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Published : Feb 7, 2020, 8:51 AM IST

Updated : Feb 29, 2020, 12:05 PM IST

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विशेष लेख : नए बोडो समझौते से क्या लंबे समय से चली आ रही समस्या का होगा समाधान ?

हाल ही में हुए बोडो समझौते से असम के बोडो समाज में आशा की नई किरण जगी है. गौरतलब है कि ये सरकार और बोडो नेतृत्व के बीच तीसरा ऐसा समझौता है. बोडो जाति असम के मैदानी इलाकों का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है और ये लोग 1968 से ही प्लेन्स ट्राइबल काउंसिल ऑफ असम के तले अलग बोडोलैंड के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

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सांकेतिक चित्र

हाल ही में हुए बोडो समझौते से असम के बोडो समाज में आशा की नई किरण जगी है. गौरतलब है कि ये सरकार और बोडो नेतृत्व के बीच तीसरा ऐसा समझौता है. बोडो जाति असम के मैदानी इलाकों का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है और ये लोग 1968 से ही, प्लेन्स ट्राइबल काउंसिल ऑफ असम के तले अलग बोडोलैंड के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 1973 में इस मांग को बदलकर, ब्रह्मपुत्र के पूर्वी क्षेत्र के बोडो बाहुल्य इलाकों को मिलाकर एक केंद्रशासित प्रदेश बनाने पर केंद्रित कर दिया गया और इसका नाम भी 'द्याचल' तय किया गया. लेकिन इस मुहिम ने धीरे-धीरे दम तोड़ दिया और 1980 के दशक में इसके चलते ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (एबीएसयू) का जन्म हुआ.

शुरुआत में एबीएसयू के नेताओं ने अपनी मांगों के समाधान के लिए 1985 में सत्ता में आई असम गण परिषद ने सरकार से बातचीत का रास्ता खोला. लेकिन तत्कालीन सरकार के उदासीन रवैये के चलते एबीएसयू ने 1987 में असम को दो बराबर हिस्सों में बांटकर केंद्रशासित प्रदेश के दर्जे वाले अलग राज्य की मांग का दामन थाम लिया. 1988 में इस मांग को भी, बोडोलैंड के नाम से अलग पूर्ण राज्य की मांग में बदल दिया गया. एबीएसयू के करिश्माई नेता, उपेन बरुआ के नेतृत्व में, बोडो समुदाय से इस मुहिम को बहुत समर्थन मिला. इस दौरान बोडो बाहुल्य इलाकों में हिंसक प्रदर्शन और सरकार द्वारा बल प्रयोग से इसे कुचलने की कई घटनाऐं भी सामने आईं.

लेकिन, बरुआ के आकस्मिक निधन के कारण, मुहिम की पकड़ कमज़ोर होती गई और धीरे धीरे इसकी कमान बोडो सुरक्षा बल (बीएसएफ) नाम के एक आतंकी संगठन के हाथों में आ गई. इस संगठन का नाम बाद में बदल कर नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) कर दिया गया और इस संगठन ने अलग बोडो देश की मांग की. इन घटनाओं के कारण एबीएसयू ने भारत सरकार और असम सरकार के साथ 1993 में एक समझौता कर लिया. इस समझौते के तहत, अलग राज्य की जगह, ब्रह्मपुत्र के पूर्वी हिस्से के बोडो बाहुल्य इलाके में बोडो स्वायत्त काउंसिल (बीएसी) का गठन किया गया और इसका मुख्यालय कोकराझार में बनाया गया. इस काउंसिल में 50 फीसद से ज्यादा बोडो आबादी वाले गांवों को शामिल किया जाना था. भूगौलिक सहूलियत के लिए उन गांवों को भी इसमें शामिल किया गया, जहां बोडो आबादी कम या न के बराबर थी. इस कारण, गैर बोडो समुदाय में भारी रोष पैदा हो गया और अब तक यह एक ज्वलंत मुद्दा है.

