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हिंसा का विकल्प और अहिंसा देवी से साक्षात्कार - need greed quote

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 37वीं कड़ी.

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Published : Sep 22, 2019, 7:06 AM IST

Updated : Oct 1, 2019, 1:05 PM IST

सन 1917 अप्रैल. चम्पारण की धरती. सत्य और अहिंसा का एक नया प्रयोग. करने वाले थे मोहनदास करमचन्द गांधी. इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ऐसा प्रयोग (सत्याग्रह) कर चुके थे. वहां सफलता भी मिल चुकी थी. इस 'प्रयोग' ने इन्हें हिन्दुस्तान में खास पहचान दिलाई थी. संभवत: यही कारण था कि चम्पारण के एक किसान राजकुमार शुक्ल ने तत्कालीन अन्य नेताओं से चम्पारण आकर किसानों के हालात जानने-समझने के लिए आग्रह न कर, गांधीजी से अपनी तकलीफ सुनाई और उन्हें बुलाया.

उस दौर के राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करने पर दिखता है कि 1917 से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेताओं में गांधीजी नहीं थे. फिर भी देश के एक छोर पर निवास करने वाले, एक किसान के मन में गांधीजी के प्रति इस कदर भरोसा काबिलेगौर है. गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में चम्पारण पर विस्तारपूर्वक लिखा है. उन्होंने बताया है कि चम्पारण में 'अहिंसा देवी का साक्षात्कार' किया.

भारत में, महात्मा गांधी की अगुआई में, पहले सत्याग्रह की प्रयोग स्थली बनी–चम्पारण की सरजमीं. 1917 के चम्पारण सत्याग्रह से भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रकृति में बदलाव आया. इसी के बाद गांधीजी की जगह, स्वाधीनता आंदोलन और कांग्रेस के केन्द्र में, बनी.

राजकुमार शुक्ल के निवेदन पर जाते समय गांधीजी ने यह नहीं सोचा था कि वहां 'सत्याग्रह' करने जा रहे हैं, कि वहां इतने दिन रुकने पडेंग़े, कि वहां शिक्षा को लेकर अपनी अवधारणा को असली रूप देंगे, कि वहां कस्तूर बाई गांधी, राजेन्द्र प्रसाद सरीखे सभी महत्त्वपूर्ण लोगों को बुलाएंगे या चम्पारण के किसानों की असली स्थिति जानने के लिए शुरू की गयी जांच-पड़ताल निकट भविष्य में ही इतना महत्त्वपूर्ण साबित होगी. या इस चम्पारण-यात्रा से 'सत्याग्रह' के इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ेगा.

'सत्याग्रह' शब्द की उत्पत्ति के बारे में गांधीजी ने बताया है कि 'सत्याग्रह' शब्द की उत्पत्ति के पहले उस वस्तु की उत्पत्ति हुई. वस्तु का मतलब, उसका, जिसे बाद में ज्ञान की दुनिया में 'सत्याग्रह' के नाम से जाना गया. इसकी उत्पत्ति के समय गांधीजी भी उसके स्वरूप को पहचान नहीं सके थे. सभी लोग उसे गुजराती में 'पैसिव रेजिस्टेंस' के अंग्रेजी नाम से पहचानते थे. दक्षिण अफ्रीका में, गोरों की एक सभा में, गांधीजी ने देखा कि 'पैसिव रेजिस्टेंस' का संकुचित अर्थ किया जाता है. इसे कमजोरों का हथियार माना जाता है. यह भी माना जाता है कि इसमें द्वेष हो सकता है और इसका अंतिम स्वरूप हिंसा में प्रकट हो सकता है. ऐसे में, गांधीजी ने इसकी मुखालफत की.

हर नयी या मौलिक परिघटना को संबोधित करने के लिये नये शब्द की जरूरत पड़ती है. एक ऐसा शब्द जो उस परिघटना को, उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में, जाहिर कर सके. कई बार पुराने शब्दों में परिघटनाएं नया अर्थ भर देती हैं. तब पुराना अर्थ विस्थापित हो जाता है और नया अर्थ उस शब्द के साथ मजबूती से संबद्ध हो जाता है.

