हैदराबाद :ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कम से कम 10 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है. इसके साथ ही वोटों के ध्रुवीकरण और मुस्लिम अल्पसंख्यकों (एम फैक्टर) को वोट बैंक में तब्दील करने का मुद्दा राज्य में फिर से सामने आ गया है. इस आग को और अधिक भड़काने के लिए एक अन्य मुस्लिम मौलाना अब्बास सिद्दीकी ने अपने भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को खड़ा किया है. यह AIMIM के साथ मिलकर कई लोगों के लिए असहज स्थिति बना सकते हैं. खासकर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए.
34 साल तक वाम मोर्चा का शासन
अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रूप में आंकना बंगाल की राजनीति की एक पुरानी परंपरा रही है. यह सिर्फ चुनाव के मौसम में ही सीमित नहीं रहता है. ममता बनर्जी के पोस्टरों और कटआउट पर यह साफ झलकता भी है. ये पोस्टर और बैनर वार्षिक उत्सव और एक विशेष धार्मिक समुदाय के अनुष्ठानों से ठीक पहले जारी किए जाते हैं. तृणमूल कांग्रेस सरकार द्वारा इमामों और मुअज्जिनों के लिए मासिक वजीफा मंजूर करने का निर्णय ममता बनर्जी की ओर से ही लिया गया. वाम मोर्चा जिसने 34 साल तक बंगाल पर शासन किया था.
2019 के आम चुनावों में भाजपा
तुष्टीकरण की राजनीति की इस दौड़ में दूर नहीं है. वास्तव में हर चुनावी मौसम में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को लाभ पहुंचाने वाले काम करना इनका शगल रहा है. चाहे वह मदरसा बोर्ड का संस्थागत रूप हो या अल्पसंख्यक मुस्लिम अध्ययनों को बढ़ावा देना. सीपीआईएम ने अपने कार्यकाल के अंत में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए 10% आरक्षण के इरादे की घोषणा की थी, लेकिन वह कभी भी ऐसा नहीं कर सके. इस उम्मीद के साथ कि मुस्लिम मतदाता चुनावों में अहम भूमिका निभाएंगे, अब कोई भी पार्टी उनकी अनदेखी नहीं कर सकती. लेकिन बीजेपी ने 2019 के आम चुनावों में एक अलग कार्ड पेश किया था.
बंगाल चुनाव में मतदाताओं का ध्रुवीकरण
बंगाल चुनावों में मतदाताओं का ध्रुवीकरण इतना स्पष्ट नहीं था, जितना कि पिछले लोकसभा चुनावों में हुआ. 2001 और 2006 के चुनावों के दौरान भाजपा केवल एक सीटर थी. हालांकि, पार्टी 1998, 1999 और 2004 के आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभा रही थी. लेकिन राज्य के चुनाव आते ही ममता ने कांग्रेस को प्राथमिकता दी. यहां तक कि 2011 के विधानसभा चुनावों में भी जब ममता ने वाम मोर्चे को कमजोर करने में कामयाबी हासिल की, तो उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. न कि भाजपा के साथ. भगवा पार्टी ने उस चुनाव में मात्र 4.1% वोट शेयर हासिल किया था. 2016 में ममता अकेले चली गईं और फिर से भाजपा के साथ-साथ वाम मोर्चा-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ विजयी हुईं. हालांकि, अब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी है.
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