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कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन और सौ बरस संघर्ष के

भारतीय-प्रवासी क्रांतिकारियों ने 17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की थी. यह भारत का एक साम्यवादी दल है. 1928 ई. में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने ही भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की कार्य प्रणाली निश्चित की. यह भारत की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी है. चुनाव आयोग द्वारा इसे राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त है. जानिये इस पार्टी के इतिहास से जुड़ी कुछ खास पहलू...

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भारत में कम्युनिस्ट पार्टी

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Published : Oct 18, 2020, 1:46 PM IST

हैदराबाद:भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की मान्यता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद में हुई थी, जिसमें उस वक्त सात सदस्य थे- एमएन राय, ईवलीन रॉय-ट्रेंट, अबनी मुखर्जी, रोजा फिटिंगोव, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफीक और एमपीबीटी आचार्य. इसीलिये सीपीआई (एम) 2019-20 को सीपीआई की जन्म शताब्दी मना रही है. मगर क्या ताशकंद की घटना को सचमुच भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म माना जा सकता है?

बता दें कि दोनों ही पार्टियों की मान्यता है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 में ही कानपुर में हुए उसके पहले सम्मेलन के जरिये हुई थी. तात्कालिक प्रश्न यह था कि स्वतंत्रता के बाद की भारतीय सरकार की नीतियों का विश्लेषण कैसे किया जाए, जिसके प्रमुख भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू थे. 1964 में पार्टी का विभाजन हुआ और सीपीएम की गठन हुआ.

वर्ष 1957 के लोकसभा चुनावों के बाद पार्टी सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में उभरी. 1964 में पार्टी का विभाजन हुआ और सीपीएम का गठन हुआ. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के विभाजन के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया-मार्क्सवादी (माकपा) का गठन 7 नवंबर 1964 को हुआ था.

समाज का एक समाजवादी स्वरूप
सरकार अपेक्षाकृत स्वतंत्र विदेश नीति का अनुसरण कर रही थी. इन्होंने आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया को गति दी थी और कांग्रेस ने यहां तक ​​दावा किया कि इसका उद्देश्य समाज का एक समाजवादी स्वरूप स्थापित करना था.

राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व
सीपीआई के एक वर्ग को लगा कि कम्युनिस्टों को जवाहरलाल नेहरू द्वारा उस समय प्रतिनिधित्व किए गए कांग्रेस के भीतर वाम गुट के साथ काम करना चाहिए, यह तर्क देते हुए कि यह गुट राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था और यह साम्राज्यवाद समेत सामंतवाद के विरोध में खड़ा था.

जिस गुट ने कांग्रेस के साथ सहयोग करने के मार्ग का विरोध किया, उसने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या सीपीआई (एम) का गठन किया. दूसरे गुट ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) का नाम बरकरार रखा.

वामपंथी सरकारें
1957 दुनिया में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई मार्क्सवादी सरकार केरल में ईएमएस नंबूदरीपाद के नेतृत्व में सत्ता में आई. यह पहली बार भी था जब किसी भारतीय राज्य में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी.

केरल
1957 में सीपीआई ने पहला विधानसभा चुनाव जीता और सरकार बनाई. ईएमएस नंबूदरीपाद ने पांच अप्रैल 1957 को पहले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.

कम्युनिस्ट केरल में मजदूर वर्ग और किसान वर्ग के शक्तिशाली आंदोलनों के कारण सत्ता में आए.

1957 में सत्ता में आने के छठे दिन, सीपीई सरकार ने जमींदारों द्वारा किरायेदार किसानों को बेदखल करने पर प्रतिबंध लगाते हुए अध्यादेश जारी किया. मंत्रालय ने भूमि सुधार कानून-केरल कृषि संबंध विधेयक पेश किया. इसका उद्देश्य खेती करने वाले किसानों को स्थायी भूमि अधिकार प्रदान करना, उचित किराया तय करना, जोत भूमि के आकार पर एक ऊपरी सीमा (छत) लगाना और काश्तकारों को उस भूमि को खरीदने का अधिकार देना, जिसकी वे खेती कर रहे थे.

