नई दिल्ली : कोरोना महामारी का प्रकोप पूरी दुनिया में जारी है. आज कितनी खराब स्थिति है यह कोई मायने नहीं रखता, लेकिन इसका अंत भी नजदीक ही है. एक समय के बाद हैजा, प्लेग, खसरा, पोलियो, इन्सेफेलाइटिस, चेचक, सार्स और इबोला भी खत्म हो गए. इस बीच सरकार को हर हाल में इस महामारी से लोगों और उनकी आजीविका पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए लगातार काम करना चाहिए. नेताओं के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण समय है कि वह आर्थिक विषमता की दूसरी महामारी पर ध्यान दें, जो न जाने कब से मानव के लिए आफत बनी हुई है.
कोविड-19 की तरह ही स्पेनिस फ्लू ने वर्ष 1920 में पूरी दुनिया को हिला दिया था. मानव जाति की महामारियों भेंट कोई नया नहीं है, लेकिन सामाजिक असमानता से आबादी के कई वर्गों को खतरा है. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा दुनिया में 1880 के दशक में आई. दूसरे विश्वयुद्ध से जो सामाजिक आर्थिक मुसीबत आई, उससे इसकी जरूरत को और बल मिला.
आजादी के 73 वर्ष के बाद भी हमारे देश में आर्थिक असमानता बहुत अधिक है. सरकारों ने कल्याणकारी राज्य के मूल सिद्धांतों जैसे नियोजन के लिए बराबरी का अवसर और संपत्ति के बंटवारे की उपेक्षा की. कुप्रबंधन, भ्रष्टाचार और राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण सामाजिक कल्याण से जुड़ी योजनाएं भारत में नाकाम रहीं.
सरकारी योजनाएं जब लोगों के स्वास्थ्य, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा में योगदान देंगी, तभी भारत कल्याणकारी राज्य के लेबल को न्यायसंगत ठहरा पाएगा. फोर्ब्स की वार्षिक सूची के अनुसार, दुनिया में 2095 अरबपति हैं, जिनमें 102 भारत में हैं. देश की आबादी की तुलना में ये संख्या छोटी लग सकती है, लेकिन ऑक्सफेम इंटरनेशनल की रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि भारत में एक प्रतिशत जो सबसे धनी लोग हैं, उनके पास 73 प्रतिशत संपत्ति है.
इसके परिणामस्वरूप आर्थिक असमानता बढ़ रही है. भारत के गरीब भूख और बीमारी से संतप्त हैं. दुर्भाग्य से लोगों को यह सिखाने के बजाय कि किस तरह कमाएं हमारी सरकारें सतही योजनाओं के माध्यम से उन्हें मछली दे रही है. राजनीतिक दल कल्याणकारी योजनाओं के जरिए मतदाताओं को प्रभावित करके अपनी जीत पक्की कर रहे हैं. चूंकि चुनावी जीत के अलावा किसी भी राजनीतिक दल को जनता के कल्याण में कोई रुचि नहीं है, इसलिए गरीब और गरीब होते जा रहे हैं.