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चीन-भारत समाधान की तलाश में यथास्थिति की चुनौती

दोनों नेता ( राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) ऐसे समय में मिल रहे हैं जब व्यापार घाटा, कश्मीर और पाकिस्तान के साथ संबंध जैसे मुद्दे सामने हैं. ऐसे में द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट थामना सबसे बड़ी चुनौती होगी.

पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग

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Published : Oct 12, 2019, 8:38 AM IST

Updated : Oct 12, 2019, 9:23 AM IST

साल 1986 में भारतीय सेना और चाइनीज पीपल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) के बीच गतिरोध था. सुमदोरंगचु (Sumdorungchu) इलाके में दोनों सेनाएं आमने-सामने थीं. साल 1988 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गतिरोध तोड़ा और उन्होंने बीजिंग का दौरा किया. 34 साल बाद, राजीव बीजिंग जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. राजीव और चीनी समकक्ष (Premier) ली पेंग के साथ वार्ता के दौरान दोनों देशों के बीच आम सहमति बनी. इसके तहत दोनों पक्ष 'शांतिपूर्ण और मैत्रीपूर्ण परामर्श के माध्यम से सीमा मुद्दे का निपटान' करने पर सहमत हुए.

वार्ता के बाद चीन ने एक औपचारिक बयान जारी किया. इसमें कहा गया, 'दोनों देशों को सक्रिय रूप से अन्य क्षेत्रों में द्विपक्षीय संबंधों को विकसित करना चाहिए, और सीमा मुद्दे के उचित निपटान के लिए अनुकूल माहौल और परिस्थितियां बनानी चाहिए.'

बयान में 'भारत में कुछ चीनी तिब्बतियों द्वारा मातृभूमि के खिलाफ गतिविधियों' पर बीजिंग की चिंताएं दिख रही थी.

सुमदोरंगचु (Sumdorungchu) में यथास्थिति बहाल करने और हालात को स्थिर करने के लिए सात साल की बातचीत हुई. हालांकि, राजीव गांधी की ऐतिहासिक यात्रा के बाद चीन-भारत वार्ता पटरी पर लौट आई.

सुमदोरंगचु (Sumdorungchu) घाटी, भूटान से लगे ट्राई जंक्शन के पूर्व में है. ये डोकलाम से ज्यादा दूर नहीं है. साल 2017 में एशिया की दो ताकतवर सेनाओं (भारत-चीन) के बीच डोकलाम में 73 दिनों तक गतिरोध रहा था.
डोकलाम गतिरोध के फलस्वरूप ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच पहली अनौपचारिक वार्ता का रास्ता साफ हुआ. 2018 में चीन के वुहान में हुई इस वार्ता के बाद भारत-चीन के द्विपक्षीय संबंध पटरी पर लौटे.

1986 में सुमदोरंगचु (Sumdorungchu) के बाद भारत-चीन के राष्ट्र प्रमुख दो अनौपचारिक मौकों पर मिले हैं. नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग चीन के वुहान के बाद भारत के मामल्लापुरम और महाबलीपुरम जैसे तटीय और ऐतिहासिक शहर में मिले हैं.

दोनों नेता ऐसे समय में मिल रहे हैं जब व्यापार घाटा, कश्मीर और पाकिस्तान के साथ संबंध जैसे मुद्दे सामने हैं. ऐसे में द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट थामना सबसे बड़ी चुनौती होगी. जब तक विवादास्पद मुद्दों का समाधान नहीं हो जाता, तब तक यथास्थिति मुख्य विकल्प होगा.

यह आसान नहीं है, लेकिन किया जा सकता है. जैसा कि वुहान शिखर सम्मेलन के दौरान देखा गया था. वुहान सम्मेलन के बाद दोनों सेनाओं को शांति और शांति बनाए रखने के लिए 'रणनीतिक मार्गदर्शन' जारी किया गया था. दोनों सेनाओं से आक्रामक गश्त की रणनीति से बचने और सीमा पर 2005 के प्रोटोकॉल का पालन करने को कहा गया था.

