देश की राजधानी दिल्ली में स्थित जेएनयू कैंपस में जिस तरह से घरने-प्रदर्शन और हिंसा का दौर चला है वो केंद्र सरकार के अलोकतांत्रिक तरीकों के खिलाफ देश के युवाओं में फैले रोष को दिखाता है. इसके साथ ही यह देश के पढ़े लिखे और राजनीतिक सोच रखने वाले युवा वर्ग में फैली बेचैनी को भी दिखाता है. इन विरोध प्रदर्शनों को अलग कर दिल्ली के एक बड़े विश्वविद्यालय के मामले की तरह देखना भी सही नहीं होगा. जेएनयू में हुई घटनाओं को देशभर में छात्रों द्वारा किए जा रहे नागरिक संशोधन कानून और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के विरोध के साथ जोड़कर देखना चाहिए. एक महीने से भी ज्यादा समय से देशभर में सीएए और एनआरसी के विरोध का सिलसिला तेजी पकड़ता जा रहा है. असम से शुरू हुआ यह विरोध अब तकरीबन पूरे देश में फैल चुका है, जहां इससे देश में एक नई तरह की राजनीति की शुरुआत हो सकती है, वहीं इसके राजनीतिक नतीजे और असर भी होंगे.
जेएनयू संकट
जेएनयू के छात्र पिछले अक्टूबर से कैंपस मे फीस वृद्धि के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. छात्रों का विरोध जेएनयू प्रशासन द्वारा मैनटेनेंस मेस कर्मियों, खानसामों और सफाई पर लगने वाले सेवा शुल्क और बिजली-पानी के बिल का भार छात्रों पर डाले जाने के फैसले के खिलाफ है. मेरी नजर में छात्रों का विरोध सही है और इसी के कारण इस सत्र की पढ़ाई का काम और परीक्षाएं समय पर नहीं हो सकीं. इस महीने की शुरुआत से शुरू होने वाले नए सत्र के लिये भी 70% छात्रों ने पंजीकरण नहीं करवाया है. इस सबके ऊपर रविवार को बड़ी संख्या में नकाबपोश हमलावरों ने जेएनयू कैंपस में घुसकर छात्रों और टीचरों पर हमला बोल दिया, जिसके चलते कई लोग घायल हो गये. हैरत की बात यह है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय के आधीन आने वाली दिल्ली पुलिस 70 से ज्यादा हमलावरों में से किसी की न तो पहचान हो सकी है और न ही गिरफ्तारी. देश में इसे लेकर भी ग़ुस्सा है.
जेएनयू संकट की राजनीति
जेएनयू में पसरी विचारधारा और सत्ता विरोधी नजरिये के कारण इसे हमेशा से ही दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थकों ने अपना विरोधी माना है. इससे पहली की सरकारें चाहे कांग्रेस की हो या गठबंधन की सभी ने जेएनयू से विरोध और आलोचनाओं के बावजूद या तो इस संस्थान को साथ लेकर काम किया या इसे अकेला छोड़ दिया, लेकिन किसी ने इसे अपने से दूर होने पर मजबूर नहीं किया. मोदी सरकार ने एक बिलकुल अलग नीति अपनाते हुए जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों से सीधी टक्कर ली है और साथ ही संस्थान को देश विरोधी करार देने का काम किया है.
जेएनयू का संकट केंद्र की बीजेपी सरकार को राजनीतिक फायदा नहीं पहुंचा रहा है ऐसा नहीं है. जहां एक तरफ सरकार आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और लगातार कई राज्यों में चुनावी हार से परेशान दिखने लगी है. वहीं जेएनयू का संकट बीजेपी और सरकार के लिए लोगों का ध्यान जरूरी मुद्दों से हटाने लिये बिल्कुल मुफीद साबित हो रहा है. जब सत्ता में बैठे लोग जेएनयू को देश विरोधी गतिविधियों और ताकतों का गढ़ कहें और यह भ्रम फैलाने के लिए मीडिया का एक बड़ा तपका योजनाबद्ध तरह से काम करे तो देश के आम लोगों के लिए और सभी बातें गैरजरूरी बन जाती हैं. यह बताना जरूरी नहीं है कि इन आरोपों के पीछे ऐसे कोई तथ्य नहीं है जो कानून की दहलीज पर खड़े रह सकें.