महात्मा गांधी को पहली बार सुभाष चंद्र बोस ने 'राष्ट्रपिता' कहकर संबोधित किया था. स्वतंत्रता के बाद संसद ने आधिकारिक रूप से इसे स्वीकृत किया. आमतौर पर इस तरह की उपाधि किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र के पहले राष्ट्रपति को दी जाती है. गांधीजी तब किसी भी पद पर नहीं थे. और बाद में भी उन्होंने किसी पद को सुशोभित नहीं किया था.
दरअसल, सुभाष चंद्र बोस ने गांधी को करीब से देखा था. उन्होंने देखा था कि गांधी ने कैसे देश को बनाने में अपना सबकुछ झोंक दिया था. इसलिए उन्होंने गांधी को राष्ट्रपिता कहा था.
आपको बता दें कि किसी भी देश का निर्माण राजनीतिक और भौगोलिक सीमा की वजह से होता है. उसके इतिहास से ज्यादा महत्वपूर्ण भावनात्मक एकता होती है. और यह भावनात्मक एकता कुछ देश धर्म, तो कुछ देश भाषा के आधार पर प्राप्त कर लेते हैं. बांग्लादेश इसका उदाहरण है. पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ था. लेकिन भारत की स्थिति कुछ अलग है.
भारत एक बहुभाषी देश है. यहां के लोगों ने आजादी के लिए आंदोलन चलाया. इस दौरान हमने अंग्रेजों की दासता के खिलाफ लड़ाई लड़ी. भारत में राष्ट्रवाद की भावना इस आधार पर विकसित हुई है. देश को आजादी दिलाने का संकल्प गांधी से पहले भी कई नेताओं ने लिया था. इसके बावजूद ऐसा क्या रहा कि राष्ट्रपिता की उपाधि गांधी को ही दी गई.
क्यों अलग थे गांधी
आपको जानना होगा कि गांधीजी उन नेताओं से हटकर थे. विविधताओं से भरे इस देश में गांधी ने पूरे देश को भावना के एक सूत्र में बांध दिया था. उन्होंने आम लोगों को इसका हिस्सा बनाया.
सबसे अलग जीवनशैली
अहमदाबाद की एक कोर्ट ने जब उनसे उनका नाम, पता और पेशा पूछा, तो गांधी का जवाब था..वह एक किसान हैं..वह कपड़ा बुनते हैं. ऐसा कहते ही उन्होंने देश के किसानों और कपड़ा बुनने वालों के हृदय में अपनी जगह बना ली. उनकी जीवनशैली दिखावे और अनावश्यक प्रदर्शन से दूर थी. वह सरल और सादा जीवन में यकीन रखते थे. और इस वजह से आम लोग उनसे जुड़ते चले गए. वह खादी का वस्त्र पहनते थे. उसे खुद बुनते थे. वह खेती करते थे. साबरमती और सेवाग्राम आश्रम की सफाई खुद ही करते थे. जबकि उस समय कई ऐसे नेता थे, जो उच्च वर्ग से आते थे और उनकी जीवनशैली बिल्कुल अलग होती थी.
संवाद की भाषा पर गांधी की सोच
गांधीजी की दूसरी ताकत थी ...भाषा. वह आम लोगों की भाषा बोलने में यकीन करते थे. आम तौर पर उस समय के नेता या तो अंग्रेजी या संस्कृतनिष्ठ हिंदी या फिर क्षेत्रीय भाषाओं में कठिन शब्दों का प्रयोग करते थे. गांधीजी ने हिंदी और गुजराती भाषा में अपनी बात रखी. इतना ही नहीं, जब कभी वह अन्य नेताओं के साथ मंच साझा करते थे, गांधी उन्हें अपनी मातृभाषा में बोलने के लिए प्रेरित करते थे. गुजरात में एक सभा के दौरान उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को गुजराती बोलने को कहा, आमतौर पर जिन्ना अंग्रेजी में बोलना पसंद करते थे. इसी तरह से बंगाल में एक सभा के दौरान सुरेंद्र नाथ बनर्जी को बंगाली में बोलने के लिए प्रेरित किया.