हालाँकि जल्द ही बीएसी के बीच मतभेद बढ़ने लगे. वहीं, इस दौरान, एनडीएफबी ने बोडो समुदाय में अपनी पकड़ को मज़बूत किया और आंदोलन के मुख्य किरदार से एबीएसयू को साइड लाइन कर दिया. इस समय, बोडो लिबरेशन टाइगर्स नाम का एक और दल अस्तित्व में आ गया. कई जानकारों का यह मानना है कि, एनडीएफबी को काबू में करने के लिए बीएलटी को सरकारी संस्थाओं ने संसाधनों की मदद की थी. दिलचस्प यह था कि, एनडीएफबी की अलग बोडोलैंड की मांग के विपरीत, बीएलटी की मांग थी भारत के अंदर ही अलग बोडो राज्य बने. 1990 के मध्य का समय बोडो आंदोलन की कमान के लिए बीएलटी और एनडीएफबी के बीच संघर्ष का गवाह बना। इस सब में बीएलटी के काम करने का तरीक़ा ज़्यादा क्रूर था, और वह सार्वजनिक बाज़ारों, ट्रेन आदि में धमाके कर लोगों की हत्या करने में यक़ीन रखते थे.

बीएलटी 1999 में भारत सरकार के साथ शांति के लिए तैयार हुआ और ज़्यादा इलाक़ों, गांवों, शहरों और प्रशासनिक अधिकारों वाले बोडो टेरिटोरियल काउंसिल (बीटीसी) पर रज़ामंद हो गया. इसी क्रम में बीएलटी ने 2003 में भारत और असम सरकार के साथ एक करार पर दस्तख़त किये. दिसंबर 2003 में, बीएलटी के नेता, हगरामा मोहीलरे को बीटीसी के मुख्य कार्यकारी सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया. इस समझौते के तहत, असम के मौजूदा सात जिलों को अलग कर, कोकराझार, उदालगुरी, बास्का और चिरांग जिलों का निर्माण किया गया. इन जिलों में आने वाले कुल 3,082 गांवों को बीटीसी के अधिकार क्षेत्र में लाया गया. बीटीसे के अधिकार क्षेत्र मे आने वाले इलाके को बोडोलैंड टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट (बीटूएडी) कहा जाने लगा. ग़ौरतलब है कि, बीटीसी के गठन के लिए भारतीय संविधान के छठे शड्यूल में बदलाव लाना पड़ा और यह पहला मौका था जब भारत ने किसी मैदानी आदिवासी समुदाय को स्वायत्ता प्रदान की थी.

उम्मीद के अनुसार, एनडीएफबी ने इस समझौते को नकार दिया और अलग बोडोलैंड की अपनी लड़ाई जारी रखी. वहीं, बीटीसी के अंतर्गत आने वाले पूर्वी-पश्चिमी असम में ग़ैर बोडो समुदाय ने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिये. इस विरोध का नेतृत्व कोच-राजबंशी और आदिवासी समुदाय कर रहा था. उनका कहना था कि बीटीसी की स्थापना गैर बोडो समुदाय के लोगों के साथ अन्याय है. जल्द ही इन लोगों के साथ ईस्ट बंगाल मूल के मुसलमान भी शामिल हो गये. इन लोगों की बीटीसी के इलाके में अच्छी तादाद थी. बीटीसी के इलाक़ों में ग़ैर बोडो लोग, आबादी का तीन चौथाई हैं. गैर बोडो समुदाय बीटसी में आने से अपने आर्थिक और राजनीतिक हकों के खत्म होने को लेकर काफी उग्र रहे हैं और गैर बोडो आबादी का मंच बना अपने हक़ों के लिए लड़ते आ रहे हैं. 2014 और 2019 के आम चुनावों में इनके साझा उम्मीदवार ने बीटीसी का गढ़ कहे जाने वाले कोकराझार से जीत दर्ज की. इस समस्या की जटिलता इस बात से भी समझी जाती है कि, कोच-राजबंशी संस्थान ने बीटीसी के काटकर कामतापुर राज्य बनाने की माँग रखी है.

