पटना : बिहार की राजनीति में धनबल, जातिबल और बाहुबल ने हमेशा सियासी बदलाव को दिशा दी है. चुनावों के दागी और बाहुबली नेता पार्टियों में चोर दरवाजे से अपने हनक के बदौलत उपस्थिति दर्ज कराते हैं और समाज में अपने रसूख के बदौलत जीतकर सदन पहुंचते हैं. 1980 के दशक की बात करें तो, बिहार की राजनीति में साधन संपन्न बाहुबली सियासत में पर्याय बन गए थे, सियासत में उनकी हनक क्षेत्रीय क्षत्रप की थी और वहां उनकी ही तूती बोलती थी. सत्ता की गद्दी पर पटना में चाहे जो बैठे लेकिन इलाके में सत्ता और सरकार दोनों उन्हीं की चलती थी. राजनेताओं को सत्ता की गद्दी पर बैठने के लिए बाहुबली का आशीर्वाद लेना जरूरी था. बिहार की सियासत में एक ऐसा ही नाम 1980 के दशक में आनंद मोहन का रहा है. बिहार के कोसी क्षेत्र में इस बाहुबली की तूती बोलती थी.
1980 की राजनीति में शुरुआत
1980 की राजनीति खासतौर से इमरजेंसी के बाद बदले समाजवाद और नए राजनीतिक समीकरणों को साधने के लिए नेताओं को संपन्न बाहुबलियों के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया. इनके यहां सियासतदानों की गाड़ियां रुकने लगीं और राजनीति को कैसे साध लिया जाए, इसकी नीति बनने लगी. यह किसी एक दल की बात नहीं थी. अगर बात बिहार की करें तो चाहे लालू हो या नीतीश, रामविलास पासवान हों या दूसरे नेता. सभी क्षेत्रों में जीत की गारंटी बाहुबली ही माने जाते थे.
लालू यादव भी डरते थे
बहुबलियों को सत्ता सुख का एहसास हुआ तो खुद ही राजनीति में किस्मत आजमाना शुरू कर दिए. बूथ कैप्चर कर नेता बनाने वाले खुद ही नेता बनने लगे. 1980 का दौर बिहार की राजनीति में इस तरह के बाहुबलियों के सियासत में आने के रास्ते का साल भी कहा जा सकता है. बिहार की राजनीति में आनंद मोहन एक ऐसा नाम थे, जिनकी राजनीति लालू यादव को उनकी ही भाषा में टक्कर देने का काम करती थी. एक दौर ऐसा था, जब आनंद मोहन का जलवा इतना जबरदस्त था कि उनके क्षेत्र में लालू यादव भी जाने से डरते थे लेकिन सियासत भी अपने तरीके की ही पटकथा लिखती है. राजनीति में वर्चस्व को कायम करने के लिए हमेशा बाहुबल का प्रयोग होता है और यही हुआ आनंद मोहन के साथ.
जॉर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार से जुड़े
लालू से अदावत के बदौलत बिहार में उनकी साख तो बनी लेकिन राजनीति में बढ़ती महत्वाकांक्षा ने उनको सियासत के कुचक्र का शिकार बना दिया और पूरी सियासत ही चौपट हो गई. 80 के दशक में आनंद मोहन सहरसा और कोसी के क्षेत्र में मजबूत बाहुबली के नाम पर स्थापित हो चुके थे. 1983 में आनंद मोहन पहली बार 3 महीने के लिए जेल गए और 1990 के विधानसभा चुनाव में मेहसी सीट से 62 हजार से ज्यादा वोटों से जनता दल के टिकट पर जीत दर्ज की. हालांकि, आनंद मोहन बहुत ज्यादा दिनों तक जनता दल में नहीं रहे. 1993 में जनता दल से अलग होकर उन्होंने पीपुल्स पार्टी बनाई. हालांकि, यह पार्टी बहुत मजबूत नहीं हो पाई और यह राजनीति का तकाजा ही था कि आनंद मोहन को समता पार्टी के साथ हाथ मिलाना पड़ा. इसके कर्ताधर्ता तत्कालीन बड़े नेता जॉर्ज फर्नांडिस थे और उनके साथ नीतीश कुमार चल रहे थे.
जिलाधिकारी डी कृष्णैया की हत्या बनी मुसीबत
बिहार की सियासत में स्थापित हो रहे आनंद मोहन ऐसे तमाम बाहुबलियों के साथ दोस्ती भी बना रहे थे, जो एक खास वर्ग के थे और मंडल कमीशन के बाद बदले राजनीतिक हालात में उन नेताओं को टक्कर देने का भी काम कर रहे थे, जो सवर्ण सियासत को राजनीति से किनारे करना चाहते थे. कोसी से आनंद मोहन और मुजफ्फरपुर क्षेत्र से छोटन शुक्ला-भुटकुन शुक्ला गैंग से आनंद मोहन की नजदीकियों ज्यादा बढ़ीं. हालांकि, बढ़ते वर्चस्व में अंडरवर्ल्ड के बीच एक लड़ाई शुरू हो गई और 1994 में मुजफ्फरपुर में छोटन शुक्ला की हत्या हो गई. हत्या को लेकर इतना ज्यादा उबाल था कि उनके अंतिम संस्कार के लिए जा रही भीड़ ने गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी डी कृष्णैया की हत्या कर दी. डीएम की हत्या ने भले उस समय आनंद मोहन को चर्चा का विषय बनाया लेकिन यही हत्या आनंद मोहन के सियासी चर्चा के खत्म होने का कारण भी बन गई.
जेल भेजने में लालू यादव की अहम भूमिका रही