नया नागरिकता कानून: क्या बीजेपी को हो सकता है चुनावी फायदा?
देश की विपक्षी पार्टियों में यह डर है कि हाल ही में लाये गये नागरिकता संशोधन क़ानून से बीजेपी को चुनावी फायदा हो सकता है. इसका कारण है, कि यह बिल, धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकता है, खासतौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच. लेकिन, ऐसा लगता है कि जितना बीजेपी उम्मीद कर रही है या विपक्ष डर रहा है, उतना चुनावी फायदा इस बिल से बीजेपी को नहीं होगा.
देश की विपक्षी पार्टियों में यह डर है कि हाल ही में लाये गये नागरिकता संशोधन कानून से बीजेपी को चुनावी फायदा हो सकता है. इसका कारण है, कि यह बिल, धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे सकता है, ख़ासतौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच. लेकिन, ऐसा लगता है कि जितना बीजेपी उम्मीद कर रही है या विपक्ष डर रहा है, उतना चुनावी फायदा इस बिल से बीजेपी को नहीं होगा.
बीजेपी को होने वाला फ़ायदा काफ़ी हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि विपक्षी दल इसे लेकर क्या रुख लेते हैं. मेरे आकलन में, विपक्ष इस नये क़ानून को लेकर जितना आक्रमक होगा, बीजेपी को उतना फ़ायदा पहुंचेगा और विपक्ष अगर इस बिल को लेकर ज्यादा कड़े स्वर नहीं करता है तो बीजेपी को भी चुनावी फ़ायदा कम होगा.
नये नागरिकता कानून के खिलाफ विपक्ष के सख्त रवैये से वोटरों का और तेज़ी से ध्रुवीकरण होने का खतरा है और इसके कारण बीजेपी को चुनावी फ़ायदा हो सकता है.
हालांकि, इस नये नागरिकता संशोधन बिल के खिलाफ देशभर में कई विरोध के स्वर सामने आए हैं, लेकिन इसके बावजूद देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जो इस बिल का समर्थन कर रहा है. देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस बिल का समर्थन कर रहा है क्योंकि उनके लिये इस क़ानून की परिभाषा साफ है : जो मुसलमान अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बंग्लादेश से यहाँ आये हैं और ग़ैरक़ानूनी तरह से रह रहे हैं, उन्हें वापस भेजा जाना चाहिए.
आम आदमी को इससे ख़ास मतलब नहीं है कि कौन से धर्म को इससे बाहर रखा गया है या इस कानून में कौन सी तारीख़ तक देश में आये लोग शामिल हैं. विपक्षी दल बीजेपी पर इस नये क़ानून की आड़ में राजनीति खेलने का आरोप लगा रहे हैं, वहीं, आम लोगों में यह धारणा भी बन रही है कि, विपक्षी पार्टियां इस क़ानून का विरोध कर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की राजनीति कर रही हैं. इसके कारण लोगों का इस क़ानून के पक्ष और विपक्ष में बंटने का खतरा है जिसका चुनावी फ़ायदा बीजेपी को मिलना तय है.
इसमें कोई शक नहीं है कि इस नये कानून के समर्थन में खड़े लोगों की संख्या इसका विरोध करने वालों से कहीं ज़्यादा है. लेकिन, ऐसा हो सकता है कि बीजेपी को इसकी तुलना मे उतना फ़ायदा न मिले जितना की उसे उम्मीद है. इसका कारण साफ़ है, 2019 के आम चुनावों में बीजेपी ने 37% वोट शेयर के साथ 303 सीटें हासिल की, लेकिन दक्षिण में पार्टी, विंध्याचल में कर्नाटक के अलावा कहीं भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी.
केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में मुसलमानों की बड़ी संख्या होने के बावजूद वहां के लोगों के लिये यह नया कानून चुनावी मुद्दा नहीं है. जिन देशों को इस बिल में शामिल किया गया है, उनमे से किसी से भी इन राज्यों की सीमा नहीं लगती है, तो वहां से ग़ैरक़ानूनी घुसपैठ होना मानी नहीं जा सकती है. इसलिए इन राज्यों के लोगों के लिए यह चुनावी मुद्दा भी नहीं होगा.
जानकारों का कहना है कि आने वाले दिनों में दक्षिण के राज्यों में बीजेपी की पकड़ बड़ सकती है, लेकिन इसके पीछे इस नये नागरिकता क़ानून की भूमिका न के बराबर होगी.
