महात्मा गांधी के बारे में अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, 'आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास करे कि हाड़-मांस का ऐसा कोई व्यक्ति इस धरती पर कभी रहा होगा.' महात्मा की उपाधि उन्हें बोझ जैसा ही लगता था. जब भी कोई व्यक्ति उन्हें महात्मा कहकर संबोधित किया करता था, वह असहज महसूस करते थे. वह भी एक आम आदमी की तरह ही थे. उन्होंने अपने कर्म से महानता हासिल की. इसमें कोई शक नहीं है उनकी यात्रा में समय ने बड़ी भूमिका निभाई. फिर भी, उनके अंतर्निहित चरित्र ने उन्हें इतनी बड़ी ऊंचाई हासिल करने में मदद की.
जिस तरह एक आम आदमी अपने जीवन में गलतियां करता है, गांधी भी इसके अपवाद नहीं थे. लेकिन गांधी उन लोगों में शामिल नहीं थे, जो अपनी गलतियों से सबक नहीं लेता हो. यही उनकी नैतिक प्रगति की कुंजी थी. उन्हें अपने जीवन के प्रत्येक चरण में आत्म-मूल्यांकन करने की आदत थी. वह अपनी खामियों को ढूंढते थे. उसे दूर करते थे. तब किसी ने उन्हें इस नजरिए से नहीं देखा.
गांधी मानते थे कि उनकी गलतियों को कोई देखे या ना देखे, लेकिन ईश्वर जरूर देखता है. इसलिए वह दुनिया के सामने अपनी गलतियों को कबूल करते थे. उसके बाद वह प्रायश्चित करने का तरीका ढूंढते थे. अफ्रीका के फीनिक्स में उन्होंने एक शाम भोजन नहीं किया. नमक भी नहीं खाया. बाद में इसी तरीके से वह सत्याग्रह करने लगे.
इतना ही नहीं, आगे चलकर गांधी ने अपने सहकर्मियों को भी इस रास्ते पर चलने के लिए तैयार किया. जब भी उन्हें लगता था कि उनके आंदोलन में हिंसा या सांप्रदायिकता जैसी अशुद्धता ने जगह बना लिया है, वह उपवास पर बैठ जाते थे. उनकी प्रार्थना तीव्र हो जाती थी. तब जाकर उन्हें शांति मिलती थी.
आम लोगों में दूसरों का दोष खोजने की सामान्य प्रवृत्ति के विपरीत गांधी अपने में ही गलती ढूंढते थे. और यह स्वीकार करते थे कि उन्होंने पर्वत जैसी गलती की है ( 'हिमालयन ब्लंडर'). अंग्रेजी के इस मुहावरे का प्रचलन इसी वजह से हुआ.
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इसने उन्हें एक विकसित व्यक्ति बना दिया. सत्य के साथ प्रयोग की तरह गांधी के विचार भी साथ-साथ विकसित होते गए. वह हमेशा कहा करते थे कि उनकी शब्दों में विसंगति है तो उन्होंने जिन नवीनतम शब्दों का प्रयोग किया है, उस पर यकीन करें. गांधी हमेशा कहते थे कि अपनी गलतियों को स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए.
गांधीजी के चरित्र की एक और विशेषता यह थी कि उन्होंने तर्क और विश्वास के बीच संतुलन बनाया था. उस पर नाजुक प्रहार किया. वह केवल तार्किक विचारों को स्वीकारते थे. हालांकि वह धार्मिक व्यक्ति थे. उदाहरण के तौर पर गांधी का थियोसोपिकल समाज के कई सदस्यों के विचारों में काफी रुचि थी. खासकर जिस तरीके से थियोसोफिकल समाज ने भारतीय दर्शन और विचारों को महत्व दिया था. फिर भी, वे तत्वमीमांसा और जीवन के बाद की उनकी अवधारणा पर विश्वास नहीं करते थे. गांधीजी ने अस्पृश्यता का विरोध पर तर्क के आधार पर किया था.
हालांकि, ये भी सच है कि जहां तर्क अनुतीर्ण हो जाते थे, वहां गांधी विश्वास का सहारा लेते थे. वह यह मानते थे कि हर व्यक्ति में ईश्वर का तत्व मौजूद है. उनकी सोच यह थी कि सृजनकर्ता ने अच्छे का प्रतिनिधित्व किया, वह सब लोगों को अच्छाई की ओर ले जाएगा. उन्हें सच्चाई पर अटूट भरोसा था. सच पर उन्हें पक्का भरोसा था. वे यह विश्वास करते थे कि सच का रास्ता अहिंसा के मार्ग से होकर ही गुजरता है.
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