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'महात्मा गांधी इन सिनेमा' पुस्तक में जानें क्यों नहीं बन रहीं गांधी के सिद्धांतों पर आधारित फिल्में - महात्मा गांधी पर बनी फिल्म

भारतीय सिनेमा में महात्मा गांधी के सिद्धांतों को बताने के लिए डॉक्टर नरेन्द्र कौशिक ने एक पुस्तक लिखी है, जिसका नाम 'महात्मा गांधी इन सिनेमा' रखा गया है. इसमें भारतीय सिनेमा में गांधी के सिद्धांतो और मूल्यों को चित्रित किया गया है. इस पुस्तक के बारे में ईटीवी भारत ने लेखक से साक्षात्कार किया. पढ़ें पूरी खबर...

Narendra Kaushik, author of 'Mahatmagandhi in Cinema
महात्मागांधी इन सिनेमा के लेखक डॉक्टर नरेन्द्र कौशिक

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Published : Jun 15, 2020, 8:59 PM IST

Updated : Jun 15, 2020, 9:04 PM IST

नई दिल्ली : इस तथ्य से कोई इनकार नहीं कर सकता कि सिनेमा समाज को आईना दिखाने का काम करता है. सिनेमा में जीवन का सार छुपा हुआ है. भारतीय सिनेमा साल भर सिनेमा की विभिन्न शैलियों के माध्यम से सामाजिक बदलाव लाने लिए महत्वपूर्ण भूमिक निभाता है. हालांकि भारतीय फिल्मों के प्रतिनिधित्व में कई वर्षों से बदलाव आया है. जयपुर विश्वविद्यालय में पत्रकारिता और जनसंचार विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ नरेन्द्र कौशिक ने अपनी 'महात्मा गांधी इन सिनेमा' पुस्तक के माध्यम से यह बताया है कि भारतीय सिनेमा में गांधी के सिद्धांतो और मूल्यों को कैसे चित्रित किया गया है.

कौशिक ने बताया कि 90 के दशक में मुझे एक पुस्तक 'द स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ' दिल्ली में गांधी दर्शन के लिए उपहार में दी गई थी, जिससे मेरी गांधी में रुचि जागृत हुई. गांधी ने मेरे मन पर एक अमिट छाप छोड़ी. पत्रकार से बने प्रोफेसर ने डॉ कौशिक ने गांधीवादी सिद्धांतों पर पीएचडी की है.

महात्मागांधी इन सिनेमा

'महात्मा गांधी इन सिनेमा' पुस्तक में भारतीय सिनेमा में महात्मा गांधी के सिद्धांतों का कितना असर है, पता लगाने का प्रयास किया गया है. वैसे भी राष्ट्रपिता सिनेमा को भारतीय समाज के लिए 'एक दुष्ट तकनीक' मानते थे. अपने जीवनकाल के दौरान बापू ने केवल 'राम राज्य' नामक हिंदी फिल्म देखी थी. यह फिल्म उनके पसंदीदा महाकाव्य 'रामायण' पर आधारित थी. गांधी ने सिनेमा के प्रति सिर्फ इतना नजरिया था कि इससे भ्रष्ट युवा दिमाग को बढ़ावा दिया है.

डॉ नरेन्द्र कौशिक से विशेष बातचीत :

सवाल : भारतीय सिनेमा के 100 वर्षों में गांधी के सिद्धांतों के महत्व को प्रतिबिंबित करने का यह विचार क्यों है?
जवाब : जब मैंने इस विषय पर काम करना शुरू किया तो पाया कि हिंदी सिनेमा में गांधीवादी मूल्यों पर कई अध्ययन किए गए थे. लेकिन यह कम थे और ज्यादातर व्यक्तिगत फिल्मों के बारे में थे. ऐसा कोई अध्ययन नहीं था, जिसमें पूरे सिनेमाई इतिहास को शामिल किया गया हो.

सवाल :पुस्तक में दो विशिष्ट गुण-दोष की चर्चा है, इसके बारे में बताएं?
जवाब :यह एक विडंबना है कि गांधी को सिनेमा से नफरत थी, फिर भी सिनेमा में विशेष रूप से 1960 के दशक तक उनके सिद्धांतों का पालन देखने को मिलता है. उनकी पीढ़ी के अधिकांश लोगों ने सिनेमा को देखा. हमारे बुजुर्ग फिल्म निर्माण को मूर्खों का काम माना करते थे, लेकिन दूसरा तथ्य यह भी है कि कोई भी शोधकर्ता इतना दूर की नहीं सोच सकता है.