वुहान समिट के बाद सीमा पर गतिरोध प्रत्यक्ष रूप से शांत हुआ है. दूसरी अनौपचारिक बैठक के परिणाम के रूप में दोनों पक्ष विश्वास बहाल करने के उपाय (Confidence Building Measures) के प्रति आशावान हैं.

एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने कहा, 'यदि ऐसे मामले हैं जो निकट भविष्य में सुलझने योग्य नहीं हैं, क्योंकि हमें बुनियादी बातों को सुलझाने की जरूरत है. ऐसे में हम कम से कम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि मामले खराब न हों, और यथास्थिति बनी रहे.'

महाबलीपुरम जैसी ऐतिहासिक और दर्शनीय जगह पर हो रही बहुचर्चित मोदी-जिनपिंग की भेंट के बावजूद, भारत-चीन संबंध की तस्वीर वैसी खुशनुमा नहीं हैं. पिछले कुछ समय में इस पर जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन और अनुच्छेद 370 के प्रावधानों में हुए बदलाव का साया पड़ा है.

मोदी सरकार ने बार-बार आश्वस्त किया है कि जम्मू-कश्मीर में उठाए गए आंतरिक कदम से बाहरी सीमा पर कोई असर नहीं पड़ेगा. इसके बावजूद चीन ने कश्मीर मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ दिया है. उसने पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) पर चीन के कब्जे वाले हिस्से (अक्साई चीन) का जिक्र कर, अक्साई चीन के पहलू पर भी सवाल खड़े किए हैं.

विगत सात सितंबर को चीनी विदेश मंत्री वांग के दौरे के बाद चीन-पाकिस्तान का संयुक्त बयान जारी हुआ था. भारत ने इस बयान में जम्मू-कश्मीर का संदर्भ आने पर तीखी प्रतिक्रिया दी, और बयान को खारिज कर दिया. 'चीन और पाकिस्तान से अपनी चिंताएं लगातार जाहिर करता रहा है. ये चिंता तथाकथित चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को लेकर है. [China-Pakistan Economic Corridor (CPEC)] ये गलियारा भारत की सीमा में है, जिस पर पाकिस्तान ने साल 1947 से अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है.'

शी जिनपिंग की चेन्नई यात्रा से ठीक पहले इमरान खान की बीजिंग यात्रा हुई. भारत की तमाम आपत्तियों के बावजूद, संयुक्त प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार चीन की ओर से ये दोहराया गया कि 'कश्मीर मुद्दा, इतिहास से हटकर एक विवाद है, और इसे संयुक्त राष्ट्र के चार्टर, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव और द्विपक्षीय समझौते के आधार पर उचित और शांति से हल किया जाना चाहिए.'

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव की प्रमुख परियोजना के रूप में CPEC के महत्व को और अधिक रेखांकित किया गया, जबकि पाकिस्तान ने हांगकांग में चल रहे विरोध प्रदर्शन को चीन का 'आंतरिक मामला' बताते हुए वन चाइना पॉलिसी के लिए अपने समर्थन की पुष्टि की.

मोदी विगत मई में एक ऐतिहासिक जनादेश के साथ सत्ता में वापस लौटे हैं. उन्होंने वुहान समिट के बाद शी जिनपिंग से पांच अलग-अलग मौकों पर मुलाकात की है.
राष्ट्रवादी 'चीन के सपने' को लेकर देश की अगुवाई करने के मामले में शी जिनपिंग आज सबसे मजबूत नेताओं में से एक हैं.

दोनों नेता संबंधों में कांटेदार मुद्दों को संभालने में स्थिरता और परिपक्वता लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का इस्तेमाल कर सकते हैं. पलक झपकते ही बड़ी सफलताओं या समाधान की भूख शायद वुहान की तरह न हो, क्योंकि भारत में चुनाव खत्म हो चुके हैं, और व्यापार युद्ध के बीच चीन का फोकस ट्रंप प्रशासन पर है.

