चंबा: हिमाचल का ऐतिहासिक मिंजर मेला भगवान रघुवीर को मिंजर अर्पित करने की रस्म के साथ रविवार को शुरू हो गया है. विधानसभा उपाध्यक्ष हंसराज मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद रहे.
पूर्व नगर परिषद कार्यालय चंबा से मिंजर शोभायात्रा निकाली गई, जिसमें नगर परिषद के पदाधिकारियों समेत उपायुक्त चंबा व सदर विधायक पवन नैयर भी शामिल हुए. ऐतिहासिक चौगान में ध्वजारोहण रस्म भी निभाई गई और भगवान रघुवीर को मिंजर लक्ष्मीनारायण और बंसी गोपाल ने चढ़ाई.
स्थानीय कलाकारों की प्रस्तुति. गौरतलब है कि मिंजर मेला हिंदू-मुस्लिम एकता और भाईचारे का प्रतीक है. सदियों पुरानी परंपरा के तहत इस बार भी मिर्जा परिवार के सदस्यों ने मिंजर तैयार की, जिसे इसी परिवार के सबसे वरिष्ठ सदस्य की ओर से भगवान रघुवीर को अर्पित किया गया.
मिर्जा परिवार के सदस्य एजाज मिर्जा ने बताया की ये परम्परा राजाओं के जमाने और 400 साल से चली रही है, जिसे आज भी चंबा के लोग बड़े हर्ष-उल्लास के साथ मनाते हैं. वहीं, विधान सभा उपाध्यक्ष हंसराज ने कहा कि ये मेला कई सदियों से अपने आप में हिन्दू, मुस्लिम भाईचारे को समेटे हुए हैं.
देवभूमि हिमाचल में यूं तो कई मेले और त्योहार मनाए जाते हैं, लेकिन चंबा जिले का अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेला सबसे अलग है. हिंदू और मुस्लिम भाईचारे का प्रतीक चंबा जिला का अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश भर में प्रसिद्ध है.
जाने क्या है इस मेले में खास इस मेले की खास बात ये है कि यहां मिर्जा परिवार के सदस्य मिंजर बनाते हैं. मुस्लिम परिवार द्वारा बनाई गई मिंजर को लक्ष्मी-नारायण मंदिर में चढ़ाया जाता है. रेशम के धागे और मोती पिरोकर बनाई गई मिंजर को चढ़ाने के बाद ही मिंजर मेला शुरू होता है. मिर्जा परिवार द्वारा मिंजर बनाने की ये परंपरा करीब 400 साल से निभाई जा रही है.
यह मेला श्रावण मास के दूसरे रविवार को शुरू होकर सप्ताह भर चलता है. इस बार यह मेला 28 जुलाई से शुरु होकर 4 अगस्त तक चलेगा. मेले की शुरुआत मिंजर चढ़ाने के साथ होती है और उसके बाद अखंड चडी महल में पूजा अर्चना की जाती है. इसके बाद ऐतिहासिक चंबा चौगान में मिंजर का ध्वजारोहण किया जाता है.
इस मैदान में आयोजित होता है मेला. दो समुदायों की एकजुटता के मिसाल इस मेले से धर्म निरपेक्षता की झलक देखने को मिलती है. कहा जाता है कि जब राजा पृथ्वी सिंह शाहजहां के शासनकाल में भगवान रघुवीर की मूर्ति को चंबा लाए थे तो शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग को रघुवीर के साथ राजदूत के रूप में भेजा था.
मिर्जा साफी बेग जरी-गोटे के काम में माहिर थे. उन्होंने ही जरी की मिंजर बनाकर रघुवीर जी, भगवान लक्ष्मीनारायण और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी. तबसे लेकर आज तक मिंजर मेले का आगाज मिर्जा परिवार के वरिष्ठ सदस्य द्वारा रघुवीर जी को मिंजर भेंट करने पर ही होता है.
