निखिल आडवाणी की 2013 में आई राष्ट्रवादी व रोमांचक फिल्म डी-डे (2013) में 'नए भारत' की परिकल्पना की गई है, जिसमें आतंकवादियों का शिकार उनकी ही मांद में किया जाता है. इसमें एक दृश्य ऐसा आता है, जब ऋषि कपूर, जो गोल्डमैन (दाऊद इब्राहिम पर आधारित) हैं, इरफान एक रॉ एजेंट वली की भूमिका में हैं. वह उनका हाथ पकड़ते हैं और उनसे यह सोचने के लिए कहते हैं कि दुनिया उन्हें हमेशा किस तमगे के साथ याद करेगी.
जिस तरह वह दोनों एक दिन के अंतर में गुजर गए, आज दुनिया उन्हें एक साथ याद कर रही है. दो परिपक्व कलाकार अपने जीवन के चरम पर, जो केवल बेहतर होने की राह पर थे, अलविदा कह गए.
फिर भी उन दोनों में बहुत अधिक अंतर था. ऋषि कपूर (67) मुंबई सिनेमा के पहले परिवार की तीसरी पीढ़ी के अभिनेता थे, जिनको शराब और असुरक्षा के दैत्यों के अलावा कभी संघर्ष नहीं करना पड़ा. 53 साल के इरफान, एक दूसरी ही तरह के साहिबजादे थे, जो राजस्थान के टोंक के एक गौण शाही परिवार से संबंध रखते थे. उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य महाविद्यालय के माध्यम से मुंबई सिनेमा में प्रवेश किया था और फिर उन्हें अपने पैर मजबूती से जमाने में कई साल लग गए. एक सहज अभिनेता, जो कोरी किस्मत और बहुत सारे अंतर्ज्ञान के दम पर आगे बढ़ा और दूसरा शास्त्रीय रूप से प्रशिक्षित और गहरा दार्शनिक था. एक जिसके जीन में अभिनय रचा बसा था, उसने पहली बार तीन साल की उम्र में अपने पिता की फिल्म श्री 420 के एक गीत 'प्यार हुआ इकरार' के लिए कैमरे का सामना किया था. दूसरा जिसके परिवार का टायर का कारोबार था और जो पहली बार एयरकंडिशनर की मरम्मत करने वाले के तौर पर मुंबई आया.
फिर भी इन दोनों के साथ बहुत कुछ समानता थी. कला का एक प्रेम और बकवास न बर्दाश्त करने की क्षमता. न ही दोनों के पास अनावश्यक तामझाम के लिए समय था. ऋषि कपूर ने इसे पुरजोर तरीके से व्यक्त किया. इरफान ने हलके से कहा. दोनों ने ऐसी फिल्मों की विरासत छोड़ी है, जिनको दर्शक हमेशा सराहते रहेंगे.
इरफान हमेशा से ही गंभीर, चिंतनशील, उस टीम में उम्र में सबसे बड़े थे, जिसके साथ मीरा नायर ने सलाम बॉम्बे (1988) की वर्कशॉप की थी. सह-लेखक सोओनी तारापोरवाला याद करती हैं कि जब उनके फोटोग्राफी के निदेशक मुंबई में आए थे, तो उन्हें लगा कि इरफान की उम्र एक लड़के की भूमिका निभाने के लिए ज्यादा है. अफसोस कि नायर को उन्हें जाने देना पड़ा और अंततः फिल्म में उन्हें सड़क किनारे रहने वाले पत्रकार की एक छोटी भूमिका पर समझौता करना पड़ा.
ऋषि कपूर सदाबहार बालक थे, तब जब अवयस्क राज कपूर की भूमिका में अपनी स्कूल शिक्षिका से 'मेरा नाम जोकर' (1970) में प्रेम कर बैठते हैं और तब भी जब परिष्कृत सूट पहनकर, पूर्णतः किशोर रोमांस बॉबी (1973) में एक युवा पुरुष के तौर पर नजर आए. 1970 के दशक में कई बच्चों के लिए बॉबी एक मिसाल बन गई थी. आगे बंधे हुए टॉप और लेदर के जैकेट हर कोई पहनना चाहता था. बिना किसी वर्ग और धर्म की बंदिशों के प्रेम करना भी सिखाया बॉबी ने. ऋषि की शुरुआत ऐसे हुई और फिर उन्होंने कई हल्की-फुल्की रोमानी पिक्चरों में अदाकारी की, जो आगे चल के उम्र के साथ यथार्थवादी सिनेमा में तब्दील होती गई. 2010 आते-आते उन्होंने 'दो दूनी चार' (2011) में जितनी सहजता से एक साधारण से गणित के अध्यापक की भूमिका निभाई, उतनी ही स्वाभाविकता से वह मुल्क (2017) में आतंक के आरोपी मुस्लिम बुज़ुर्ग नजर आए.