दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के समूह (जी-7) का गठन वर्ष 1975 में हुआ था. इसमें कनाडा, फ्रांस, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, इटली, जापान और जर्मनी शामिल हैं. साल 1998 में इस ग्रुप में रूस के शामिल होने के बाद यह जी-7 से जी-8 बन गया लेकिन साल 2014 में यूक्रेन से क्रीमिया हड़प लेने के बाद रूस को समूह से निलंबित कर दिया गया.
आज जी-7 समूह दुनियाभर की 11% आबादी का प्रतिनिधित्व करता है, जो कुल संपत्ति ($ 317 ट्रिलियन) का 58% है और ग्लोबल जीडीपी में 46% से ज्यादा है. जी-7 देश दुनिया के महत्वपूर्ण वैश्विक व्यापारिक भागीदार भी हैं, दुनियाभर में सभी निर्यातों में से 1/3 जी-7 ग्रुप से आते हैं.
अब जून में होने वाले जी-7 शिखर सम्मेलन को सितंबर तक के लिए स्थगित कर दिया गया है. इस संबंध में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत, रूस, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया को बैठक के लिए आमंत्रित करने का फैसला किया है. भारत के लिए इसका क्या मतलब है? वैसे भारत पहले से ही शक्तिशाली समूह जी-20 सदस्य है.
जी-7 को जी-20 तक तब विस्तारित किया गया था, जब पश्चिम ने मंदी के बाद यह महसूस किया कि चीन, भारत, तुर्की, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों को शामिल किए बिना ग्लोबल फाइनेंशियल गवर्नेंस संभव ही नहीं थी. इसे अलावा हाल ही में कई बार जी-7 पर जी-20 को भारी पड़ते भी देखा गया.
अमेरिका द्वारा नए संस्थान पर जोर देने का सीधे तौर पर मतलब है कि वह चीन को इस समूह से पूरी तरह अलग कर देना चाहता है. वहीं जी-7 के प्रस्तावित शिखर सम्मेलन का मुख्य उद्देशय सदस्यों के साथ भविष्य में चीन से निपटने को लेकर चर्चा करना होगा.
अमेरिका ने हाल ही में चीन को लेकर एक नया दस्तावेज जारी किया है, जिसमें चीन पर वैश्विक नियमों को तोड़ने का आरोप लगाया गया है. साथ ही इसमें यह भी कहा गया है कि देश चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के हितों और विचारधाराओं का समर्थन करते हुए अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं को फिर से आकार देने का प्रयास कर रहा है.
जैसा कि पहले से ही विश्व स्वास्थ्य संगठन और टैरिफ वॉर में देखा जा रहा है कि अमेरिका और चीन के बीच 'द न्यू कोल्ड वॉर' अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बड़े पैमाने पर पनप रहा है. अमेरिका अपने रसूख और अपने दबदबे वाले अंतरराष्ट्रीय संस्थानों का इस्तेमाल कर चीन पर दबदबा बनाने की कोशिश कर रहा है और यह भविष्य में भी जारी रह सकता है.
कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को ऐसे किसी भी विकसित देशों की बातों में नहीं आना चाहिए, जोकि राष्ट्र का अपने निजी हित के लिए फायदा उठाएं. हालांकि, भारत को शामिल करना उदारता नहीं बल्कि पश्चिम के लिए एक मजबूरी है. लेकिन यह भारत-अमेरिका संबंधों की मजबूती के रूप में देश के बढ़ते कदमों का एक और प्रमाण होगा.