साहिबगंज (झारखंड) : हूल क्रांति के महानायक सिदो और कान्हू की शहादत को लोग आज भी नहीं भुला पाए हैं. साहिबगंज जिले के लोग अपनी आजादी का श्रेय शहीद सिदो-कान्हू को ही मानते हैं. इतिहास के पन्नों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ पहला संथाल विद्रोह 1855 से 1856 तक चला था. इस आंदोलन में आदिवासी और गैर आदिवासी लोगों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंका था. जिसमें 60 हजार लोगों ने भाग लिया था. इस आंदोलन का नेतृत्व शहीद सिदो, कान्हू, चांद और भैरव कर रहे थे. उन्होंने अपने पारंपरिक अस्त्र-शस्त्र से ही अंग्रेजी सैनिकों के दांत खट्टे कर दिए थे.
चारों भाई बहन ने अंग्रेजों के खिलाफ फूंका बिगुल
साहिबगंज के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में वीर सपूत सिदो और कान्हू का जन्म 1815 और 1820 में हुआ था. इनके चार भाई और दो बहन थे. सिदो, कान्हू, चांद और भैरव के साथ मिलकर उनकी बहन फूलो व चान्हो ने महाजनी प्रथा और सहायक अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाई थी. इस लड़ाई में संथाल परगना, भागलपुर, मुंगेर, हजारीबाग, रांची, बंगाल, उड़ीसा (अब ओडिशा) सहित अन्य जगहों से लोगों को एकजुट किया और 30 जून 1855 को भोगनाडीह से बिगुल फूंका. यह लड़ाई एक साल तक चली.
आंदोलन में 10 हजार से अधिक लोगों की गई थी जान
अंग्रेजों ने इस पहले आंदोलन को कुचलने के लिए बड़ी संख्या सैन्य बल उतारा और बेरहमी से लोगों को मारना शुरू किया. इस आंदोलन में 10 हजार से अधिक लोगों ने अपनी जान गंवाई थी. अपने बीच के किसी गद्दार के सहयोग से चांद और भैरव को गोली मार दी गई थी और सिदो व कान्हू दोनों भाई को पकड़ लिया गया. अंग्रेजों ने भय और दहशत बनाने के लिए दोनों भाई को बरहेट प्रखंड के पचकठिया में पीपल के पेड़ नीचे हजारों लोगों के बीच 26 जुलाई 1855 को फांसी पर लटका दिया था. इसके बाद से इस दिन को ही उनके शहादत के लिए याद किया जाने लगा.