इस परिदृश्य में जहां एक तरफ इस समझौते ने लंबे समय से चले आ रहे बोडोलैंड आंदोलन के सुलझने की उम्मीद जगाई है, वहीं, इससे पैदा होने वाली नई पेचीदगियों से भी सावधान रहने की ज़रूरत है. इस समझौते की खास बात है कि, पिछले हुए समझौतों से उलट, इस समझौते पर हस्ताक्षर करे वालों में बोडोलैंड आंदोलन में शामिल अलग अलग संस्थाएं शामिल हैं. अलग बोडोलैंड के अपनी मांग को छोड़, इस समझौते में तय बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन के लिए इन सभी संगठनों ने अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है. इसे एक बड़ी जीत माना जा रहा क्योंकि अब असम के और टुकड़े होने की संभावनाऐं खत्म हो जाती है. इसके साथ ही, इस समझौते में बीटीसी के क्षेत्र में बदलाव की बात भी कही गई है.इसके लिए बीटीआर के बोडो बहु्लय गांवों को शामिल किया जायेगा और गैर बोडो गांवों को इससे अलग रखा जायेगा. इस मसले के अध्ययन के लिए इस समझौते में, गुवाहाटी हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज, असम सरकार, बीटीसी और एबीएसयू के नुमाइंदों वाले एक कमीशन के गठन के बारे में भी कहा गया है. समझौते में बीटीआर के दायरे से बाहर रहने वाले बोडो समुदाय के लोगों के विकास के लिए एक विकास काउंसिल बनाने का भी प्रावधान है. एक अहम बात यह है कि, कार्बी, आंगलोंग और दीमा हासों जिलों में रहने वाले बोडो समुदाय के लोगों को शड्यूल ट्राइब (हिल) का दर्जा दिया जायेगा. इसके अलावा इस समझौते में एक पैकेज के जरिए मौजूदा बीटीएडी क्षेत्र में केंद्र पोषित शिक्षण और अन्य संस्थानों के निर्माण का प्रावधान है.

वहीं, कई बोडो नेताओं के बीच सार्वजनिक बयानबाजी दिखने लगी है. इस समझौते के लिए श्रेय लेने की भी होड़ मच गई है. इस समझौते के लिए सबसे ज्यादा विरोध बीटीसी क्षेत्र के गैर बोडो समुदाय के लोग से आने की उम्मीद है. इस क्षेत्र के गैर बोडो समुदाय की आवाज, कोकराझार के सांसद, नाबा कुमार सारनिया ने इस समझौते के 'इंक्लूशन और एक्सक्लूशन' के बिंदु को पहले ही खारिज कर दिया है. उनका कहना है कि इस समझौते में केवल उन गेर बोडो गांवों को बाहर करने के बारे में कहा गया है जो गैर छटे शड्यूल जिलों के लिए परेशानी हैं. इस कारण से कुछ ही गांव बीटीआर के अधिकार क्षेत्र से बाहर आ सकेंगे, और करीब एक हजार गांव बीटीआर के अधिकार क्षेत्र में ही रह जायेंगे. उन्होंने इस समझौते को एकतरफा और बीटीसी में आने वाली ज्यादातर आबादी को अंधेरे में रखने वाला करार दिया है. गाँवों को शामिल करने और बाहर रखने के लिए बनने वाले कमीशन में गैर बोडो संगठनों के नुमाइंदों को जगह न मिलने की भी आलोचना हो रही है. कार्बी छात्र समुदाय ने पहले ही बोडो समुदाय को शड्यूल ट्राइब (हिल) का दर्जा दिये जाने का विरोध कर दिया है.

असम के लोग राज्य के पूर्ण और उमदा विकास के लिए लंबे समय से चली आ रही बोडोलैंड समस्या का स्थाई समाधान चाहते हैं. इस नये समझौते से इस दिशा में कदम बढ़ने की उम्मीद तो जगी है, लेकिन, इससे कुछ दरारें भी सामने आई है. ये कहना गलत नहीं होगा कि इस समझौता का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि इन दरारों को कितनी जल्दी और सही तरह से खत्म किया जाता है.

- चंदन कुमार शर्मा

Last Updated : Feb 29, 2020, 12:05 PM IST

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