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा की. फिर 1951 में चीनी सेना ने एक बार फिर तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया और तिब्बत के एक शिष्टमंडल से एक संधि पर हस्ताक्षर करा लिए, जिसके अधीन तिब्बत की प्रभुसत्ता चीन को सौंप दी गई.
देश में शरणार्थियों के आंकड़े
यूएनएचसीआर ने 2014 के अंत में अनुमान लगाया कि भारत में 1 लाख 9 हजार तिब्बती शरणार्थी मौजूद हैं. इनके अलावा ऐसे भी लाखों शरणार्थी हैं, जिनकी कोई पहचान नहीं है.
तिब्बती शरणार्थियों को मिलती हैं ये सुविधाएं
भारत सरकार ने तिब्बतियों के लिए विशेष स्कूल खुलवाए हैं, जहां उन्हें मुफ्त शिक्षा मिलती है. साथ ही उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं और छात्रवृत्ति भी मिलती है. कुछ मेडिकल और सिविल इंजीनियरिंग की सीटें भी तिब्बतियों के लिए आरक्षित हैं. तिब्बती भारत में एक स्टे परमिट के साथ रहते हैं, जिसे रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट कहा जाता है. इसे हर साल रिन्यू कराना पड़ता है, कुछ जगह छह महीनों में भी. 16 साल की उम्र से अधिक के हर तिब्बती को स्टे परमिट लेना पड़ता है. भारत सरकार रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट की तरह एक यलो बुक भी तिब्बती शरणार्थियों लिए इशू करती है, जिसे तिब्बतियों की विदेश यात्रा के दौरान पहचान पत्र माना जाता है.