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शाहीनबाग से सबक : किस हद तक हो असहमति के अधिकार का प्रयोग

शाहीन बाग में हुए विरोध प्रदर्शन से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया है. इस फैसले ने यह साफ कर दिया है असहमति के अधिकार का प्रयोग किस हद तक किया जा सकता है. शांतिपूर्ण ढंग से विरोध प्रदर्शन करना जनता का अधिकार है. हालांकि महत्वपूर्ण बिंदू यह भी है कि विरोध के दौरान आम रास्ता पर कब्जा जमाना स्वीकार्य नहीं है.

Lessons from Shaheen Bagh
Lessons from Shaheen Bagh

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Published : Oct 20, 2020, 12:47 PM IST

नई दिल्ली : इस साल की शुरुआत में दक्षिण दिल्ली के शाहीन बाग में तीन माह तक चले विरोध प्रदर्शन से जुड़ी याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल में एक फैसला दिया है. इस फैसले से इस बात पर चल रही बहस का रुख साफ हो जाना चाहिए कि असहमति के अधिकार का प्रयोग करते हुए कोई किस हद तक जा सकता है.

महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि विरोध के दौरान आम रास्ता पर कब्जा जमाना स्वीकार्य नहीं है. इस फैसले के दीर्घकालिक निहितार्थ होंगे. अब से राजनीतिक लड़ाई सड़क पर उतर कर कैसे लड़ी जाएगी क्योंकि विरोध का अधिकार एक अघोषित अधिकार है तो ऐसा करने से संवैधानिक व्यवस्था गड़बड़ा सकती है.

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल अनिरुद्ध बोस और कृष्ण मुरारी तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि अनुच्छेद 19 संविधान के उन हिस्सों में से एक था नागरिकों को दो कानूनी अधिकार दिए थे. अनुच्छेद 19 ए और 19 1बी के तहत क्रमशः बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और शांति से हथियारों के बिना एकत्र होने का अधिकार.

अधिकार हर नागरिक को शांति से इकट्ठा होने और राज्य की कार्रवाई करने या नहीं कार्रवाई करने के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से विरोध प्रदर्शन करने के लिए समर्थ बनाते हैं. लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए राज्य को इसका सम्मान करना और प्रोत्साहन देना चाहिए, जैसे हमारे यहां है.

यह उल्लेखनीय है कि अधिकार कुछ उचित प्रतिबंधों के तहत हैं. अदालत के पहले के एक फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि, चाहे वह किसी व्यक्ति का हो या किसी वर्ग का, वह बिल्कुल अलग... उसका वजूद नहीं है. उसे हर दूसरे विपरीत अधिकार के साथ संतुलित होना पड़ता है.

इस मामले में हम लोगों की तरफ से हल निकालने का प्रयास किया गया जहां प्रदर्शनकारियों के अधिकारों को यात्रियों के साथ संतुलित किया जाना था. लोकतंत्र और असंतोष साथ-साथ चलते हैं, लेकिन विरोध की अभिव्यक्ति सिर्फ एक तय स्थान पर ही होनी चाहिए.

अदालत ने कहा कि विरोध प्रदर्शन न केवल बिना तय किए हुए स्थान पर हुआ, बल्कि रास्ता भी रोक दिया गया जिसके कारण आने जाने वालों को भारी असुविधा हुई . हम याचिका दायर करने वालों की या दलील स्वीकार नहीं कर सकते हैं कि जब भी वे चाहे अनगिनत संख्या में उस जगह पर इकट्ठे हो जाएं जिसे उन्होंने विरोध प्रदर्शन के लिए चुना है .

विरोध प्रदर्शन का परिणाम स्वरूप 15 दिसंबर 2019 ओखला अंडरपास सहित कालिंदी कुंज शाहीन बाग खंड को बंद करना पड़ा था.

शाहीन बाग के विरोध प्रदर्शन पर आपत्ति दर्ज कराने वालों का मुख्य तर्क यह था कि प्रदर्शनकारियों ने एक महत्वपूर्ण रास्ते को बंद कर दिया था जिससे भारी असुविधा हुई और नुकसान हुआ. यह कहने वालों में अदालत में इसके खिलाफ याचिका दायर करने वालेडॉ नंद किशोर गर्ग भी शामिल थे उनका कहना था कि विरोध प्रदर्शन के अधिकार के परिणाम स्वरूप नागरिकों के स्वतंत्र आवाजाही में बाधा नहीं आनी चाहिए.

