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जब गांधी ने कहा था, 'मैं दलित के घर बतौर लड़की पैदा होना चाहता हूं'

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 16वीं कड़ी.

महात्मा गांधी

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Published : Aug 31, 2019, 7:01 AM IST

Updated : Sep 28, 2019, 10:51 PM IST

दलितों के साथ हो रहे अन्याय, आक्रोश और शोषण से गांधीजी इतने अधिक दुखी थे, कि उन्होंने अगले जन्म में दलितों के घर जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की. वो भी एक लड़की के रूप में, ताकि वे उस दर्द को मसहूस कर सकें, जिसे हिंदुओं ने दलित समदुाय का दर्जा दिया हुआ है. अगर गांधी की यह इच्छा पूरी हो जाती, तो आज वे अपने गृह राज्य गुजरात में दलितों की स्थिति देखकर क्या सोचते.

पिछले 23 वर्षों में गुजरात में उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा दलित समुदाय के 524 लोगों की हत्या कर दी गई है. इसी अवधि में 1,133 दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और 2100 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं. इस अवधि के दौरान दलितों के खिलाफ गंभीर अपराधों के 38,600 मामले दर्ज किए गए हैं.

लड़की के रूप में हरिजन परिवार में गांधी की जन्म लेने की इच्छा समझ में आती है. उन्होंने बचपन से और अपने पूरे जीवन में अस्पृश्यता के संकट का विरोध किया. अस्पृश्यता ने हिंदू समाज को त्रस्त कर दिया था. उन्होंने अपनी मां की उस चेतावनी को भी दरकिनार कर दिया, जिसमें उन्होंने गांधी को मेहतर से दूर रहने को कहा था. जबकि उस समय वैष्णव समुदाय के लोग कड़ाई से छुआछूत का पालन करते थे.

गांधीजी ने अस्पृश्यता को हिंदू धर्म पर सबसे बड़ा कलंक माना था. उन्होंने कहा कि वेद और पुराण में भी ऐसी प्रथा की कोई चर्चा नहीं है. उन्होंने पंडितों को चुनौती दी कि यदि ऐसा उदाहरण आप हमें वहां से बता सकते हैं, तो इन ग्रंथों को मानना छोड़ देंगे.

महात्मा का मानना ​​था कि उच्च जातियों के सदस्यों को उनके और उनके पूर्वजों के पापों का प्रायश्चित करना चाहिए. उन्हें मैला ढोने, गायों के शवों को निपटाने, टेनरियों में काम करने और स्वच्छ शौचालय बनाने का काम करना चाहिए. अस्पृश्यता को दूर करने के लिए गांधी ने अंतर-जातीय विवाह को प्रोत्साहित किया और घोषणा की कि वे केवल उन्हीं विवाह समारोहों में शामिल होंगे, जिनमें दूल्हा या दुल्हन हरिजन होंगे.

उन्होंने अपनी पत्रिकाओं के नाम हरिजन (अंग्रेजी), हरिजन बंधु (हिंदी) और हरिजन सेवक (गुजराती) रखा. हरिजन के संपादक के रूप में गांधीजी के सचिव महादेव देसाई, सेवाग्राम आश्रम के स्वयंसेवकों के समूह का नेतृत्व करते थे, जो प्रतिदिन निकटवर्ती गांव में जाकर सफाई का काम करते थे. इस बात की पुष्टि प्यारेलाल ने भी की थी. देसाई के निधन के बाद प्यारेलाल गांधी के निजी सचिव बने थे.

जिस किसी भी व्यक्ति ने महादेव देसाई को काम करते देखा था, वे उनके जुनून का दीवाना हो जाता था. वो मगनवाड़ी से हर दिन झाड़ू और बाल्टी लेकर सफाई के कार्य के लिए निकलते थे. हरिजन पत्रिका में वो बढ़-चढ़कर इसकी वकालत करते थे. इस लेखनी के माध्यम से न केवल उन्होंने गांधीजी के विचारों को बल और दृढ़ विश्वास के साथ इन विषयों पर प्रस्तुत करने में सक्षम बनाया, बल्कि उनके व्यक्तिगत उदाहरण ने गांधीजी की गतिविधियों की इन शाखाओं के लिए एक जुनून के साथ श्रमिकों को निकाल दिया.

गांधीजी ने जेल से रिहा होने के बाद पूरे एक वर्ष (1933-34) तक देश भर में हरिजन यात्रा की. जिसके दौरान उन्होंने हिंदू मंदिरों में हरिजनों के मुफ्त प्रवेश के लिए अभियान चलाया. सबसे पहले प्रतिक्रिया देने वाले उनके उद्योगपति भक्त जमनालाल बजाज थे, जिन्होंने हरिजन के लिए वर्धा में मंदिर के द्वार खोले थे.

केरल में गांधीजी के अभियान के कारण ही त्रावणकोर राज्य के महाराजा ने दलितों को मंदिरों में मुफ्त प्रवेश देने की घोषणा की थी. इससे पहले, गांधीजी ने मंदिरों की ओर जाने वाली सार्वजनिक सड़कों पर दलितों के आंदोलन पर प्रतिबंध के खिलाफ केरल के व्योम में सत्याग्रह आंदोलन को पूर्ण समर्थन दिया था.

भले ही कई मुद्दों पर गांधीजी और डॉ. बी आर आंबेडकर के बीच मतभेद थे, लेकिन यह गांधी ही थे, जिन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल में आंबेडकर को जगह दिलवाई थी. आंबेडकर कांग्रेस के विरोधी थे. नेहरू ने गांधी को कहा था कि वह कांग्रेस का विरोध करने वाले को मंत्रिमंडल में जगह कैसे दे सकते हैं, इस पर गांधी ने कहा कि आप कांग्रेस नहीं, देश का मंत्रिमंडल बना रहे हैं.

यह गांधीजी थे, जिन्होंने जोर देकर कहा कि डॉ आंबेडकर को संविधान के नाम पर सरकार को सलाह देने के लिए समिति का सदस्य बनाया जाए और बाद में भारत की संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए गए.

आंबेडकर और गांधीजी के बीच अंतर का मुख्य बिंदु अस्पृश्यता को हटाने के लिए साधन और तरीके थे. आंबेडकर का मानना ​​था कि कानून और संविधान द्वारा समर्थित होने पर ही हरिजन के साथ अन्याय को हटाया जा सकता है. गांधी मानते थे कि सिर्फ एक अच्छा कानून अकेले समस्या का समाधान नहीं कर सकता है. गांधी ने अस्पृश्यता की बुराई के खिलाफ जन जागरूकता पैदा करने पर जोर देने को कहा था. वो मानते थे कि आमजनों के बीच एक राय हो जाएगी, तो इस समस्या का निदान संभव है.

आज दलितों के खिलाफ छुआछूत और भेदभाव को दंडनीय अपराध ठहराया गया है, बावजूद इसके उनके खिलाफ अपराध जारी है.

(लेखक- नचिकेता देसाई. नचिकेता महादेव देसाई के पोते हैं. महादेव देसाई गांधी के सचिव थे)

आलेख में लिखे विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

Last Updated : Sep 28, 2019, 10:51 PM IST

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