नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश पुलिस के आठ जवानों के हत्यारोपी व कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद फेक एनकाउंटर (फर्जी मुठभेड़) को लेकर एक बार फिर चर्चा निकल पड़ी है. चर्चा का केंद्र यह भी है कि जब कोई मुल्जिम सरेंडर करता है. लेकिन सरेंडर के बाद मुठभेड़ दिखाई जाती है तो लोगों के मन में एक संदेह उत्पन्न होता है और उसका सीधा असर क्रिमिनल जस्टिस पर पड़ता है. विशेष सरकारी वकील उज्जवल निकम भी मानते हैं फेक एनकाउंटर से इस बात का डर उत्पन्न होता है कि लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा.
सवाल : हाल ही में कानपुर के एक बड़े गैंगस्टर का यूपी पुलिस ने एनकाउंटर किया है. क्या इस तरह के एनकाउंटर का सीधा रिश्ता क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की नाकामी से जुड़ा हुआ है?
पुलिस और गुनहगारों की मुठभेड़ अक्सर होती है और उस मुठभेड़ में गुनहगार मारे भी जाते हैं. इसलिए एनकाउंटर कोई गैरकानूनी है, ऐसा मैं नहीं मानता. लेकिन जब कोई मुल्जिम सरेंडर करता है और सरेंडर के बाद अगर मुठभेड़ दिखाई जाती है तो लोगों के मन में एक संदेह उत्पन्न होता है. उसका सीधा असर क्रिमिनल जस्टिस पर पड़ता है. आज गुनहगारों को जल्द सजा नहीं होती और जो नामचीन गुंडे होते हैं, उनके खिलाफ लोगों में दहशत रहती है. इसी वजह से कोई उनके खिलाफ सबूत नहीं देना चाहता और ऐसे गुनहगार जब छूट जाते हैं तो लोग सोचते हैं कि कानून अंधा क्यों हो गया.
अगर किसी नामचीन गुंडे का एनकाउंटर होता है तो लोगों को अच्छा लगता है. अगर यह एनकाउंटर फेक होता है तो मुझे डर इस बात का है कि लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा, जो हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. इसलिए ज्युडिशियरी को भी आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. ऐसे संगीन अपराधियों के खिलाफ मामले कैसे जल्दी चलाए जाएं और लोगों के मन में कानून के प्रति श्रद्धा कैसे बढ़े. क्योंकि कानून नियम पर चलता है तो लोगों में कानून के प्रति श्रद्धा होनी ही चाहिए. इसलिए एनकाउंटर किस सिचुएशन में हुआ है, यह इस पर निर्भर होता है कि यह एनकाउंटर मनगढ़ंत है या वास्तविक.
सवाल : कानपुर के एनकाउंटर पर आप क्या कहेंगे?
देखिए, आज कोई निष्कर्ष निकालना गलत होगा. पुलिस का जो बयान था कि जब उसे उज्जैन से कानपुर ले जाया जा रहा था तो गाड़ी पलट गई और उसने पुलिस पर फायरिंग की. पुलिस ने सेल्फ डिफेंस में फायरिंग की. एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जो गुनहगार खुद सरेंडर करता है और पुलिस जब उसे हिरासत में लेती है तो वह जोर से कहता है कि मैं विकास दुबे हूं..कानपुर वाला. इसकी वजह ही यह होती है कि उसे पता था कि उसे मारा जा सकता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस ने सचमुच उसको मार दिया. इसकी भी पूरी जांच जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि जब ऐसे एनकाउंटर हों तो उसकी न्यायिक जांच जरूरी है. बतौर एक इंसान मैं भी मानता हूं कि वह मर गया, अच्छा हुआ. लेकिन जिन परिस्थितियों में मरा, उससे कानून का नुकसान हो रहा है.
सवाल : 2001 में इसी शख्स ने पुलिस थाने में घुसकर एक राज्यमंत्री को गोली मार दी थी. लेकिन अदालत में जब मामला गया तो सारे 30 पुलिस वाले गवाही से मुकर गए. ऐसे में न्याय प्रक्रिया पर से भरोसा लोगों का उठने लगता है. इस सिस्टम को कैसे ठीक किया जाए?
देखिए, सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है. जब ऐसे शातिर गुंडे के खिलाफ गवाह मुकर जाते हैं और सबूत छिपाए जाते हैं तो सरकार के पास भी रास्ते होते हैं. उस समय सरकार के पास टाडा और पोटा जैसे कानून थे, विकास को क्यों नहीं उन कानूनों के तहत गिरफ्त में लिया? विकास के सूबे की राजनीति से भी बहुत ताल्लुकात रहे, इसीलिए तो वह बदमाश हो गया और इस बदमाश को जो संरक्षण मिलता रहा, उसको कानूनी संरक्षण मिलता गया. जब पुलिस ने रेड की तो पुलिस ने ही उसे इत्तिला कर दिया. इसका मतलब है पुलिस में भी उसके लोग थे. थाने में मंत्री का कत्ल होना और कोई गवाह सामने न आना, ये हमारे सिस्टम का फेल्योर है. जो पुलिस वाले गवाही से मुकर गए, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई?
सवाल : कई बार ऐसा भी होता है कि पुलिसिया जांच इतनी कमजोर होती है कि अदालत में जाते ही केस गिर जाता है और अपराधी बाहर आ जाता है. इसे कैसे ठीक किया जाना चाहिए?
यह सही बात है. मैंने महाराष्ट्र में कई बार देखा है कि कई सीनियर पुलिस ऑफिसर क्राइम डिटेक्ट होने के बाद अपनी जिम्मेदारी खत्म मान लेते हैं. लेकिन तार्किक अंत क्या होता है. ट्रायल चलता है, सबूत मिलते हैं, नहीं मिलते.. जांच अधिकारी उन्हें अदालत के सामने रखते हैं, नहीं रखते. इन सबका बड़ा असर पड़ता है. इसीलिए गुनहगारों का हौसला बढ़ जाता है. एनकाउंटर से हमें खुशी होती है क्योंकि कानून जो काम नहीं करता, वह एनकाउंटर के जरिए पुलिस कर देती है. लेकिन जब मैं इस पर आत्मचिंतन करता हूं तो लगता है कि इससे लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा. कानून अंधा हो गया, कानून कुछ नहीं कर सकता. और ये जो क्रिमिनल्स हैं, उन पर बायोपिक फिल्में बनती हैं और लोग मजे से देखते हैं.