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हम शर्मिंदा हैं वशिष्ठ बाबू : एक एंबुलेंस तक मुहैया नहीं और मनाएंगे राजकीय शोक - mathematician

पीएमसीएच प्रशासन का कठोर चेहरा देखने को मिला है. वशिष्ठ नारायण सिंह के पार्थिव शरीर के लिए बिना कोई व्यवस्था किए पीएमसीएच ने बाहर का रास्ता दिखा दिया. इससे बड़ी कुव्यवस्था क्या हो सकती है?

वशिष्ठ बाबू

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Published : Nov 14, 2019, 9:37 PM IST

पटना: महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का पीएमसीएच में निधन हो गया. वशिष्ठ नारायण सिंह की पूरा जीवन गुमनामी और अंधेरे में ही बीत गया. उनके निधन के बाद बहुत भी मार्मिक तस्वीर सामने आई है. इतने बड़े शख्सियत के निधन के बाद पीएमसीएच प्रशासन ने बिना किसी व्यवस्था के अस्पताल परिसर में वैसे ही छोड़ दिया.

गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह काफी लंबे समय से बीमार चल रहे थे. हालत बिगड़ने पर उनके परिजनों ने पीएमसीएच में भर्ती कराया था. वहां उनका ब्रेन डेड होने से निधन हो गया. उसके बाद पीएमसीएच प्रशासन का कठोर चेहरा देखने को मिला. उनके पार्थिव शरीर को बिना किसी व्यवस्था के बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. परिजन परिसर में काफी देर तक लाचार खड़े रहे. इससे बड़ी कुव्यवस्था क्या हो सकती है?

वशिष्ठ नारायण सिंह

पीएमसीएच ने झाड़ा पल्ला
जिस शख्सियत की प्रतिभा को देश क्या पूरी दुनिया के लोग जानते हैं. उनकी निधन पर ऐसी तस्वीर देखने को मिलेगी. ऐसा कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा. एक तरफ उनके परिजनों के आंख से आंसुओं की धारा नहीं थम रही. तो दूसरी तरफ पीएमसीएच की व्यवस्था ने उन्हें और दर्द दे दिया. पीएमसीएच प्रशासन ने उनके परिजनों को सिर्फ डेड सर्टिफिकेट सौंपकर अपना पल्ला झाड़ लिया.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

एंबुलेंस तक नहीं मिली
आलम यह था कि वहां एंबुलेंस तक की व्यवस्था नहीं की गई. जिससे वशिष्ठ नारायण सिंह के परिजन पार्थिव शरीर को सम्मान के साथ घर तक ले जा सकें. वहीं, इस संवेदनहीन हालात पर उनके परिजनों का कहना है कि सरकार से उन्हें कोई भरोसा ही नहीं है. किसी भी अधिकारी ने अभी तक सुध लेने की कोशिश तक नहीं की.

वशिष्ठ नारायण सिंह

गुमनामी में बीत गया जीवन
बता दें कि गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह के जीवन का आधा से ज्यादा हिस्सा गुमनामी में ही गुजर गया. वो 1972 में नासा से हमेशा के लिए भारत आ गए और आईआईटी कानपुर के लेक्चरर बने. 5 वर्षों के बाद वो अचानक सीजोफ्रेनिया नामक मानसिक बीमारी से ग्रसित हो गए. इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया. लेकिन बेहतर इलाज नहीं होने के कारण वहां से भाग गए. 1992 में उन्हें सीवान में एक पेड़ के नीचे बैठे देखा गया. वहीं, सरकार से भी जो उन्हें मदद और सम्मान मिलनी चाहिए थी, वो कभी नसीब नहीं हो सका.

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