हैदराबाद : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), नई दिल्ली में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल के पूर्वी एशियाई अध्ययन केंद्र में चीनी अध्ययन की प्रोफेसर अलका आचार्य मौजूदा परिस्थितियों में चीनी सामान के बहिष्कार को समझदारी भरा निर्णय नहीं मानतीं. उनका कहना है कि दोनों देशों के बीच आर्थिक जुड़ाव इतना गहरा समाया हुआ है कि उनके लिए यह लगभग जरूरी सा हो गया है.
वर्ष 1993 से मास्टर्स और एम.फिल के छात्रों को चीनी विदेश नीति व राजनीतिक अर्थव्यवस्था पढ़ा रहीं प्रोफेसर अलका चीनी अध्ययन संस्थान (नई दिल्ली) की फेलो और पूर्वी एशियाई मामलों की पत्रिका चाइना रिपोर्ट की संपादक भी हैं. वह क्रॉसिंग ए ब्रिज ऑफ ड्रीम्स : इंडिया-चाइना, 2002 में प्रकाशित पुस्तक की संयुक्त संपादक हैं, जिन्होंने मुंबई से प्रकाशित इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में कई पुस्तकों और नियमित रूप से फीचर्स में योगदान दिया है.
भारत-चीन संबंधों और चीन की विदेश नीति के अन्य पहलुओं पर व्यापक रूप से लिख चुकीं प्रोफेसर अलका ने ईटीवी भारत से विशेष बातचीत की, जिनके मुख्य अंश प्रकार हैं :-
प्रश्न : क्या 15 जून की रात को गलवान घाटी में टकराव 45 वर्षों में सबसे बुरी स्थिति थी? झड़प का तात्कालिक कारण क्या था? उस रात वास्तव में क्या हुआ था?
गलवान घाटी में संघर्ष निस्संदेह पिछले 45 वर्षों में भारत और चीन के बीच सबसे खराब संघर्ष था. यह पहली बार था, जब दोनों देशों के सैनिकों के आमने-सामने आने से दोनों ही तरफ इतनी तबाही हुई. पिछले तीन दशकों से भारत और चीन, दोनों ने सीमा पर दावों का प्रबंधन करने के लिए समझौतों और प्रोटोकॉल के एक विस्तृत तंत्र का निर्माण किया और इस पर उचित गर्व भी किया. यह दुनिया की सबसे लंबी, विवादित, लेकिन शांतिपूर्ण सीमा थी. तीन दशकों में इन सीमाओं पर कोई गोली नहीं चलाई गई थी.
प्रश्न : प्रधानमंत्री कहते हैं कि चीन से कोई घुसपैठ नहीं है. बाद में उन्होंने स्पष्ट किया कि भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ करने का प्रयास किया गया. विपक्षी दलों ने मोदी के बयान और विवाद से निबटने के तरीके पर सवाल उठाए हैं. आपका क्या नजरिया है?
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पूर्वी लद्दाख में जो कुछ हो रहा था, उसके बारे में कोई आधिकारिक बयान मई की शुरुआत में जारी नहीं किया गया था जबकि उस दौरान कई क्षेत्रों में एक साथ सीमा पर झड़पें और हाथापाई हुई थीं. हालांकि, मई की शुरुआत से समाचार पत्रों और समाचार चैनलों में इस मामले पर जमकर बहस हो रही थी. इसके अलावा उपग्रहों से प्राप्त चित्रों के आधार पर ऐसे दृश्य दिख रहे थे, जो सरकार के दावों को झूठा साबित कर रहे थे. मेरे विचार में, यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण था - क्योंकि इसने न केवल भ्रम पैदा किया बल्कि रणनीतिक समुदाय के भीतर दरार पड़ गई.
प्रश्न : सोशल मीडिया में और प्राइम टाइम में टेलीविजन समाचार बुलेटिनों में चीनी सामानों के बहिष्कार के लिए जोर-शोर से प्रचार चल रहा है. क्या यह आर्थिक मोर्चे पर व्यावहारिक है? यदि हां, तो क्या यह भविष्य में चीन के साथ भारत की स्थिति को मजबूत करने या संघर्ष को कम करने के लिए उपयोगी होगा?
चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का आह्वान राष्ट्रवादी मंच पर नया नहीं हैं. जब भी भारत-चीन सीमा विवाद सामने आया है और विशेष रूप से 72 दिनों के डोकलाम गतिरोध के दौरान हमने ऐसे आह्वानों को देखा है. लेकिन चीन से व्यापार सामान्य रूप से चलता रहा. इस बार गलवान टकराव ने राष्ट्रवादी सोच को भावनात्मक रूप दे दिया है, जिससे प्रेरित होकर न केवल आम जनता बल्कि कुछ व्यापारिक संघ और राजनीतिक लोग भी इसका समर्थन कर रहे हैं. चीनी सामान के बहिष्कार और व्यापार प्रतिबंध के लिए मांगें उठ रही हैं.
कुछ राज्य सरकारों ने चीनी परियोजनाओं को 'होल्ड' पर भी रखा है. हुवेई की 5G नेटवर्क की बोली पर भी रोक लगाने की मांग उठ रही है. मैं यह कहना चाहूंगी कि जो लोग चीनी सामान के बहिष्कार की मांग कर रहे हैं, उन्होंने पूरा परिदृश्य नहीं समझा है. सवाल अब यह नहीं है कि हम चीन के बिना क्या कर सकते हैं और क्या नहीं. मुद्दा यह है कि यह आर्थिक जुड़ाव दोनों देशों के बीच इतना गहरा समाया हुआ है कि उनके लिए यह लगभग जरूरी सा हो गया है.
वस्तुतः चीन, भारत में एफडीआई का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ स्रोत है. इन रूढ़िवादी अनुमानों पर विश्वास किया जाए तो यह भारतीय विकास की कहानी को आधा दशक पीछे धकेल देगा. चीन विरोधी भावना में हमें इतना नहीं बह जाना चाहिए कि जिस सौदेबाजी की शक्ति से हम अपने संभावित लाभ के लिए दोहन कर सकते हैं, उससे वंचित हो जाएं.
प्रश्न : चीन ने पड़ोसी देशों - श्रीलंका और नेपाल में कई विकासात्मक पहल की है. क्या है चीन की रणनीति? हमारे पड़ोस के देशों के प्रति भारत का रवैया कैसा रहा है?
भारत के पड़ोस में चीन ने ढेरों आधारभूत संरचनाओं के विकास को बढ़ावा दिया है. खासकर उन देशों में, जिनसे भारत की आंतरिक सुरक्षा को खतरा हो सकता है और दुनिया के इस हिस्से में बड़े रणनीतिक बदलाव होने की भी संभावना है. इससे भारत अलर्ट मोड में है. बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह पर चीन का निर्माण भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की सीमा से लगा हुआ है.