हाल ही में हुए बोडो समझौते से असम के बोडो समाज में आशा की नई किरण जगी है. गौरतलब है कि ये सरकार और बोडो नेतृत्व के बीच तीसरा ऐसा समझौता है. बोडो जाति असम के मैदानी इलाकों का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है और ये लोग 1968 से ही, प्लेन्स ट्राइबल काउंसिल ऑफ असम के तले अलग बोडोलैंड के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 1973 में इस मांग को बदलकर, ब्रह्मपुत्र के पूर्वी क्षेत्र के बोडो बाहुल्य इलाकों को मिलाकर एक केंद्रशासित प्रदेश बनाने पर केंद्रित कर दिया गया और इसका नाम भी 'द्याचल' तय किया गया. लेकिन इस मुहिम ने धीरे-धीरे दम तोड़ दिया और 1980 के दशक में इसके चलते ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) का जन्म हुआ.
शुरुआत में एबीएसयू के नेताओं ने अपनी मांगों के समाधान के लिए 1985 में सत्ता में आई असम गण परिषद ने सरकार से बातचीत का रास्ता खोला. लेकिन तत्कालीन सरकार के उदासीन रवैये के चलते एबीएसयू ने 1987 में असम को दो बराबर हिस्सों में बांटकर केंद्रशासित प्रदेश के दर्जे वाले अलग राज्य की मांग का दामन थाम लिया. 1988 में इस मांग को भी, बोडोलैंड के नाम से अलग पूर्ण राज्य की मांग में बदल दिया गया. एबीएसयू के करिश्माई नेता, उपेन बरुआ के नेतृत्व में, बोडो समुदाय से इस मुहिम को बहुत समर्थन मिला. इस दौरान बोडो बाहुल्य इलाकों में हिंसक प्रदर्शन और सरकार द्वारा बल प्रयोग से इसे कुचलने की कई घटनाऐं भी सामने आईं.
लेकिन, बरुआ के आकस्मिक निधन के कारण, मुहिम की पकड़ कमज़ोर होती गई और धीरे धीरे इसकी कमान बोडो सुरक्षा बल (बीएसएफ) नाम के एक आतंकी संगठन के हाथों में आ गई. इस संगठन का नाम बाद में बदल कर नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) कर दिया गया और इस संगठन ने अलग बोडो देश की मांग की. इन घटनाओं के कारण एबीएसयू ने भारत सरकार और असम सरकार के साथ 1993 में एक समझौता कर लिया. इस समझौते के तहत, अलग राज्य की जगह, ब्रह्मपुत्र के पूर्वी हिस्से के बोडो बाहुल्य इलाके में बोडो स्वायत्त काउंसिल (बीएसी) का गठन किया गया और इसका मुख्यालय कोकराझार में बनाया गया. इस काउंसिल में 50 फीसद से ज्यादा बोडो आबादी वाले गांवों को शामिल किया जाना था. भूगौलिक सहूलियत के लिए उन गांवों को भी इसमें शामिल किया गया, जहां बोडो आबादी कम या न के बराबर थी. इस कारण, गैर बोडो समुदाय में भारी रोष पैदा हो गया और अब तक यह एक ज्वलंत मुद्दा है.
हालाँकि जल्द ही बीएसी के बीच मतभेद बढ़ने लगे. वहीं, इस दौरान, एनडीएफबी ने बोडो समुदाय में अपनी पकड़ को मज़बूत किया और आंदोलन के मुख्य किरदार से एबीएसयू को साइड लाइन कर दिया. इस समय, बोडो लिबरेशन टाइगर्स नाम का एक और दल अस्तित्व में आ गया. कई जानकारों का यह मानना है कि, एनडीएफबी को काबू में करने के लिए बीएलटी को सरकारी संस्थाओं ने संसाधनों की मदद की थी. दिलचस्प यह था कि, एनडीएफबी की अलग बोडोलैंड की मांग के विपरीत, बीएलटी की मांग थी भारत के अंदर ही अलग बोडो राज्य बने. 1990 के मध्य का समय बोडो आंदोलन की कमान के लिए बीएलटी और एनडीएफबी के बीच संघर्ष का गवाह बना। इस सब में बीएलटी के काम करने का तरीक़ा ज़्यादा क्रूर था, और वह सार्वजनिक बाज़ारों, ट्रेन आदि में धमाके कर लोगों की हत्या करने में यक़ीन रखते थे.
बीएलटी 1999 में भारत सरकार के साथ शांति के लिए तैयार हुआ और ज़्यादा इलाक़ों, गांवों, शहरों और प्रशासनिक अधिकारों वाले बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) पर रज़ामंद हो गया. इसी क्रम में बीएलटी ने 2003 में भारत और असम सरकार के साथ एक करार पर दस्तख़त किये. दिसंबर 2003 में, बीएलटी के नेता, हगरामा मोहीलरे को बीटीसी के मुख्य कार्यकारी सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया. इस समझौते के तहत, असम के मौजूदा सात जिलों को अलग कर, कोकराझार, उदालगुरी, बास्का और चिरांग जिलों का निर्माण किया गया. इन जिलों में आने वाले कुल 3,082 गांवों को बीटीसी के अधिकार क्षेत्र में लाया गया. बीटीसे के अधिकार क्षेत्र मे आने वाले इलाके को बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट (बीटूएडी) कहा जाने लगा. ग़ौरतलब है कि, बीटीसी के गठन के लिए भारतीय संविधान के छठे शड्यूल में बदलाव लाना पड़ा और यह पहला मौका था जब भारत ने किसी मैदानी आदिवासी समुदाय को स्वायत्ता प्रदान की थी.