अदालत ने कहा कि इस मुद्दे पर बहुत सोच विचार करने के बाद हम लोगों को इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई संकोच नहीं है कि रास्तो पर इस तरीके से कब्जे प्रदर्शन के लिए स्वीकार्य नहीं है और प्रशासन को चाहिए कि इलाके से अतिक्रमण या अवरो धहटाने के लिए कार्रवाई करें .

अदालत ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विरोध प्रदर्शन के इतिहास को याद किया. पीठ ने कहा, 'दिमाग में रखनी चाहिए कि वह औपनिवेशिक शासन के दौरान के असंतोष के तरीके को स्वशासी लोकतंत्र के साथ बराबर तुलना नहीं की जा सकती. विरोधऔर असंतोष व्यक्त करने का अधिकार है लेकिन कुछ कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी भी है. या फिर से अदालत का एक महत्वपूर्ण अवलोकन है.'

बता दें कि संविधान की प्रारूप समिति का नेतृत्व करने वाले डॉ. बीआर अंबेडकर ने इस पर बहुत विचार विमर्श किया था. 25 नवंबर 1949 को संविधान के प्रारूप पर अंतिम मुहर लगाने से पहले इसका उल्लेख किया गया.

डॉक्टर अंबेडकर ने कहा कि संविधान की आलोचना मोटे तौर पर दो वर्गों से की जाती है, कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी. कम्युनिस्टों को यह पसंद इसलिए नहीं है, क्योंकि वे तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहते हैं. कम्युनिस्ट संविधान की निंदा करते हैं, क्योंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है.

समाजवादी सभी निजी संपत्ति का मुआवजा का भुगतान किए बगैर राष्ट्रीयकरण करना चाहते हैं. दूसरी बात,वे चाहते हैं कि संविधान में पूरे मौलिक अधिकार हों और उसकी कोई सीमा नहीं हो ताकि अगर उनकी पार्टी सत्ता में नहीं आ पाए तो उन्हें बगैर किसी रोक-टोक के पूरी आजादी के साथ ना सिर्फ आलोचना करने की आजादी हो बल्कि राज्य को उखाड़ फेंकने की भी आजादी हो.

समाजवादी पार्टी की जगह कांग्रेस पार्टी पार्टी है. ऐसा लगता है जैसे डॉक्टर अंबेडकर, भारत में जो वर्ष 2020 में हो रहा है उसके बारे में कह रहे हैं. उन राजनीतिक दलों को जिन्हें मतदाताओं ने खारिज कर दिया है वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बातचीत करने के लिए सड़कों पर समस्या पैदा करना चाहते हैं.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए की कांग्रेस पार्टी का वोट शेयर धराशाई होकर 20 फीसद से भी कम हो गया और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का वोट शेयर घटकर 2.5 फीसद आ गया. डॉक्टर अंबेडकर ने दूसरी बात विरोध के तौर तरीकों के बारे में कही थी. उन्होंने कहा था कि अगर देश के नागरिक लोकतंत्र के रूप में ही नहीं, बल्कि वास्तव में भी देश को बनाए रखना चाहते हैं तो उन्हें क्या करना चाहिए.

पहली बात कि हमें और आर्थिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीके को हर हाल में अपनाए रखना होगा इसका अर्थ है कि हमें खूनी क्रांति के तरीके का क्या करना होगा? सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का तरीका छोड़ देना चाहिए. यह तरीके तभी ठीक हैं जब विरोध करने का कोई संवैधानिक तरीका नहीं हो, लेकिन जहां संवैधानिक तरीके खुले हों, वहां इन असंवैधानिक तरीकों का कोई औचित्य नहीं रह जाता.

इस बात की चर्चा डॉक्टर अंबेडकर ने की है. लोगों को सामान्य जीवन में व्यवधान पैदा करना करने के लिए एक महत्वपूर्ण सड़क को जाम कर देना वहां होने वाले प्रदर्शन, अराजकता को बढ़ावा देने वाला व्याकरण था. इसे लेकर किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए.

लोगों के द्वारा 2014 और 2019 में चुनी गई सरकार के खिलाफ किसी और चीज से अधिक उनका असंतोष था. कई महीनों तक इस तरह की अराजकता को बढ़ावा देने के बजाय बेहतर होता कि संसद द्वारा बताए गए कानून के खिलाफ वे सुप्रीम कोर्ट जाते. यही उचित समय संवैधानिक जवाब होता, जिसे डॉक्टर अंबेडकर के नेतृत्व में तैयार किया गया था. उम्मीद है कि शीर्ष अदालत के फैसले से शाहीन बाग जैसे कई तरह के प्रदर्शनों पर विराम लगेगा और असंतोष व्यक्त करने का कुछ तरीका फिर बहाल होगा.

(लेखक-ए.सूर्यप्रकाश)

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