दक्षिण अफ्रीका में सत्ता के खिलाफ, जिस रूप में गांधीजी की अगुवाई में संघर्ष हुआ, उसकी अर्थवत्ता को अभिव्यक्त कर पाने में 'पैसिव रेजिस्टेंस' शब्द सक्षम नहीं था. इसलिए 'हिन्दुस्तानियों के लिए अपनी लड़ाई का सच्चा परिचय देने के लिए नये शब्द की योजना करना आवश्यक हो गया'. गांधीजी को इसके लिए वाजिब एवं स्वतंत्र शब्द नहीं सूझ रहा था. लिहाजा इन्होंने नाम मात्र का इनाम रखकर 'इण्डियन ओपीनियन' के पाठकों में प्रतियोगिता करवाई. इनाम मिला, मगनलाल गांधी को. इन्होंने सत+आग्र्रह की संधि करके 'सदाग्रह' शब्द बनाकर भेजा. गांधीजी ने 'सदाग्रह' शब्द को और अधिक स्पष्ट करने के विचार से बीच में ‘य' अक्षर बढ़ाकर 'सत्याग्रह' शब्द बनाया. नतीजतन गुजराती में यह लड़ाई, इस नाम से, पहचानी जाने लगी. कालांतार में आलम यह कि दुनिया भर में अहिंसक संघर्ष का पर्याय यह शब्द बन गया.


दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के दिनों से ही जाहिर हो गया था कि मोहनदास करमचंद गांधी के चिंतन और कर्म का बुनियाद सत्य और अहिंसा है. अहिंसा को गांधी जी सत्याग्रह की सबसे बड़ी कसौटी मानते थे. लिहाजा, इस पर वाद-विवाद-संवाद होने लगे. अहिंसा को सबसे बड़ा मूल्य स्थापित करने पर अनेक लोग तब भी सहमत नहीं थे, आज भी नहीं हैं.

अहिंसा को बुनियादी कसौटी मानने से इंकार बिल्कुल दो वैचारिक ध्रुवों पर खड़े, परस्पर विरोधी, लोग भी करते हैं. धुर दक्षिणपंथी और धुर वामपंथी लोग, जो अन्य मसले पर एक-दूसरे से असहमत होते हैं, इस मुद्दे पर एकमत रखते हैं. बहरहाल, महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय भी गांधीजी के इस मत से घोर असहमत थे. लाला लाजपत राय और महात्मा गांधी के बीच अहिंसा को लेकर हुआ असहमत संवाद उल्लेखनीय है. कोलकाता से प्रकाशित 'मॉडर्न रिव्यू' के जुलाई 1916 अंक में लाला लाजपत राय ने अहिंसा पर सवाल खड़ा करते हुए 'अहिंसा परमो धर्म' एक सत्य या सनक शीर्षक लेख लिखा. इसमें लाला जी ने लिखा कि 'मेरे मन में गांधी के व्यक्तित्व के प्रति अत्यधिक सम्मान का भाव है.

मैं जिन लोगों की पूजा करता हूं.' उनमें वे भी आते हैं. मुझे उनकी सच्चाई में कोई संदेह नहीं है. मैं उनके हेतुओं पर भी शंका नहीं करता. किंतु उन्होंने जो अनिष्टकारी मत स्थिर किया है, उसका तीव्र विरोध करना मैं अपना कत्र्तव्य समझता हूं. इस संबंध में गांधी जैसे व्यक्ति को भी भारत के नवयुवकों के मस्तिष्क विषाक्त करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए. जातीय शक्ति के स्रोतों को अपवित्र करने की स्वतंत्रता किसी को नहीं होनी चाहिए.