क्या है मिंजर?
चंबा में स्थानीय लोग मक्की और धान की बालियों को मिंजर कहते हैं. इस मेले का आरंभ रघुवीर जी और लक्ष्मीनारायण भगवान को धान और मक्की की मिंजर या मंजरी, मिंजर को लाल कपड़े पर गोटे से जड़कर, नारियल और ऋतुफल भेंट किए जाते हैं. इस मिंजर को एक सप्ताह बाद रावी नदी में प्रवाहित किया जाता है. इन बालियों को स्थानीय भाषा में मिंजर या मंजर कहा जाता है, इसी कारण इस मेले का नाम भी मिंजर पड़ा.
इस तरह से होती हैं तैयारियां. एक और लोक कथा के अनुसार मिंजर मेले की शुरुआत 935 ई. में हुई थी. जब चंबा के राजा त्रिगर्त के राजा जिसका नाम अब कांगड़ा है, पर विजय प्राप्त कर लौटे थे तो स्थानीय लोगों ने उन्हें गेहूं, मक्की और धान की मिंजर (बालियां) और ऋतुफल भेंट करके खुशी मनाई थी. जिसे बाद में हर साल मनाया जाने लगा.
ऐसे मनाया जाता है मिंजर मेला
मिंजर मेले में पहले दिन भगवान रघुवीर जी की शोभायात्रा निकलती है. इसे चंबा के ऐतिहासिक चौगान तक लाया जाता है जहां से मेले का आगाज होता है. भगवान रघुवीर जी के साथ आसपास के 200 से अधिक देवी-देवता भी चौगान में पहुंचते हैं.
मिर्जा परिवार सबसे पहले मिंजर भेंट करता है. उस समय घर-घर में ऋतुगीत और कुंजड़ी-मल्हार गाए जाते थे. अब स्थानीय कलाकार मेले में इस परंपरा को निभाते हैं. मिंजर मेले की मुख्य शोभायात्रा राजमहल अखंड चंडी से चौगान से होते हुए रावी नदी के किनारे तक पहुंचती है. यहां मिंजर के साथ लाल कपड़े में नारियल लपेट कर, फल-मिठाई नदी में प्रवाहित की जाती है.
इस मेले में कई बदलाव भी हुए हैं, पहले मिंजर विसर्जन के दौरान सिर्फ रघुनाथ जी की पालकी ही मिंजर यात्रा के साथ चलती थी. बाद में प्रशासन ने स्थानीय देवी-देवताओं को भी इस यात्रा में शामिल करने की इजाजत दी. मिंजर की शोभायात्रा मेले के अंतिम दिन पूरे राजशाही अंदाज में निकाली जाती है और मंजरी गार्डन में मिंजर को प्रवाहित किया जाता है.
पहले दी जाती थी भैंसे की बलि
1943 तक मिंजर मेले में भैंसे की बलि देने की प्रथा थी. इसके अनुसार जीवित भैंसे को नदी में बहा दिया जाता था. यह आने वाले साल में राज्य के भविष्य को दर्शाता था. अगर पानी का बहाव भैंसे को साथ ले जाता था और वह डूबता नहीं था तो उसे अच्छा माना जाता था. यह माना जाता था कि बलि स्वीकार हुई.
अगर भैंसा बच जाता और नदी के दूसरे किनारे चला जाए तो उसे भी अच्छा माना जाता था कि दुर्भाग्य दूसरी ओर चला गया है. अगर भैंसा उसी तरफ वापस आ जाता था तो उसे बुरा माना जाता था. अब भैंसे की जगह सांकेतिक रूप से नारियल की बलि दी जाती है. विभाजन के बाद पाकिस्तान गए लोग भी रावी नदी के किनारे मिंजर प्रवाहित करते हैं और कुंजड़ी-मल्हार गाते हैं. 1948 से रघुवीर जी रथयात्रा की अगुवाई करते हैं.