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कांग्रेस के सर्वाइवर प्रणब दा : राजीव गांधी से रिश्तों की दास्तां

जब तक राजीव गांधी सत्ता में रहे प्रणब मुखर्जी राजनीतिक वनवास में ही रहे. राजीव गांधी की हत्या के बाद पीवी नरसिंह राव को प्रधानमंत्री बनाया गया, राव प्रणब मुखर्जी से सलाह-मशविरा तो करते रहे, लेकिन उन्हें कैबिनेट में जगह नहीं दी गई. लेकिन प्रणब दा हमेशा से ही कांग्रेस के 'संकटमोचक' रहे. पढ़े पूरी खबर...

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Published : Aug 31, 2020, 5:52 PM IST

Updated : Aug 31, 2020, 6:45 PM IST

हैदराबाद : पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कहा करती थीं कि रहस्य को बरकरार रखने में प्रणबदा बहुत अच्छे हैं. जब भी प्रणब दा को कोई गोपनीय जानकारी दी जाती है तो वह कभी भी उनके पेट से बाहर नहीं आता है. अगर कुछ बाहर भी आता है तो वह है उनके पाइप से निकलने वाला धुआं.

इंदिरा सरकार में थी नंबर दो की हैसियत
'इंदिरा गांधी की कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी नंबर दो की हैसियत में थे. वेंकटरमण और नरसिंह राव जैसे लोगों के कैबिनेट में होने के बावजूद जब कभी भी इंदिरा बाहर होती थीं तो कैबिनेट बैठक की अध्यक्षता प्रणब दा ही करते थे. राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस से बाहर जाना पड़ा, लेकिन राजीव गांधी के समय में ही उनकी पार्टी में वापसी हो गई थी.'

राजीव गांधी के साथ झगड़ा और तनातनी
अगर प्रणब दा का एक शब्द में वर्णन करना हो तो वह है, उत्तरजीवी (The survivor). राजनीति में उनका अस्तित्व कौशल वास्तव में उल्लेखनीय है. 1984 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद प्रणब दा को मंत्रिमंडल से और कांग्रेस कार्य समिति से हटा दिया गया था.

1986 में प्रणबदा को अपनी पार्टी, राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस को लॉन्च करने के कारण कांग्रेस पार्टी से ही निष्कासित कर दिया गया था.

दो साल के भीतर, प्रणब दा राजीव गांधी के पक्ष में वापस आ गए और कांग्रेस में अपनी पार्टी का विलय कर दिया.

कांग्रेस के 'संकटमोचक' का वर्चस्व फिर लौटा
अप्रैल 1986 में कांग्रेस छोड़ने के बाद प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाई थी. प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस का संकटमोचक माना जाता था. एक स्थिति ऐसी आई कि कांग्रेस में गंभीर चिंतन लगभग रुक गया. जनाधार वाले नेताओं की कमी हो गई.

नरसिंह राव का कद बढ़ा तो प्रणब मुखर्जी भी मजबूत हुए. बीच में न तो मास फॉलोइंग हुई न ही उस स्तर के नेता आगे आए. प्रणब मुखर्जी का कांग्रेस में वर्चस्व एक बार फिर वापस आया. प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस में जो स्थान मिला उसमें वह शीर्ष पर तो नहीं थे, लेकिन शीर्ष से कम पर भी नहीं थे.

जब अन्ना हजारे ने आंदोलन शुरू किया था तो उन्हीं को बातचीत के लिए लगाया गया था.

संसदीय प्रक्रियाओं में महारत
अंग्रेजी भाषा पर उनकी उत्कृष्ट कमान, बेहतर कौशल प्रबंधन, रेजर-शार्प मेमोरी, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मामलों का विशाल ज्ञान और संसदीय प्रक्रियाओं की महारत ने उन्हें मंत्रिमंडल और पार्टी में अपरिहार्य बना दिया.

जब भी कोई जटिल और विवादास्पद मुद्दा मंत्रिमंडल में उठा, उसे हल करने के लिए उन्हें ही बुलाया गया. उनसे विभिन्न एआईसीसी प्रस्तावों का मसौदा तैयार करने और विभिन्न पार्टी समितियों की अध्यक्षता करने के लिए कहा गया.

मनमोहन सिंह सरकार में काम करना
डॉ. मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में प्रणब दा नंबर दो थे. वह 95 से अधिक GoMs और EGoMs (मंत्रियों के अधिकार प्राप्त समूह) के अध्यक्ष रहे. वे एनरॉन, स्पेक्ट्रम, डब्ल्यूटीओ, भोपाल आपदा और विनिवेश से निपटने वाले ऐसे कई समूहों के सदस्य थे.

प्रणब दा ने तीन प्रधानमंत्रियों- इंदिरा गांधी, नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह के अधीन काम किया. वह एकमात्र ऐसे वित्त मंत्री हैं, जिन्होंने 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद लाइसेंस-परमिट राज व्यवस्था में 1991 के सुधारों से पहले बजट पेश किया था.

कुछ प्रमुख योगदान
प्रणब दा ने 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद साहसिक निर्णय लिया, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया. 1993 में वाणिज्य मंत्री के रूप में, प्रणब दा के कारण ही व्यापार उदारीकरण हुआ. बौद्धिक संपदा अधिकारों के शासन में डर था कि दवा की कीमतें बढ़ेंगी. प्रणब दा की कुशल वार्ता ने न केवल ऐसा होने से रोका, बल्कि विश्व व्यापार संगठन में भारत के प्रवेश पर भी ध्यान दिया.

परमाणु समझौते में निभाई थी अहम भूमिका
2005-08 में भारत-अमेरिका परमाणु समझौता मनमोहन सरकार की एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी. दोनों देश भारत को भेदभावपूर्ण परमाणु विश्व व्यवस्था से बाहर निकालना चाहते थे. वामपंथी दलों ने सत्ता में यूपीए सरकार का समर्थन किया पर वामपंथी भारत-अमेरिका के हाथ मिलाने के खिलाफ थे, इसलिए यूपीए और लेफ्ट पार्टियों के बीच एक समन्वय समिति का गठन प्रणब दा की अध्यक्षता में किया गया था और वे खुद इसके संयोजक के रूप में थे. प्रणब दा के कुशल नेतृत्व और अपने नेताओं के साथ उनके व्यक्तिगत समीकरण की बदौलत समिति वाम दलों की सहमति प्राप्त करने में सफल रही.

2010 में जब सिविल न्यूक्लियर लायबिलिटी बिल पर विपक्षी नेताओं के साथ चर्चा करने की आवश्यकता थी तो उनके प्रयासों के कारण विधेयक को सर्वसम्मति से संसद द्वारा पारित किया गया था.

Last Updated : Aug 31, 2020, 6:45 PM IST

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