भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती चरणों में राष्ट्रवादियों का प्रमुख काम बड़े पैमाने पर लोगों को शिक्षा के माध्यस से जागरूक करना था. औपनिवेशिक आधिपत्य का मुकाबला कैसे करें, इसके लिए लोगों को तैयार करना था. उनका मुख्य जोर राष्ट्रवादी विचारधारा का निर्माण करना था. इसके बाद ही राष्ट्रीय आंदोलन में बड़े पैमाने पर जनता जुड़ती चली गई.
इस कार्य को पूरा करने के लिए स्वदेशी प्रेस ने मुख्य भूमिका निभाई. इसने राष्ट्रवादी जनमत को उभारने, प्रशिक्षण देने, जुटाने और समेकित करने में बड़ा अहम रोल अदा किया. इस दौरान कई प्रतिष्ठित और निडर पत्रकारों के तहत शक्तिशाली समाचार पत्र उभरे. वास्तव में, उस समय भारत में शायद ही कोई प्रमुख राजनीतिक नेता मौजूद होगा, जिनके पास अपना अखबार नहीं था या वह किसी के लिए नहीं लिख रहे हों.
महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका के दिनों से ही पत्रकारिता और प्रेस-मीडिया से जुड़े थे. 1903 से शुरू होने वाले 45 वर्षों की अवधि में गांधी ने अपने कई पत्रकारीय प्रकाशनों में जो लिखा, उसकी मात्रा और गुणवत्ता को देखते हुए, कोई भी कह सकता है कि वास्तव में गांधी उच्च स्तर के पत्रकार थे. एक निडर और प्रतिबद्ध पत्रकार और संपादक के रूप में, गांधी ने अच्छी तरह से लिखा, और उन्होंने बहुत अच्छा लिखा.
1903 से 1914 तक और फिर 1919 से 1948 तक उन्होंने गुजराती, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित किए. 'इंडियन ओपिनियन' ने गांधी की अप्रेंटिसशिप को एक पत्रकार और मीडिया व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया था. बाद में उन्होंने कई अन्य पत्रिकाओं, यंग इंडिया, नवजीवन, हरिजन और इंडियन ओपिनियन को प्रकाशित किया. उनमें उनका उत्कृष्ठ कार्य दिखा.
इंडियन ओपिनियन, गांधीजी द्वारा जून 1903 में डरबन में शुरू किया गया था. उस समय गांधी जोहान्सबर्ग में वकालत कर रहे थे. फिर भी उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोड़ी. इससे उनका संबंध जारी रहा.
इंडियन ओपिनियन की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी श्वेत शासन की नस्लीय असहिष्णुता के खिलाफ स्थानीय भारतीयों की भावनाओं और भावनाओं को प्रभावी ढंग से करने के लिए दक्षिण अफ्रीका में बढ़ती मांग और जरूरत के मद्देनजर की गई थी. इसके अलावा, गांधी को पूरी तरह से एक संघर्ष के लिए तैयार होना था. वह मुख्य रूप से आंतरिक शक्ति को मजबूत करना चाहते थे. और इसके लिए अखबार की बहुत आवश्यकता थी. वो इसका महत्व समझते थे.
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गांधी को यह पूरी तरह से समझ में आ गया था कि एक समाचार पत्र की अनुपस्थिति में न तो गांधी और ना ही उनके राजनीतिक सहकर्मियों के लिए स्थानीय भारतीय समुदाय को प्रभावी ढंग से शिक्षित करना संभव होगा. वे यह समझ चुके थे कि अखबार के माध्यम से ही वह द. अफ्रीका में कर रहे कार्यों का संदेश अपने देशवासियों तक भेज सकते हैं.
इसलिए 34 वर्षीय मोहनदास करमचंद गांधी ने उस समय जोहान्सबर्ग में दो अन्य प्रमुख व्यक्तियों- की मदद से इंडियन ओपिनियन की शुरुआत की थी. इस कार्य में उन्हें मदनजीत व्यवाहरिक और मनसुखलाल हीरालाल की मदद मिली. मदनजीत बंबई में शिक्षक रह चुके थे. उनका अपना प्रेस इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस था. मनसुखलाल बंबई के मशहूर पत्रकार थे. वह गांधी को 1897 से ही जानते थे. चार जून 1903 को इंडियन ओपिनियन का पहला अंक प्रकाशित हुआ था. मुख्य रूप से यह चार भाषओं में प्रकाशित किया गया. अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल में.
इंडियन ओपिनियन में संपादकीय सामग्री मुख्य रूप से गांधी ही तय करते थे, जबकि अन्य चीजों का प्रबंधन नाजर और मदनजीत कर रहे थे. एम.एच. नाज़र ने कागज की सामग्री और नीति को रणनीतिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. संयुक्त परिणाम यह था कि इंडियन ओपिनियन, अपने पहले अंक में ही काफी लोकप्रिय रहा. खासकर स्थानीय भारतीय और नेटाल की अश्वेत आबादी के बीच. इसकी वजह थी कि इस अंक में गांधी ने रंगभेद नीति पर प्रहार किया था. उन्होंने इन समुदायों की आर्थिक दुर्दशा से संबंधित कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए थे.
गांधी ने बड़े पैमाने पर और गहनता से सामाजिक-राजनीतिक महत्व के सभी मुद्दों को कवर किया, क्योंकि दोनों यानि भारतीयों और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोग ऐसी स्थिति का सामना कर रहे थे.
