नई दिल्ली : लद्दाख के गलवान में भारत-चीन के सैनिकों के बीच हुई झड़प के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया है. इस झड़प में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे. करीब सात दशकों से चले आ रहे सीमा विवाद को सुलझाने की बात दोनों देश कई बार कर चुके हैं. बावजूद इसके अब भी एलएसी को लेकर विवाद बना हुआ है. देश का राजनीतिक नेतृत्व आजादी से लेकर अब तक बातचीत से इस मुद्दे को नहीं सुलझा पाया है. ईटीवी भारत ने विचारक, लेखक और राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक सुधीन्द्र कुलकर्णी से विशेष बातचीत की. जानें उन्होंने कहा कुछ कहा...
सवाल : मौजूदा भारत-चीन सीमा विवाद में अब भारत सरकार ने अपनी सेना को लेह में पूरी छूट दे दी है. अब दोनों मुल्कों के रिश्ते आपको किस ओर जाते हुए दिख रहे हैं.
जवाब : भारत और चीन दोनों देश पड़ोसी हैं. न सिर्फ पड़ोसी हैं बल्कि दुनिया के दो ऐसे राष्ट्र हैं, जिनकी आबादी सौ करोड़ से ज्यादा है और कोई मुल्क नहीं है. भारत और चीन जो जनसंख्या की दृष्टि से इतने बड़े हैं, दोनों को एक प्राचीन सभ्यता विरासत में मिली है. हमारा फर्ज बनता है कि दोनों देश अपने बीच, जो भी समस्याएं हैं, उनको शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाएं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कुछ दिन पहले दोहराया था कि भारत और चीन के बीच जो मतभेद हैं, वह विवाद में न बदलें. गलवान घाटी घटना के बाद वह विवाद बन गया है. अब दोनों मुल्कों के जो नेता हैं, ये उनकी जिम्मेदारी है कि जो विवाद बना है, उसे फिर से 'मतभेद' में बदला जाए और सुलझाया जाए. लेकिन मैं इस बात पर ज़ोर देना चाहता हूं कि भारत और चीन के बीच जो सीमा है, वह सीमा, सीमा नहीं कहलाती है, बल्कि 'लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल' है. यानी कि वह अभी तक अनिर्मित है. सत्तर साल के बाद भी भारत और चीन ने यह नहीं तय किया है कि हमारी सीमा है कहां. और अनिर्मित होने के कारण दोनों मुल्कों के बाच बार-बार ये समस्या खड़ी हो रही है.
1962 में जब युद्ध हुआ और उस युद्ध में जब भारत की पराजय हुई, उसके बाद अनेक बार एलएसी का उल्लंघन होता जा रहा है. और इस बार जो हुआ है, वह तो महाभयंकर इसकी परिणति हुई है. इसलिए दोनों मुल्कों को चाहिए कि इस समस्या का समाधान अंतिमत: एक सीमा को तय करें. सीमा- विवाद का हल हमेशा के लिए कर दें. इसके अलावा हम आगे बढ़ नहीं सकते, नहीं तो आज की समस्या जो है वह शायद हल भी हो जाए, लेकिन क्या गारंटी है कि अगले साल नहीं होगी, दो साल के बाद नहीं होगी. तो ये दोनों मुल्कों की ज़िम्मेदारी है, नेताओं की ज़िम्मेदारी है कि हम तुरंत सीमा विवाद को आपसी वार्ता से हल करें. इसका मतलब है कि इसमें कुछ हमें देना पड़ेगा, कुछ चीन को देना पड़ेगा. कंप्रोमाइज़ करके इसके हल करें और वो कंप्रोमाइज़ क्या हो सकता है, इसके बारे में भी मैं बताना चाहूंगा.
सवाल : मैं इसी से जुड़ा एक सवाल पूछना चाहता हूं. हाल ही में अपने लेख में इसका ज़िक्र भी किया था कि 1962 के युद्ध के पहले भारत को एक मौका मिला था कि विवाद को हमेशा के लिए निपटाया जा सके. तो वह क्या मौका था ?