सवाल : आपने पैसिफिक एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन से डॉक्टरेट किया है, तो अन्य अध्ययन के बजाय आपने यह पुस्तक क्यों लिखी?
जवाब :यह पहली पुस्तक है जो हिंदी सिनेमा के पूरे इतिहास (1913-2013) के बारे में बताती है. इसके साथ ही पुस्तक में बताया गया है कि क्या आज के समय में गांधी के सिंद्धांत उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके जीवनकाल के दौरान थे. साथ ही यह बताया गया है कि सत्य, अहिंसा, सर्वधर्म समान, छूआछूत और स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल कभी महत्वहीन नहीं होंगे.

सवाल : इस पुस्तक को लिखते समय क्या चुनौतियां थीं?
जवाब :कई चुनौतियां थीं. सबसे पहले, 1930, 40 या 50 के दशक की फिल्मों के प्रिंट को ढूंढना था, जो कि मुश्किल काम था. दूसरा यह है कि किताबों में बताए गए गांधीवादी सिद्धांतों का चित्रण करने में काफी मेहनत लगी. इसके अलावा गांधी के जीवन का हर पल आपको किताबों में मिलता है, तो हमें उसमें से क्या लेना है और क्या नहीं यह हॉबसन पर निर्भर था.

सवाल : क्या आपको लगता है कि भारतीय सिनेमा में गांधी के सिद्धांत के साथ न्याय हुआ है, आपकी पसंदीदा फिल्म कौन सी है?
जवाब :1913 से 1960 तक ऐसी कई फिल्में थीं, जो गांधी विचारधारा, दर्शन और आदर्शों से प्रेरित थीं. जहां तक गांधीवादी मूल्यों का सवाल है तो यह सबसे स्वर्णिम दौर था. सुपरस्टार राजेश खन्ना एंग्रीयंग मैन अमिताभ बच्चन के आने के बाद सिनेमा कमर्शियल हो गया. हालांकि इस दौर में भी अंकुर, मंथन, लगान, स्वदेस, गांधी और हे राम जैसी फिल्मों ने गांधीवादी आदर्शों को बनाए रखा और यथार्थवादी सिनेमा की मुहर लगाई. इसके अलावा लगे रहो मुन्नाभाई में बापू के सिद्धांतों को गांधीगिरी के नाम से जीवित किया गया लेकिन यह लंबे समय तक टिक नहीं पाया.

भारतीय सिनेमा में अब तक गांधी के जीवन से जुड़ी कोई कंपलीट बायोपिक नहीं बनी है. रिचर्ड एटनबरो की फिल्म 'गांधी' में बापू के राजनीतिक संघर्ष को दिखाया गया था जबकि श्याम बेनेगल की 'महात्मा' में बापू के दक्षिण अफ्रीका में रुकने के बारे में थी. 'लगे रहो मुन्नाभाई' मेरी पसंदीदा फिल्म है. इसमें राजकुमार हिरानी गांधीवादी विचारों को जनता तक पहुंचाया है. मुझे स्वदेस, दो आंखें बारह हाथ और सत्यकाम फिल्म भी बेहद पसंद है.

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सवाल : आपके अनुसार ऐसी कौन सी फिल्में हैं, जिन्होंने गांधीवादी विचारों को अच्छे तरीके से व्यक्त किया है?
जवाब :फिर सुबह होगी, सत्यकाम, दो आंखें बराह हाथ, पड़ोसी, सुजाता और स्वदेस जैसी फिल्मों में गांधीवादी मूल्य और विचार देखने को मिलते हैं. हालांकि, राजा हरिशचंद्र जैसी फिल्में भी हैं, जो आज के युवाओं को पसंद नहीं हैं लेकिन आज के दौर में भी प्रासंगिक है. हमें याद रखना चाहिए कि सिनमें का एक उद्देश्य शिक्षित करना भी है.

सवाल :आज व्यवसायिक और लिंग केंद्रित फिल्में बनाई जा रही हैं. क्या आपको लगता है इस पुस्तक के बाद फिल्मों में गांधीवादी विचार फिर से देखने को मिलेंगे यह यह सिर्फ एक जीवनी बनकर रह जाएगी?
जवाब :मेरा उद्देश्य फिल्म निर्माताओं को प्रेरित करना नहीं है. इसके जरिए इतिहास का ईमानदारी मूल्यांकन किया गया है. पुस्तक प्रासंगिक होगी क्योंकि यह जिन मूल्यों के बारे में बात करती है वे हमेशा के लिए प्रासंगिक होंगे.

सवाल :आज देश में दक्षिणपंती राजनीति अपने चरम पर है, क्या आपको लगता है कि पुस्तक को आलोचना का सामना करना पड़ सकता है?

जवाब :गांधी न तो वामपंथियों के थे और न ही दक्षिणपंथियों के. दोनों ही विचारधारा के लोग बापू का सम्मान करते हैं. मैं किसी भी आलोचना का समर्थन नहीं करता.

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Last Updated : Jun 15, 2020, 9:04 PM IST

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