मोहनदास करमचंद गांधी जिस प्रकार हर विषय पर बह बिल्कुल ही अलग और मौलिक राय रखते थे और वैसी ही जानकारी पत्रकारिता के बारे में भी रखते थे. गांधी की नजरों में पत्रकारिता एक बहुत ही महान पेशा था. उनकी राय में पत्रकारिता का समाज के प्रति तीन उद्देश्य है. यह उसे पूरा कर सकता है. पहला अभिव्यक्ति, दूसरा शिक्षा और जागरूकता और तीसरा औपनिवेशिक सत्ता की बुराइयों को उजागर करने में.
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गांधी मानते थे कि जनता की दुर्दशा, स्थिति और परिस्थितियों की भावनाओं को जानने के लिए अभिव्यक्ति बहुत जरूरी है. वह यह मानते थे कि सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं और दृष्टिकोणों के बीच लोगों को शिक्षा के जरिए ही जागृत किया जा सकता है. शायद यही वजह थी कि गांधी ने पत्रकारिता के मूल्यों को कायम रखने के लिए अपने अखबार में विज्ञापन को जगह नहीं दी. वह केवल पाठकों से सदस्यता पर निर्भर रहे.
इंडियन ओपिनियन का महत्व इसके आकार में नहीं, बल्कि इसकी सामग्री में निहित है. अपने पूरे 58 साल के अस्तित्व काल में इनके ग्राहकों की संख्या औसतन 2000 के आसपास ही रही. किसी भी एक वर्ष में सबसे अधिक संख्या 3500 थी. यह कम से कम आंशिक रूप से, डरबन-नेटाल में स्थानीय भारतीय आबादी के आकार के संदर्भ में समझाया जा सकता है. इंडियन ओपिनियन भी नेटाल का पहला भारतीय अखबार नहीं था. 1898 में एक अल्पकालिक साप्ताहिक समाचार पत्र इंडियन वर्ल्ड ने इसकी शुरुआत की थी. और मई 1901 में, एक तमिल पत्रकार पी एस अय्यर ने एक तमिल-अंग्रेजी साप्ताहिक औपनिवेशिक भारतीय समाचार शुरू किया था, जो 1903 तक ही जीवित रह सका.
नताल में अफ्रीकी भी कुछ समय से समाचार पत्र प्रकाशित कर रहे थे. लेकिन इंडियन ओपिनियन उस समय के किसी भी अन्य स्थानीय समाचार पत्र की तुलना में सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से कहीं अधिक महत्वपूर्ण साबित हुआ. दरअसल, यह उस समय लॉन्च किया गया था, जिस समय अफ्रीकी बिल्कुल निराश हो चुके थे. द. अफ्रीकी युद्ध के ठीक बाद. वे लोग अपनी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाना चाहते थे. दूसरी ओर गांधी बिल्कुल प्रतिबद्ध थे. समर्पित थे. अंग्रेज शासक एक ऐसा अफ्रीका बनाना चाहते थे, जहां अश्वेतों के पास सीमित अधिकार हों.
इंडियन ओपिनियन ने राज्य और आधिकारिक तौर पर बहुत उदारवादी और संयमी रवैया अपनाकर अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की. इसने 'ब्रिटिश न्याय में अटूट विश्वास', और 'संवैधानिक साधनों को कम करने और भारतीयों के लिए निवारण की कोशिश' के लिए अपनी प्रतिबद्धता की गहराई से घोषणा की. यह याद रखने की जरूरत है कि यह वह दौर था जब गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य अनिवार्य रूप से और स्वाभाविक रूप से अच्छा है, और न्याय, निष्पक्षता, नस्लीय समानता और स्वतंत्रता के मूल्य पर आधारित है. और जो भी, और जहां भी, जहां भी कमियां थीं, वे औपनिवेशिक प्रशासन के कारण थी. उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद.
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गांधी, उस समय, 1857 में रानी विक्टोरिया द्वारा दिए गए वादे पर पूरा भरोसा करते थे. '1857 के महान विद्रोह' के बाद, गांधी को भरोसा था कि स्थानीय भारतीय समुदाय और द. अफ्रीका के अश्वेतों को न्याय मिलेगा, अगर इसके लिए संवैधानिक तरीके से मांग की जाए तो. उन दिनों के लिए, यदि कोई भी समाचार पत्र, विज्ञापन या अन्यथा, रंगभेदवादी नटाल सरकार को एक औपनिवेशिक लेख के जरिए नाराज करता है, तो उनके सामने सिर्फ एक ही विकल्प था, वह था अखबार बंद करने का.
इसलिए गांधी सीधे तौर पर श्वेत अधिकारियों को नाराज करना नहीं चाहते थे. बल्कि वह चाहते थे कि उनके संपर्क के जरिए स्थानीय भारतीयों की स्थिति में बेहतरी हो. लिहाजा गांधी और उनके सहकर्मी इसके प्रति सावधान थे. प्राथमिक चिंता यह थी कि अन्याय के खिलाफ भारतीयों की सुरक्षा.
भारतीयों के संदर्भ में इंडियन ओपिनियन का ऐतिहासिक महत्व है. यह इस तथ्य में निहित है कि इसमें दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीयों के सामने चुनौतियों का एक मूल्यवान ऐतिहासिक रिकॉर्ड प्रदान करता है. यह भारतीय समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन का अमूल्य रिकॉर्ड भी प्रदान करता है.