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मानवाधिकार संरक्षण संशोधन विधेयक को संसद में मिली मंजूरी

सोमवार को राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों में अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति से संबंधित विधेयक को संसद से सर्वानुमति से मंजूरी मिल गई है. साथ ही विधेयक को प्रवर समिति में भेजने के विपक्ष के प्रस्ताव को ध्वनिमत से खारिज कर दिया.

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Published : Jul 22, 2019, 10:18 PM IST

संसद में बोलते अमित शाह

नई दिल्ली: संसद ने सोमवार को राष्ट्रीय एवं राज्य मानवाधिकार आयोगों में अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति से संबंधित एक महत्वपूर्ण संशोधन विधेयक को मंजूरी दी गई.

गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में नियुक्ति के प्रावधानों को बदलने को लेकर विपक्ष के आरोपों को नकारते हुए कहा कि इनकी नियुक्ति एक समिति करती है. इस समिति में दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष भी शामिल होते हैं.

बता दें कि राज्यसभा ने मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) विधेयक को चर्चा के बाद सर्वानुमति से पारित कर दिया. साथ ही उच्च सदन ने इस विधेयक को प्रवर समिति में भेजने के विपक्ष के प्रस्ताव को ध्वनिमत से खारिज कर दिया.

इससे पहले विधेयक पर चर्चा के दौरान विपक्ष के सदस्यों ने पुनर्नियुक्ति के प्रावधान पर संदेह व्यक्त करते हुए कहा था कि इससे आयोग के फैसलों में सरकार का प्रभाव परिलक्षित होगा.

सोमवार को गृह मंत्री अमित शाह ने विपक्ष की आशंकाओं को निर्मूल करार देते हुए कहा कि कई लोगों ने यह आशंका जताई है कि यह आयोग 'सरकार का आयोग' बन जाएगा. रकार के इशारे पर काम करेगा. ढाई-तीन साल पर पुनर्नियुक्ति उचित नहीं है.

उन्होंने मूल कानून के प्रावधान का हवाला दिया और कहा कि इसमें नियुक्ति गृह मंत्री की सिफारिश पर प्रधानमंत्री नहीं करते हैं.

इसके लिए एक समिति बनी है जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, राज्यसभा के उपसभापति, दोनों सदनों के नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता सदस्य होते हैं. समिति में लगभग सर्वसम्मति से नियुक्ति की जाती है.

शाह ने कहा, 'उस पर भी हम संशय खड़ा करेंगे तो मैं मानता हूं कि कोई लोकतांत्रिक संस्था काम नहीं कर पाएगी. हमें पूरे सदन की बुद्धिमत्ता पर संदेह नहीं करना चाहिए.'

विधेयक में मूल कानून के इस प्रावधान को बदल दिया गया है कि मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष प्रधान न्यायाधीश ही हो सकता है.

इसके बजाय उच्चतम न्यायालय के किसी अन्य नयायाधीश को भी इसका अध्यक्ष बनाने का प्रावधान किया गया है.था.

शाह ने कहा कि चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने कहा कि आयोग के सदस्यों को लग सकता है कि सरकार के पक्ष में फैसला देंगे तो सरकार कहीं और नियुक्ति कर सकती है.

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उन्होंने कहा कि यदि आयोग का कोई सदस्य या अध्यक्ष बनेगा तो वह किसी सरकारी पद पर नहीं रह सकेगा.किंतु उसे पुनर्नियुक्ति का अधिकार दिया गया है और वह काम भी समिति करेगी.

उन्होंने कहा कि इस आयोग में सदस्य या अध्यक्ष रहने के लिए 70 साल की आयु का प्रावधान है.इसलिए यदि कोई न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के बाद इसका सदस्य या अध्यक्ष बनता है तो उसके बाद बार बार पुनर्नियुक्ति के अधिक अवसर नहीं होंगे.

विपक्षी सदस्यों की इन आशंकाओं का निराकरण करते हुए गृह मंत्री शाह ने कहा, '‘‘ मैं सदन के सामने रखता हूं कि इसके पीछे हमारी कोई और मंशा नहीं है. अगर हम यह लिखते कि मुख्य न्यायाधीश के नहीं होने पर उच्चतम न्यायालय के

न्यायाधीश को (अध्यक्ष) बना सकेंगे तो सुप्रीम कोर्ट का कौन न्यायाधीश (अध्यक्ष) बनने के लिए इसको कौन स्वीकार करेगा?'

शाह ने कहा कि उच्चतम न्यायालय के कई आदेशों में यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि मुख्य न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों के समान ही है.उनके और अन्य न्यायाधीशों के बीच कोई अंतर नहीं होता.बस मुख्य न्यायाधीश को कुछ अधिक

प्रशासनिक अधिकार होते हैं.उनके पास अन्य न्यायाधीशों की तुलना में कोई ज्यादा न्यायिक अधिकार नहीं होते हैं. विधेयक में आयोग के सदस्यों की संख्या दो से बढ़ाकर तीन करने का प्रावधान है जिसमें एक महिला हो.

इसमें प्रस्ताव किया गया है कि आयोग और राज्य आयोगों के अध्यक्षों और सदस्यों की पदावधि को पांच वर्ष से कम करके तीन वर्ष किया जाए और वे पुनर्नियुक्ति के पात्र होंगे.

इससे पहले विधेयक पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने कहा कि मोदी सरकार की नीति है कि न किसी पर अत्याचार हो, न किसी अत्याचारी को बख्शा जाए.

गृह राज्य मंत्री राय ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नीत सरकार की नीतियों के केंद्र में 'मानव और मानवता का संरक्षण' है.

उन्होंने कहा कि मुख्य न्यायाधीश के साथ साथ अन्य न्यायाधीश को अध्यक्ष बनाने का प्रावधान इसलिए रखा गया है क्योंकि 15 में से 13 राज्यों में आयोग के अध्यक्ष पद खाली पड़े हुए हैं.सरकार चाहती है कि इन पदों को जल्द भरा जाए.

राय ने मोदी सरकार के दौरान मानवाधिकार आयोगों में हुए कामकाज का ब्यौरा देते हुए कहा कि पिछले पांच साल में चार लाख 93 हजार मामले दर्ज किए गये जिनमें से 97 प्रतिशत मामलों को निस्तारित कर दिया गया.

विधेयक पारित होने के दौरान कुछ सदस्यों ने असम के हिरासत शिविरों को लेकर गृह मंत्री से स्पष्टीकरण मांगा.

इस पर गृह मंत्री शाह ने स्पष्ट किया कि असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी के तहत हिरासत शिविरों में रखे गये लोगों के भाग्य का फैसला करने का अधिकार सिर्फ अदालत के पास है.
सरकार की जिम्मेदारी सिर्फ इन लोगों को मूलभूत सुविधायें मुहैया कराने की है.

उन्होंने कहा, 'मैं न्याय नहीं कर सकता हूं, यह काम सिर्फ अदालत कर सकती है. शाह ने कहा कि इन शिविरों में भोजन और अन्य जरूरी मूलभूत सुविधाओं की कमी की बात अगर उनके संज्ञान में लायी जायेगी तो सरकार इसमें सुधार लाने का प्रयास करेगी.'

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