नई दिल्ली : प्रोन्नति में आरक्षण का विवाद एक बार फिर से सामने आ गया है. यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसके खिलाफ कोई भी पार्टी या सरकार दिखना नहीं चाहती है. आज भी संसद में इस विषय पर खूब हंगामा हुआ. दो दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार असमंजस में है. आइए जानते हैं आखिर पूरा विवाद क्या है.
क्या है एम नागराज केस
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया था कि प्रोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए. इसके बावजूद कई राज्यों ने प्रोन्नति में आरक्षण को लागू कर दिया. केन्द्र सरकार ने कोर्ट के फैसले के खिलाफ कानून में संशोधन किए. 2002 में इन संशोधन को चुनौती दी गई. इसे एम नागराज केस के रूप में जाना जाता है. 2006 में इस पर फैसला आया. कोर्ट ने संशोधन को सही ठहराया.
कोर्ट ने फैसले में कहा कि राज्य सरकार प्रोन्नति में आरक्षण दे सकती है. हालांकि, कोर्ट ने तीन प्रमुख शर्तें लगा दीं. कोर्ट ने कहा कि जिस समुदाय को प्रोन्नति में आरक्षण मिलेगा, सरकार को उसे लेकर तीन शर्तें पूरी करनी चाहिए. पहला, क्या उसका प्रतिनिधित्व वाकई में बहुत कम है. दूसरा, क्या उस उम्मीदवार को नियुक्ति में आरक्षण देने के बाद फिर से आरक्षण की जरूरत है. तीसरा, क्या इस फैसले से कामकाज पर असर पड़ेगा.
कब से शुरू हुआ है विवाद
- 1973 में उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था लागू की थी.
- 1992 इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया.
- मुलायम सरकार ने इस आरक्षण को कोर्ट के अगले आदेश तक के लिए बढ़ा दिया.
- 1995 में संविधान संशोधन किया. 82 वां संशोधन के जरिए प्रोन्नति में आरक्षण को वैध ठहराया. इसके बाद राज्य सरकार को आरक्षण देने का कानून मिल गया.
- 2002 में एनडीए सरकार ने 85वां संशोधन किया. इसमें प्रोन्नति में आरक्षण के लिए संशोधन फिर से किया गया. इसमें एससी एसटी कोटे के साथ सीनियोरिटी भी लागू किया गया.
- 2005 में मुलायम सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण खत्म कर दिया.
- मायावती ने अपने शासनकाल में इसे फिर से चालू कर दिया.
- 2011 में इस फैसले को हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया.
- 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को सही ठहराया.
- 2017 में केन्द्र की अपील के बाद नागराज मामले का फैसला संवैधानिक पीठ को सौंप दिया गया. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि फैसला आने तक राज्य सरकारें आरक्षण दे सकती हैं.