किसी ने यह सोचा ही नहीं था कि भारत के निकटतम पड़ोसी और सहयोगी नेपाल को भारत के साथ विवादित भूमि पर दावा जताने के लिए पुराने औपनिवेशिक समझौतों और हिस्सेदारी का फिर से सहारा लेना होगा. उसने जल्दबाजी में अपनी संसद में एक विधेयक ला कर तीन स्थलों, कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल में शामिल कर लिया. इस अप्रत्याशित घटना ने नई दिल्ली को उलझन में डाल दिया कि वह इस पर कैसी प्रतिक्रिया दे. गुस्सा दिखाए, तिरस्कार करे या उदासीन रहे. भारत की उलझन इसलिए भी बढ़ गई क्योंकि चीन ने न केवल अपनी सेना को वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब तैनात कर दिया, बल्कि उसने अनांकित सीमा की सुरक्षा के लिए भारत की कितनी तैयारी है, इसकी भी परीक्षा लेनी शुरू कर दी.
जून 15 को जो हुआ और जिस ढंग से भारत ने चीन के नियंत्रण रेखा और इलाके पर उसके दावे को मान लिया, इसका प्रभाव इस बात पर पड़ेगा कि अब नेपाल कैसे भारत को जमीनी सीमा के सवाल को लेकर चुनौती देगा.
आखिर क्यों इस मोड़ पर नेपाल ने विवादित सीमा पर अपने दावे को मजबूती से रखने का तय किया ? क्या इस मुद्दे को उठाने के पीछे नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली का हाथ था, जो अपनी घरेलू समस्याओं से जनता का ध्यान भटकाना चाहते थे या फिर चीन ने उन्हें ऐसा करने को प्रेरित किया जो आक्रामक रूप से इस भूखंड पर भारत के प्रभाव को कमतर करने की कोशिश में है ? जहां नेपाल की विवादित जमीन को हड़पने की कोशिश का समय चीन से संबंधित लग सकता है. वहीं कई कारण इस बात को भी सूचित करते हैं कि ओली के निर्णय के मूल में किसी अन्य कारणों के बदले नई दिल्ली के साथ उनके असहज संबंध हों.
भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे और ओली के दिमाग में जो चल रहा है. उस पर अनुमान लगा कर यह सोचना गलत था कि नेपाल की आक्रामकता के लिए चीन दोषी है. हालांकि इस पर बाद में थोड़ी पीछे हट की गई, लेकिन इस बात ने कि एक सार्वभौमिक मित्र देश, कोई स्वतंत्र निर्णय लेने के काबिल नहीं है, काठमांडू के सत्तारूढ़ गलियारे में हंगामा खड़ा कर दिया.
इसके बाद नेपाल सरकार ने उन तीन जगहों को अपने देश में तत्काल शामिल कर लिया, जिन पर भारत का दावा था. नेपाल ने भारत की प्रतिक्रिया की परवाह तक नहीं की और न ही इस बारे में किसी प्रकार की बातचीत करने का सुझाव रखा. ओली सरकार ने संसद में विधेयक पारित होने के बाद जा कर नई दिल्ली से यह कह कर संपर्क किया कि अब वह भारत से बात करने को तैयार है. नेपाल में भारत के एक पूर्व राजदूत ने कहा, 'अब इस बारे में बात करने को बचा ही क्या है. वैसे बात करने को बहुत है अगर भारत इस बारे में आत्मचिंतन करे कि क्यों नेपाल में भारत के प्रति इतनी कटुता है और क्यों विवादित जगहों के औपचारिक अधिग्रहण को ले कर नेपालियों में इतना उत्साह दिखाई दे रहा है.