विदेश नीति विशेषज्ञ सी. राजमोहन ने द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक हालिया लेख में दो एशियाई दिग्गजों की व्यापक राष्ट्रीय शक्ति के बढ़ते अंतर की ओर इशारा किया है. इससे इन अंतरों को पाटने का नजरिया मिलता है.

चीन की कुल जीडीपी लगभग 14 ट्रिलियन डॉलर की है. ये भारत (2.8 ट्रिलियन डॉलर) की तुलना में लगभग पांच गुना बड़ी है. चीन का वार्षिक रक्षा खर्च ($ 250 बिलियन)भी भारत से चार गुना बड़ा है. राजमोहन लिखते हैं, 'यह शक्ति असंतुलन राजनयिक मोर्चे पर एक अप्रिय तथ्य में बदल जाता है. उस चीन पर भारत को खुश करने का कोई दबाव नहीं है. या, अधिक सटीक रूप से, यह भारत को नाराज कर सकता है - चाहे वह भारत के परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (Nuclear Suppliers Group) की सदस्यता को रोकने का सवाल हो, या कश्मीर पर भारत के कदम का विरोध करना और इसे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) में ले जाने का. ये वुहान में भी नहीं बदला, और ना ही चेन्नई में कोई बड़ा बदलाव होगा.'

हालांकि व्यापार घाटा, जो चीन-भारत संबंधों में टकराव और संघर्ष का कारण बनता है, यही दोनों देशों के बीच प्रतिस्पर्धा और सहयोग का मार्ग भी प्रशस्त कर सकता है. जब बात विश्व व्यापार संगठन (WTO) और अमेरिका द्वारा वैश्विक व्यापार व्यवस्था से चयनात्मक तरीके से वापस आने की हो, तब मोदी और शी जिनपिंग को एक जैसे पदों पर एक साथ काम करने के महत्व का एहसास है.

दिल्ली दूतावास में सेवा दे चुके एक चीनी राजनयिक ज़ेंग ज्योंग (Zeng Xyyong) द्वारा लिखे गए एक लेख के अनुसार, 1962 के युद्ध के एक स्पष्ट संदर्भ में, चेयरमैन माओ के उत्तराधिकारी डेंग शियाओपिंग ने राजीव गांधी को बताया कि 'वह पल उन अप्रिय चीजों को भूल जाने और भविष्य को देखने का था.'

ज़ेंग ने आगे कहा कि 1991 में दिल्ली यात्रा के दौरान, प्रीमियर पेंग ने दिवंगत प्रधान मंत्री, पीवी नरसिम्हा राव को बताया, 'वे उम्मीद करते हैं कि शांतिपूर्ण परामर्श के माध्यम से मुद्दों को उचित तरीके से हल किया जा सकता है. चीन, भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी विवाद में शामिल नहीं होगा.'

ली का आश्वासन स्पष्ट रूप से केवल कागजों पर है. अमेरिकी इंडो-पैसिफिक रणनीति के सामने चीन-पाक का साथ मजबूत बना हुआ है. इसे बीजिंग रोकथाम उपकरण के रूप में संदिग्ध नजरों से देखता है.
हालांकि, उम्मीद है कि चेन्नई में मोदी और शी जिनपिंग वुहान की भावना को आगे बढ़ाने के तरीकों पर गौर करेंगे, और दोनों नेता सिर्फ गलतफहमी के आधार पर कोई संघर्ष नहीं करने की इच्छा का संकेत भी देंगे.

मोदी-जिनपिंग के विशेष प्रतिनिधियों के बीच लंबित अनौपचारिक बैठक का इंतजार है. ऐसे में जटिल सीमा मुद्दे के समाधान की खोज करते समय, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति और धीरज की यथास्थिति बनाए रखना महत्वपूर्ण होगा.

(लेखक- स्मिता शर्मा)

Last Updated : Oct 12, 2019, 9:23 AM IST

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