जवाब : आज जो भी लद्दाख में हो रहा है, दोनों मुल्कों के बाच इसको सुलझाने के लिए बहुत सारी कोशिशें हुई हैं. सबसे बड़ी कोशिश जो हुई थी, वह 1960 में हुई थी, जब उस समय के चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाइ नेहरू के निमंत्रण पर भारत आए थे. उन्होंने भारत के सामने एक पैकेज डील रखी कि ये जो 3400 किलोमीटर की एलएसी है, जो लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक जाती है, तो उन्होंने कहा कि अरुणाचल पर भारत का कब्ज़ा है. तो चीन भारत का कब्ज़ा मान लेगा. वहां 'मैकमोहन लाइन' नाम की जो लाइन है, उसको चीन मान लेगा और अरुणाचल भारत के पास रहे. लेकिन लद्दाख में अक्साई चिन जो प्रदेश है, जहां 1960 में भी चीन का कब्ज़ा था, भारत उसको चीन का प्रदेश मान ले. यह जो एक पैकेज डील उन्होंने रखी थी, नेहरू ने उसे ठुकरा दिया. क्यों ठुकरा दिया? क्योंकि उस समय संसद में जो विरोधी दल थे, उन्होंने ये कहा कि हम अपनी एक इंच जमीन भी चीन को नहीं देंगे और नहीं देना चाहिए. इसके बाद नेहरू ने इस प्रस्ताव को नकार दिया. फिर दो साल बाद युद्ध हुआ, भारत की पराजय हुई.
इस बात को समझना आवश्यक है कि चीन ने इसके बाद भी इसी प्रस्ताव को दोहराया है. 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार में भारत के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी बीजिंग गए, तो उस समय के चीन के सर्वोसर्वा डेंग जियाओ पिंग ने अटल जी के सामने वहीं प्रस्ताव रखा, जो चाउ एन लाइ ने 1960 में रखा था. लेकिन मोरारजी सरकार बहुत कमज़ोर सरकार थी जो दो साल के अंदर गिर भी गई. वह सरकार ये काम कर भी नहीं सकती थी.
उसके बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं, तो डेंग डियाओ पंग ने फिर एक बार यही प्रस्ताव रखा, लेकिन भारत ने माना नहीं. 1988 में जब भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी चीन गए, फिर एक बार डेंग जियाओ पिंग ने यही प्रस्ताव रखा, लेकिन दो साल बाद राजीव गांधी की मृत्यु हो गई. यह समस्या सेना के जरिए हल नहीं होने वाली. हमारी सेना को छूट दे दी गई है, लेकिन वह इस समस्या का हल नहीं निकाल पाएगी. क्या चीन हमला कर हम से अरुणाचल प्रदेश छीन सकता है? क्या भारत अक्साई-चिन पर हमला कर उसे वापस सकता है.
सवाल : गृह मंत्री अमित शाह ने तो संसद में कहा कि जब मैं जम्मू-कश्मीर की बात करता हूं तो गिलगिट-बाल्टिस्तान और अक्साई चिन दोनों उसमें शामिल हैं, तो अब उससे पीछे कैसे हट सकते हैं?
जवाब : अमित शाह ने तो यह भी कहा कि पाकिस्तान से गिलगिट और बाल्टिस्तान भी ले लेंगे और चीन से अक्साई चिन भी ले लेंगे, इसके लिए हम जान भी देने को तैयार हैं. क्या 38000 स्क्वायर किलोमीटर का क्षेत्र हम अपनी फौज की ताकत से ले सकते हैं. तो इस संदर्भ में मैं अमित शाह और भाजपा के लोगों से एक सवाल पूछना चाहता हूं. पाकिस्तान के साथ हमारी जो सीमा है पीओके के पास, वह एलओसी कहलाती है. इस लाइन ऑफ कंट्रोल पर पिछले साठ सालों में हज़ारों भारतीय जवान शहीद हो चुके हैं. गलवान घाटी में 20 सैनिक शहीद हुए हैं. हमें बहुत दुख हुआ, गुस्सा भी आया, होना भी चाहिए. लेकिन एलओसी पर हजारों हमारे सैनिक शहीद हुए हैं, लेकिन पिछले 6 साल के पीएम मीदी के कार्यकाल में क्या उन्होंने हमारी फौज भेज कर पीओके का एक स्क्वायर किलोमीटर कब्ज़ा किया है क्या? सर्जिकल स्ट्राइक हुआ, बालाकोट पर हमला हुआ, लेकिन एलओसी पार कर के क्या एक स्क्वायर किलोमीटर भी हम ले पाए हैं? मोदी सरकार ने लिया है? तो क्या चीन से 38000 किलोमीटर का इलाका ले सकते हैं?
सवाल : मोदी सरकार ने अगर दोनों इलाकों को अपना मानते हुए संसद में ये कह दिया है कि वो इलाके हमारे हैं तो अब इस बात से पीछे कैसे हटें? जो पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू के समय नहीं हो पाया तो अब कैसे होगा?