पश्चिम बंगाल
सीपीआई (एम) और सीपीआई अल्पकालिक संयुक्त मोर्चा सरकारों का हिस्सा थे, जो 1967-1969 और 1969-70 में कार्यालय में कार्यरत थे. 1977 में सीपीआई (एम), सीपीआई और कुछ अन्य वाम दलों के गठबंधन वाले वाम मोर्चे ने चुनाव जीता और ज्योति बसु के साथ मुख्यमंत्री के रूप में सरकार बनाई. 34 अखंड वर्षों के लिए कम्युनिस्टों ने पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार का नेतृत्व किया.

वाम मोर्चा सरकार ने संयुक्त मोर्चा सरकारों के कार्यकाल के दौरान शुरू किए गए भूमि सुधार उपायों को आगे बढ़ाया. इसने ऑपरेशन बर्गा को लागू किया, जिसके तहत शेयरक्रॉपर (बारगार्ड) के अधिकार स्थापित किए गए. इससे यह सुनिश्चित हो गया कि फसल का एक उचित हिस्सा उन बटाईदारों को गया जिन्होंने भूमि का अधिग्रहण किया.

त्रिपुरा

  • त्रिपुरा में 1948 में कम्युनिस्ट के नेतृत्व वाली पीपुल्स लिबरेशन काउंसिल (गणमुक्ति परिषद) का गठन किया गया था. इसने आदिवासी लोगों के दबाव के मुद्दों के लिए संघर्षों का नेतृत्व किया, जैसे कि आदिवासियों से जबरन निकाले गए श्रम को समाप्त करना और पैसे उधार देने की प्रथाओं को लागू करना.
  • 1947 में भारत के विभाजन के बाद त्रिपुरा ने पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से शरणार्थियों की लहर देखी. पूर्वी पाकिस्तान में राजनीतिक गड़बड़ी और सांप्रदायिक तनाव का मतलब था कि यह आव्रजन 1950 और 1960 के दशक में जारी रहा.
  • आप्रवासन का जनजातीय लोगों और उनकी भूमि पर गंभीर प्रभाव पड़ा. वाम मोर्चे के सत्ता में आने से पहले राज्य प्रशासन शरणार्थियों की स्थिति के लिए उदासीन था.
  • 1950 और 1960 के दशक में गणमुक्ति परिषद और कम्युनिस्टों के नेतृत्व में राजनीतिक आंदोलन ने कई मांगों को उठाया. आदिवासी भूमि का संरक्षण, शरणार्थियों का उचित पुनर्वास और आदिवासी बटाईदारों का निष्कासन समाप्त करना.
  • किसान, आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों के सामान्य संघर्षों ने उनमें एकता बनाने में मदद की.
  • सीपीआई (एम) के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा त्रिपुरा में 1978 में मुख्यमंत्री के रूप में नृपेन चक्रवर्ती के साथ सत्ता में आया था.
  • त्रिपुरा में वाम मोर्चा 1978 से 1988 तक और फिर 1993 से 2018 तक सत्ता में रहा. यह 2018 में राज्य चुनाव हार गया.
  • राष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों और अन्य वाम दलों ने 1990 के दशक के अंत में क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व वाली दो अल्पकालिक गठबंधन सरकारों का समर्थन किया.

केंद्र में गठबंधन सरकार का समर्थन
स्वतंत्रता के बाद भारत में राष्ट्रीय राजनीति में कम्युनिस्टों का प्रभाव 2004-2007 के दौरान चरम पर था. यह तब था जब सीपीआई (एम), सीपीआई और दो अन्य वामपंथी दलों, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र में गठबंधन सरकार का समर्थन किया था.

ऐतिहासिक भूल
1996 में ज्योति बसु भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए संयुक्त मोर्चा के नेताओं के सर्वसम्मति उम्मीदवार बनते दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन सीपीआई (एम) पोलित ब्यूरो ने सरकार में शामिल नहीं होने का फैसला किया, जिसे बाद में ज्योति बसु ने एक ऐतिहासिक भूल करार दिया.

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