नई दिल्ली: मशहूर शायर मिर्जा गालिब की जब भी बात होती है, तो सिर्फ शेर-ओ-शायरी पर ही चर्चा नहीं होती बल्कि आगरा से लेकर दिल्ली तक का जिक्र होता है.
अदब की दुनिया में मिर्जा गालिब के सफर के चर्चे होते हैं लेकिन इन सबके बीच निगाहें आकर टिक जाती है मिर्जा गालिब की हवेली पर, जिसकी गलियों में कोई निशान तक नहीं दिखते.
गलियों में नहीं हैं गालिब के निशान
पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान की गली कासिम जान में गालिब की हवेली है. लेकिन बल्लीमारान में घूमते हुए अगर आप खुद से गालिब की हवेली ढूंढना चाहें, तो शायद बहुत मुश्किल हो, क्योंकि यहां मुख्य सड़क पर ऐसा कोई निशान नहीं, जो आपको गालिब की हवेली तक पहुंचा दे. पूछने पर लोग बताते तो हैं, लेकिन उसे बताने में भी वो अहसास नहीं होता, जो गालिब को लेकर होना चाहिए.
एक नेम प्लेट में दर्ज है हवेली की पहचान
गली कासिम जान में भी कोई ऐसी खास पहचान दर्ज नहीं है. अगर आप गालिब की हवेली की पहचान को लेकर अजनबी हैं तो हवेली के सामने से गुजरने पर भी पता नहीं चलेगा कि आपने दिल्ली से जुड़ी एक अदबी विरासत के स्मारक को पार कर लिया है. किसी आम घर की दीवार पर नेम प्लेट की तरह चिपका है, गालिब की हवेली के सामने गालिब का पता. लेकिन इससे भी ज्यादा निराशा होती है, जब हम उसके अंदर जाते हैं.
गालिब जयंती पर ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट अतिक्रमण से जूझ रही हवेली
गालिब की हवेली अतिक्रमण से जूझ रही है. हवेली के अहाते में ही बेतरतीब से खड़ी बाइक दिखतीं हैं और उस पर पड़े धूल बताते हैं कि वो कितने दिनों से वहां पर रखी गई हैं. गालिब की हवेली के सामने एक गार्ड की ड्यूटी है, लेकिन वहां कुछ देर रुकने पर पता चलता है कि उस गार्ड का काम हवेली की देखरेख से ज्यादा, हवेली के भीतर की दुकानों के लिए काम करना है. यही सब कहते हैं, गालिब की हवेली की बेतरतीब कहानियां.
गुलजार ने लगवाई है ग़ालिब की मूर्ति
इस हवेली को गालिब की पहचान से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, शायर और लेखक गुलजार ने. उनकी तरफ से यहां गालिब की एक प्रतिमा लगाई गई है और उसी के इर्द-गिर्द गालिब के दीवान, तस्वीरों से सजे उनके शेर-ओ-शायरी और उनके कुछ कपड़े रखे हुए हैं. वही एक दूसरे कमरे में भी गालिब की कुछ छोटी-छोटी प्रतिमाएं हैं और दीवारों पर उनकी लिखी शेरो-ओ-शायरी की पंक्तियां लिखी गई हैं.
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खाक हो रही गालिब की पहचान !
गौर करने वाली बात यह भी है कि गालिब की हवेली के बगल में रहने वाले बच्चों को भी गालिब के शेर ठीक से याद नहीं. कुल मिलाकर इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय अभी बल्लीमारान की गलियों में धूल फांक रहा है और गालिब का ही एक शेर अपनी सार्थकता के दुर्भाग्य को प्राप्त हो रहा है कि हमने माना कि तगाफुल न करोगे, लेकिन खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक.