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जम्मू-कश्मीर में आतंकी संगठनों में स्थानीय युवाओं का शामिल होना चिंताजनक

2020 में मारे गए 226 आतंकियों में से 176 स्थानीय थे. इस साल कम से कम 166 स्थानीय युवा आतंकवादी संगठनों में शामिल हुए. हालांकि इनमे लापता लोगों को शामिल नहीं किया गया है. कश्मीर में आतंकवाद तेजी से स्थानीय होता जा रहा है. ऐसे में बदलती चुनौतियों के साथ, सरकार के लिए भी यह जरूरी है कि वह इससे निपटने के लिए नए उपाय अपनाए. पढ़ें वरिष्ठ संवाददाता संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट.

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Published : Jan 1, 2021, 7:24 PM IST

नई दिल्ली : वर्ष 2020 आतंकवाद से त्रस्त कश्मीर घाटी में भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए मिला-जुला रहा. हालांकि अच्छी खबर यह है कि पाकिस्तानी और अफगान मूल के आतंकी भारत में घुसपैठ करने में नाकाम रहे, लेकिन बुरी खबर यह है कि स्थानीय लोग तेजी से आतंकवाद की ओर बढ़ रहे हैं.

इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2020 में मारे गए कुल 226 आतंकवादियों में से 78 प्रतिशत यानी 176 स्थानीय आतंकी थे, जबकि 50 आतंकी विदेशी थे. स्थानीय लोगों के बीच असंतुष्टता बढ़ने के कारण 2019 की तुलना में इस साल लगभग 40 प्रतिशत अधिक स्थानीय निवासियों ने हथियार उठाए.

हालांकि, सेना के आंकड़ों के अनुसार 2020 में आतंकवाद में शामिल होने वाले स्थानीय लोगों की संख्या 166 है, लेकिन संभवत: इसमें लापता युवाओं की संख्या को शामिल नहीं किया गया है, जो संभवतः आतंकी संगठनों में शामिल हो सकते हैं. इसलिए वास्तविक संख्या और अधिक हो सकती है.

2015, 2016, 2017, 2018 और 2019 में हथियार उठाने वाले स्थानीय युवाओं की संख्या क्रमशः 66, 88, 128, 191 और 119 थी.

दूसरी ओर विदेशी आतंकियों को नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर एक मजबूत सुरक्षा ग्रिड, बेहतर निगरानी के चलते घुसपैठ रोधी ग्रिडों द्वारा नाकाम कर दिया गया है. यह ग्रिड जो ड्रोन, बेहतर इलेक्ट्रॉनिक सर्विलेंस और ह्यूमन इंटेलिजेंस का उपयोग करने के कारण अधिक प्रभावी हो गए हैं.

स्थानीय यूथ क्यों ?
पांच अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के ठीक बाद से ही वहां स्थानीय राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर पाबंदी लगी दी गई. इससे जमीनी स्तर पर एक शिकायत निवारण तंत्र की कमी हो गई.

नतीजन, ऊर्जावान स्थानीय युवाओं की शिकायतों का समाधान नहीं हो सका. ऐसे में इन युवाओं के लिए आतंकवाद ने उनकी भावनाओं को बाहर निकालने का एक तरीका दिया.

हालांकि स्थानीय आतंकवादियों के साथ समस्या यह है कि अगर कोई आतंकी मारा जाता है, तो उसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है. इससे असंतुष्ट परिवार और रिश्तेदारों में आक्रोश को बढ़ा देता है, जिससे अधिक युवाओं के आतंकी बनने की संभावना बढ़ जाती है. इस तरह की मौतों से घाटी में बेकाबू विरोध प्रदर्शन शुरू हो सकते हैं.

अधिक हत्याएं क्यों?
2020 में आतंकवाद में शामिल होने वाले स्थानीय युवाओं की संख्या में वृद्धि के साथ, कार्रवाई में मारे गए आतंकवादियों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हुई और इस साल पिछले पांच वर्षों के मुकाबले में सबसे अधिक मौतें दर्ज की गईं.

सेना के सूत्रों के अनुसार 2020 में कम से कम 226 आतंकवादियों को मार गिराया गया है, जो 2019 के मुकाबले 48 प्रतिशत अधिक है. 2016, 2017, 2018 और 2019 में मारे गए आतंकवादियों की संख्या क्रमशः 141, 213, 215 और 153 है. इस तरह पिछले पांच वर्षों में कुल 948 आंतकी मारे जा चुके हैं.

सुरक्षा बलों द्वारा उठाए गए कठोर कदमों के चलते मारे गए आतंकवादियों की संख्या, इस तथ्य को भी दर्शाती है कि आंतकियों को न ट्रेनिंग दी गई और न ही उनके पास अच्छे हथियार हैं. इसके लिए फंड को रोकना, शस्त्र आपूर्ति नेटवर्क को खत्म कर देना, बेहतर सुरक्षा और आतंकवाद रोधी ग्रिड आदि ने प्रमुख भूमिका निभाई है.

हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन सब के बावजूद बड़ी संख्या में स्थानीय निवासी आतंकवाद से जुड़े. इसमें भावनाओं की एक मुख्य भूमिका थी, जो उनके लिए उच्च स्तरीय प्रेरणा है.

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बड़ी समस्याएं
आंतकवादी कैडर की बदलती प्रोफाइल में कई समस्याएं हैं. इस तरह विद्रोह की स्थितियों में यह बहुत नया नहीं है कि जब स्थानीय कैडरों का एक समूह इलाके, जनसांख्यिकी और अधिक प्रभावी नेटवर्क और समर्थन आधार के आधार पर उभर कर सामने आया हो.

गौरतलब है कि 'लोन वुल्फ' हमलों की अधिक संभावना है, जिन्हें गिरफ्तार करना या रोकना बहुत मुश्किल है.

त्रिस्तरीय रणनीति
ऐसे समय में सरकार क्या कर सकती है. सरकार को ऐसे में तीन-स्तरीय रणनीति पर ध्यान केंद्रित करना होगा. सरकार आंतकवाद से बाहर निकलने वाले लोगों के लिए पर्याप्त पुनर्वास उपाय करे या उन्हें गिरफ्तार करे. 2020 में नौ आतंकवादियों ने आत्मसमर्पण किया, जबकि 55 को गिरफ्तार किया गया था.

इसके अलावा एक डिब्रीफिंग कार्यक्रम होना चाहिए, ताकि आतंकवादी अपने सिद्धांत पर काबू पा सके. ऐसे व्यक्ति ठोस संपत्ति हो सकते हैं और समुदाय में शांति को आगे बढ़ाने के लिए रोल मॉडल साबित हो सकते हैं.

साथ ही उनके लिए पर्याप्त रोजगार के अवसर उत्पन्न होने चाहिए, युवाओं की भागीदारी के लिए राजनीतिक स्थान का निर्माण होना चाहिए.

इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर कुमार संजय सिंह का कहना है कि राष्ट्र की सफलता या असफलता राष्ट्र के ताने-बाने के भीतर असंतुष्ट समुदायों को अवशोषित करने की क्षमता और लचीलेपन पर निर्भर करती है और देश में कश्मीर इसको परखने के लिए बेहतर विकल्प हो सकता है.

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