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संविधान @70 : विचारशील संघर्ष का परिणाम है भारत का संविधान

भारतीय संविधान सभा की ओर से 26 नवम्बर 1949 को भारत का संविधान पारित हुआ और 26 जनवरी 1950 को प्रभावी हुआ. 'हम भारत के लोग' इन पंक्तियों के साथ भारतीय संविधान की आत्मा यानी प्रस्तावना शुरू होती है. प्रस्तावना में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में रहने वाले लोगों को मिले अधिकार, कर्तव्य और हमारी संस्कृति की झलक प्रदर्शित होती है. भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है.

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Published : Nov 27, 2019, 8:16 AM IST

Updated : Nov 27, 2019, 4:19 PM IST

भारत का संविधान अनुकरणीय और ऐतिहासिक ग्रन्थ है. संविधान के प्रारूपण के पीछे बहुत सारी सामाजिक-आर्थिक आकांक्षाएं और आशाएं हैं. किसी भी अन्य संविधान या दुनिया के किसी भी देश के पास लोकतांत्रिक आत्मा को बहाल करने में सक्षम बनाने वाला वैसा विशेषाधिकार नहीं दिया गया है, जैसा कि भारत में है जो कि एक संविधान में सभी अधिकारों को प्रदान करता है. जाति, पंथ, धर्म, लिंग, वर्ग, आर्थिक स्थिति और अन्य सामाजिक बुराइयों को दरकिनार कर संवैधानिक अधिकारों का मसौदा तैयार किया गया है. भारतीय लोकतांत्रिक अस्तित्व की जड़ें विचारशील संकल्पों में शामिल हैं, जिनमें बहु-पक्षीय लोकतंत्र, स्वतंत्र न्यायपालिका, चुनावी संघ, केंद्रीय और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का स्पष्ट पृथक्करण, अल्पसंख्यकों के लिए विशेष सुरक्षा, जनजातियों और उत्पीड़ित समुदायों के लिए आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता जो किसी भी विशिष्ट धर्म का समर्थन नहीं करती है और ऐसे कई अन्य और प्रावधान सम्मिलित हैं.

  • संविधान का लिखित मसौदा तैयार होने के बाद संविधान सभा ने 26 नवम्बर,1949 को इसे अंगीकार किया.
  • संविधान प्रभावी होने की तिथि – 26 जनवरी, 1950.
  • 2 साल 11 महीने 18 दिन में बनकर तैयार हुआ था संविधान
  • संविधान की मूल प्रति में 395 अनुच्छेद थे. बाद में संशोधन से जोड़े गए कई और अनुच्छेद.
  • संविधान की मूल प्रति में 8 अनुसूचियां शामिल थीं. अब ये संख्या 12 है.
  • 2019 में संविधान अंगीकृत किए जाने के 70 वर्ष पूरे.

दूरदर्शी नेताओं की दृष्टि की झलक
कई लोकतांत्रिक देशों को बहुत सालों तक संघर्ष करना पड़ा है, फिर कहीं जाकर वे लोकतंत्र को गले लगा सके हैं. इस प्रक्रिया के बाद ही ऐसे देश अपने नागरिकों को उस तरह के अधिकार प्रदान कर सके, जिसे हमारे संविधान ने एक ही समय में अपने नागरिकों को प्रदान किए थे. धर्म और जाति जैसी सामाजिक बुराइयों की वजह से देश का बंटवारा होता रहा है, आपको इस तरह के कई उदाहरण मिल जाएंगे. लेकिन हमारे देश में शांति और सद्भाव की भावना हमेशा से रही है. इस पर पूरे देश को नाज है. इससे ही प्रेरित होकर देश के दूरदर्शी नेताओं ने अपनी हिम्मत और सब्र को खोये बिना एक साथ मिलकर नागरिकों के अनुकूल संविधान को तैयार किया. संविधान के अनुकरणीय 11 खंड इस बात के प्रमाण हैं कि किस तरह का भावनात्मक संघर्ष करते हुए हमारे बौद्धिक नेता प्रत्येक अध्याय का मसौदा तैयार करने में सफल हुए हैं.

दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान
पहला संवैधानिक सम्मेलन 9 दिसंबर 1946 को आयोजित किया गया था. संविधान समिति के लगभग 82% घटक कांग्रेस के सदस्य हैं. उनके सभी विचार और दृष्टिकोण एक मत नहीं थे. दुनिया के सबसे बड़े लिखित संविधान को रचने के लिए उन सभी के बीच ताल मेल बनाना कोई साधारण बात नहीं थी.

यदि पूरी कवायद सिर्फ मौजूद कांग्रेसियों तक सीमित होती, तो हमारा संविधान विभिन्न राजनीतिक सीमाओं के तहत लिखा जाता. लेकिन कांग्रेस ने संविधान को एक पार्टी या एक आंतरिक मुद्दे के रूप में नहीं देखा. इसने अन्य दलों के उपयुक्त उम्मीदवारों के लिए एक जगह प्रदान की थी, जिन्हें बुद्धिजीवी नेता कहा जा सकता है, ताकि उनकी राय सही ढंग से मांगी जा सके. संवैधानिक समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ बीआर अंबेडकर की नियुक्ति स्वयं इस तथ्य का उदाहरण है.

महान नेताओं के प्रयास
डॉ अंबेडकर ने अपनी अद्वितीय प्रतिभाओं के साथ दी गई जिम्मेदारियों को संभाला. हालांकि समिति में 300 लोग शामिल थे, उनमें से केवल 20 लोगों ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कांग्रेस की ओर से जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई भाई पटेल और बाबू राजेंद्र प्रसाद की प्रमुख भूमिका रही. केएम मुंशी और अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी. बीएन राव की अनूठी भूमिका जिन्होंने संविधान परिषद के कानूनी सलाहकार के रूप में काम किया, और मुख्य प्रारूपकार की भूमिका में एसएन मुखर्जी उतने ही प्रशंसनीय हैं.

एकीकरण को मिली प्रमुखता
1935 के भारत सरकार अधिनियम के अधिकांश प्रावधान, जो अग्रेज शासकों द्वारा बनाए गए थे, भारत के संविधान में शामिल किए गए. बहुत कुछ आधुनिक लोकतंत्रों के अनुभवों से लिया गया. इससे आलोचना भी हुई कि 'भारतीयता' के निशान संविधान से हटाए जा रहे हैं. हालाँकि कुछ सदस्यों ने गाँधीजी के सुझाव की वकालत की कि गाँव के स्तर पर शासन का विकेन्द्रीकृत होना चाहिए, लेकिन कुछ अन्य लोगों द्वारा इसका समर्थन नहीं किया गया. अंततः, जो पक्ष घटक संविधान रचियताओं को प्रभावित करने में सफल हुआ वो था कि आधुनिक संविधान व्यक्ति के अधिकारों पर आधारित हैं न कि पंचायतों या अन्य संगठनों की मनमर्ज़ी पर.

केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर भी बहुत बहस हुई है. कर राजस्व पर अधिक शक्ति केंद्र को प्रदान करने के लिए भी आलोचना की गई है. केंद्र सरकार, एक संघीय प्रणाली से सहमत होते हुए, नस्लीय एकीकरण की रक्षा करने वाली प्रणाली के रूप में है जो राज्यों को कुछ विशेष शक्तियों के साथ एक विशेष दर्जा देती है, यह एक प्रमुख चिंता का विषय था. और अंबेडकर ने एक मजबूत केंद्रीय शासन का पक्ष रखा था.