लाला लाजपत राय ने अहिंसा को, ठीक से नहीं समझने पर, एक वहम का रूप कहा, जिससे व्यक्ति कायर, कापुरुष, हीन, मूढ़ बन जाता है. इसका अनुचित उपयोग ऐसी सड़ांध है जिसका विष समस्त शरीर में फैल जाता है. यह सड़ांध मनुष्य की शक्तियों को क्षीण कर देती है और स्त्री-पुरुषों को ऐसे अद्र्ध विक्षिप्त, उन्मादी और दुर्बल प्राणियों में परिवर्तित कर देती है.

इनके मुताबिक पिछले पन्द्रह सौ वर्षों से भारत के पद-दलित होने, मानवीय गुणों से रहित होने का एक बड़ा कारण अहिंसा है. अहिंसा को पवित्रता की सर्वोच्च कसौटी मानने से ही भारत में साहस, वीरता, शौर्य आदि गुण निकृष्ट हो गए. पवित्रता और आत्मसम्मान का महत्त्व कम हो गया. देशभक्ति, देश-प्रेम, कुटुम्बप्रेम और जातीय सम्मान सब समाप्त हो गए. अहिंसा का ऐसा विकृत या अनुचित उपयोग करने से या अन्य प्रत्येक वस्तु की उपेक्षा करके उसे अति महत्त्व देने से ही हिन्दुओं का सामाजिक, राजनैतिक और नैतिक अध:पतन हुआ.

इन बातों का गांधीजी द्वारा दिया गया जवाब 'मॉडर्न रिव्यू' के अक्तूबर 1916 अंक में छपा. उन्होंने लिखा कि लाला जी के प्रति समादर रखते हुए भी मुझे पहले तो उनकी इस बात का खण्डन करना चाहिए कि अहिंसा के सिद्धांत की अति के कारण ही भारत का अध:पतन हुआ.

महात्मा गांधी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि 'इस विश्वास का कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है कि हमारे पुरुषोचित गुण अहिंसा के अति आचार के कारण समाप्त हो गए. पिछले पंद्रह सौ वर्षों में एक राष्ट्र की तरह हमने अपनी शारीरिक वीरता के पर्याप्त प्रमाण दिये है? किंतु भीतरी मतभेदों ने हमें एक-दूसरे से दूर रखा और देश प्रेम की जगह हमारा स्वार्थ अधिक प्रबल रहा.' गांधीजी ने अहिंसा में सच्चाई और निर्भयता को अनिवार्य बताया. इन्होंने कहा है कि अहिंसा के पालन के लिए साहस की पराकाष्ठा की अपेक्षा है. लिहाजा, अहिंसा को कायरों का हथियार मानना गलत है.

1936 में महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की एक कविता छपी–राम की शक्तिपूजा. इस कविता में निराला ने लिखा है कि शक्ति अन्याय की तरफ है. इसलिए 'शक्ति की करो मौलिक कल्पना.' कहना न होगा कि अन्याय की तरफ हिंसा की शक्ति होती है. लिहाजा कवि ने इसके प्रतिपक्ष में शक्ति की मौलिक कल्पना करने का इसरार किया था. असल में शक्ति को हिंसा के पर्याय के तौर पर समझने की रवायत रही है. निराला जिसे मौलिक कल्पना करने को कह रहे हैं, वह अहिंसा की ताकत ही है. ऐसा लगता है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी ने अहिंसक शक्ति की कल्पना कर 'सत्याग्रह' के हथियार से संघर्ष किया था, निराला ने उसे ही वाणी दी है.

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शक्ति की मौलिक कल्पना कर अहिंसा को मजबूती, ताकत, साहस, निर्भयता का पर्याय साबित कर महात्मा गांधी ने मौजूद सभ्यता का विकल्प प्रस्तावित किया था. अपनी आत्मकथा में गांधी जी ने लिखा है कि चम्पारण की धरती पर अहिंसा देवी से साक्षात्कार किया. दक्षिण अफ्रीका में दो दशकों तक चले अहिंसक आंदोलन के बजाय चम्पारण की धरती के लिए यह कहने का गहरा निहितार्थ है.

(लेखक-- राजीव रंजन गिरि)

आलेख के विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

Last Updated : Oct 1, 2019, 1:05 PM IST

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