हालांकि, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड और बिहार में मुस्लिम आबादी है और यहां इस नये बिल के विरोध में आवाज़ें भी उठीं, लेकिन सरकार ने इन सभी को समय रहते क़ाबू कर लिया. बिल पास होने के बाद कुछ दिनों तक इन राज्यों से विरोध की तस्वीरें आती रहीं, लेकिन वक़्त बीतने के साथ साथ, इन राज्यों में यह आवाजें धीमी पड़ने लगी. इसका कारण है कि इन राज्यों की, घुसपैठ होने वाले देशों से साझा सीमा नहीं है.
यह हो सकता है, कि अन्य राज्यों में इन देशों से घुसपैठ कर लोग आये हों और बाद में इन राज्यों में आकर बस गए हों. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या इन राज्यों में कम है और यहां के लोगों के लिये यह चुनावी मुद्दा नहीं बन सकेगा. अगर यह मुद्दा इन राज्यों में चुनावी मसला बनता भी है, तो इसका ज़्यादा फ़ायदा बीजेपी को हो सकता है क्योंकि, इससे पहले के 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी ने इनमें से ज्यादातर राज्यों में धमाकेदार प्रदर्शन किया था.
इन राज्यों में अपनी सीटें बढ़ाने के लिये बीजेपी के पास ज़्यादा संभावनाएं नहीं हैं. 2019 लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने, राजस्थान की सभी 25 सीटों पर, मध्य प्रदेश की 29 में से 28 सीटों पर, छत्तीसगढ़ की 11 में से 9 सीटों पर, झारखंड की 14 में से 11 सीटों पर, उत्तर प्रदेश की 80 में से 62 सीटों पर, और बिहार में गठबंधन में चुनाव लड़ 40 में से 39 सीटों पर जीत हासिल की थी.
अगर पार्टी इस क़ानून के कारण अपनी लोकप्रियता को बढ़ाती भी है तो इससे उसे सीटों के चुनावी गणित में कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होगा. पश्चिम गुजरात और महाराष्ट्र में बीजेपी का फायदा दो कारणों से सीमित रह सकता है : बीजेपी ने पहले ही गुजरात की सभी 26 और महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ 48 में से 41 सीटों पर जीत दर्ज कर रखी है.
असम और पश्चिम बंगाल पर नज़र रखने की जरुरत है, क्योंकि इस बिल के कारण इन दोनों राज्यों की राजनीति पर असर पड़ेगा. इन दोनों राज्यों में कुल मिलाकर लोकसभा की 55 सीटें हैं, जिनमें असम में 13 और बंगाल में 42 सीटें हैं, और बीजेपी इन दोनों ही राज्यों में चुनावी सेंध नहीं लगा सकी है. 2019 आम चुनावों में बीजेपी ने असम में 36% वोटों के साथ 9 सीटें, और बंगाल में 40% वोटों के साथ 18 सीटें जीतीं. इसलिए पार्टी के लिए इन दोनों राज्यों में अपनी सीटों को आंकड़े को बढ़ाने का दायरा है.
पिछले साल असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की क़वायद काफी विवादों में रही और इसके कारण असम में बड़े पैमाने पर नये नागरिकता क़ानून के विरोध में प्रदर्शन भी हुए. इस नये क़ानून पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रुख़ जगज़ाहिर है. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर इस नये कानून का विरोध किया है.
गौरतलब है कि यह दोनों राज्य बांग्लादेश से साझा सीमा रखते हैं और इन दोनों ही राज्यों में बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी है, जिनमें से काफ़ी कथित तौर पर गैरक़ानूनी बांग्लादेशी हैं. 2021 में जब यह दोनों राज्य विधानसभा चुनावों में जायेंगे तो निश्चित तौर पर यहां, यह नया नागरिकता क़ानून एक बड़ा चुनावी मुद्दा होगा.
यह आने वाला वक़्त ही बताएगा कि इन दोनों राज्यों में इस मुद्दे से किसे कितना फ़ायदा या नुक़सान होता है, और इससे इस मुद्दे से 2024 लोकसभा चुनावों पर होने वाले असर का भी अंदाज़ा लग जाएगा.
(लेखक- संजय कुमार)
संजय कुमार सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवेलपिंग सोसाइटीज में प्रोफेसर और एक जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक भी हैं.