जवाब : जवाहर लाल नेहरू ने एक बड़ी गलती की थी. नेहरू अगर उस वक्त मान लेते तो ये समस्या 1960 में हल हो जाती. क्यों कि उनका जनता में जो कद था और विरोधी दलों के विरोध के बावजूद अगर वे जनता के सामने जा कर कहते कि समस्या को हल करना है और उसका एक ही रास्ता है कि जो हमारे पास है हमारे पास रहे, जो चीन के पास है, वो चीन के पास रहे, तो मैं समझता हूं कि 1960 में जनता ने नेहरू का साथ दिया होता. आज फिर एक बार मौका आया है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास संसद में जबरदस्त जनसमर्थन है. क्या पीएम मोदी वही गलती करेंगे जो नेहरू ने की थी. क्या मोदी बिना इस समस्या को हल किए हुए अपना प्रधानमंत्री काल समाप्त कर देंगे और यह ज़िम्मेदारी भविष्य के प्रधानमंत्री पर डाल देंगे?
सवाल : आपने इस बारे में कभी सीधे प्रधानमंत्री से बातचीत की ?
जवाब : देखिए मैं जब भाजपा में था, तो पीएम मोदी से अक्सर मिला करता था, लेकिन आज मुझे नहीं लगता कि पीएम मोदी अब दूसरों की सलाह सुनते हैं.
सवाल : आप ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बहुत करीबी से काम किया. क्या आपने कभी कोशिश की कि जो काम नेहरू के समय में नहीं हो पायी, वो वाजपेयी की सरकार के दौरान हो जाए?
जवाब :अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसे नेता थे, जिन्होंने भारत के इतिहास को बहुत अच्छी तरह देखा था. वे प्रत्यक्षदर्शी थे. न केवल प्रत्यक्षदर्शी थे बल्कि इतिहास के बदलने में उनका योगदान था. 1979 में वे बतौर विदेशमंत्री वे पाकिस्तान और चीन गए. पाकिस्तान जाकर उन्होंने कहा कि आप तो समझते होंगे कि ये कौन आया है जनसंघ का नेता. जनसंघ तो अखंड भारत में विश्वास करता था. लेकिन आप इस गलतफहमी में न रहिए. मैं यहां शांतिदूत के नाते आया हूं. लेकिन मोरारजी देसाई की सरकार उस समय बहुत कमज़ोर सरकार थी, तो कुछ नही हो पाया. लेकिन जब अटल बिहारी प्रधानमंत्री बने, तो 2003 में चीन गए. मैं भी उनके साथ गया था. उस समय चीन के प्रधानमंत्री वेन जिया बाओ और वाजपेयी की बातचीत हुई और उस बातचीत के दौरान इस मुद्दे पर भी बात हुई कि सीमा समस्या को हल करने के लिए क्या किया जाए. एक ऐसा फार्मूला निकला कि दोनों प्रधानमंत्री अपनी-अपनी तरफ से खास प्रतिनिधि नियुक्त करेंगे. भारत की ओर से ब्रजेश मिश्रा और चीन से दाए बिंग वो के बीच बातचीत शुरू हुई. जब दाए बिंग वो अटल बिहारी वाजपेयी से मिले तो उन्होंने पूछा कि इस समस्या को हल करने के लिए अंदाजन कितना समय लगेगा? तो दाए बिंग वो ने कहा कि गंभीरता से बातचीत हो, तो शायद तीन-चार साल में ये मसला हल हो जाए. इस पर अटल बिहारी ने कहा, 'मुझे तीन-चार साल नहीं चाहिए, मुझे दो साल में इसका समाधान चाहिए. यानी वाजपेयी चाहते थे कि प्रधानमंत्री रहते वो पाकिस्तान के साथ कश्मीर समस्या और चीन के साथ सीमा-विवाद की समस्याएं सुलझा लें.
लेकिन दोनों नहीं हो पाया. ये हमारी बदकिस्मती है. आज पीएम मोदी को जन-समर्थन मिला है, तो मेरी नरेंद्र मोदी से अपील है कि फौज से ये समस्या हल नहीं होगी. युद्ध होगा तो चीन और भारत दोनों का नुकसान है, समस्या हल नहीं होगी.
सवाल : क्या आप ये कह रहे हैं कि वाजपेयी दोबारा सत्ता में आते तो चीन के साथ सीमा समस्या हल हो जाती?