आरक्षण का समर्थन
सरदार पटेल ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र होने के प्रस्ताव को संवैधानिक सम्मेलन में खारिज कर दिया था. पटेल ने कहा कि यह स्पष्ट है कि जो लोग ऐसा करना चाहते थे, उनके पास पाकिस्तान के अलावा भारत में कोई जगह नहीं है और विशेष निर्वाचन क्षेत्र मुसलमानों को राष्ट्र के जीवन में पूरी तरह से सम्मिलित होने से बाधित करेगा. महिला आरक्षण की मांग पर भी तरजीह नहीं दी गयी थी. सम्मलेन में पहली बार यह सहमति व्यक्त की गई थी कि शिक्षा, रोजगार और राजनीति में आरक्षण केवल उन लोगों के लिए आरक्षित होना चाहिए जो पीढ़ियों से पीड़ित और बहिष्कृत हैं, और जो लोग अछूते रह गए हैं. जयपाल सिंघे, जिन्होंने 1928 ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम की कप्तानी की और स्वर्ण पदक जीताने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, ने आदिवासियों की दुर्दशा को सदस्यों के समक्ष रखा. इसपर गहन चर्चा की गई जिसके परिणामस्वरूप जनजातियों के लिए आरक्षण प्रदान करने के पक्ष में निर्णय लिया गया.

लोगों की रायशुमारी का निमंत्रण
कुछ और भी है जो हमारे संविधान को खास बनाता है. लोगों की राय को बड़े पैमाने पर आमंत्रित किया गया था. भारी संख्या में प्रतिनिधित्व प्राप्त हुए थे, जिनको ध्यान से पढ़ा गया और उनपर कई बार सुनवाई भी हुईं. भोजन की कमी, सांप्रदायिक झड़प, हजारों शरणार्थियों की संख्या, स्वदेशी उपनिवेशों का अड़ियल रवैय्या और कश्मीर में टकराव जैसे विभिन्न मुद्दे देश के लोकतंत्र को छिन्न-भिन्न कर रहे थे; इन सभी तनाव के बावजूद, संविधान का प्रारूपण करुणा के साथ किया जाना था.

कार्यान्वयन के बाद
संविधान लागू होने के बाद भी, यात्रा आसान नहीं थी. भूमि सुधार और हिंदू कोड बिल पर तत्कालीन राष्ट्रपति ने स्वयं आपत्ति जताई थी. राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने पूछा कि क्यों उन्हें मंत्री की सलाह के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए. संवैधानिक विशेषज्ञों ने यह कहते हुए विवाद शान्त किया कि यह अनिवार्य है. सामाजिक और आर्थिक न्याय को और मौलिक अधिकारों को सीमित करने के संबंध में भी सदस्यों के बीच मतभेद उत्पन्न हुआ था. कुछ मामलों में, अदालतों में भी, कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली. अदालती फैसलों से बचने के लिए कई संवैधानिक संशोधन किए गए थे.

42वें संशोधन को आपातकाल के दौरान विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों को कमज़ोर करने के लिए पेश किया गया था. स्थिति तब सामने आई जब बाद में आई जनता सरकार ने उन परिवर्तनों को रोकने के लिए एक संवैधानिक संशोधन पेश किया.

कोर्ट के फैसले द्वारा संरक्षण
न्यायिक सक्रियता के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के कई न्यायाधीशों ने फैसला देकर, संविधान की रक्षा की है और कई टिप्पणियाँ की है जो देश के नागरिकों के लिए अनुकूल हैं. केशवानंद भारती मामले में संवैधानिक बुनियादी ढांचे को परिभाषित करके किसी भी संगठन के शासनात्मक अधिकारी को जवाबदेह बनाकर बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है. 1990 के दशक में, देश की धर्मनिरपेक्षता ने, एक मूल्य के रूप में, कई उतार-चढ़ावों को सहन किये, जिनके बावजूद वह आज भी मजबूत है.

भारत का महान संविधान 26 नवंबर, 1949 को ठीक 70 साल पहले पारित किया गया था. संविधान की इतनी महान और सफल यात्रा का अगुवा खुद आम आदमी है. भारत में बहुदलीय राजनीतिक लोकतंत्र फलता-फूलता है और चुनाव नियमित रूप से होते हैं, क्योंकि यह आम आदमी का वोट है जो लोकतंत्र का भविष्य तय करता है !!

(लेखक - एन राहुल कुमार)

Last Updated : Nov 27, 2019, 4:19 PM IST

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