भारत के गणतंत्र के रूप में उभरने के 70 साल बाद यह सवाल आज भी उठता है कि, "क्या प्यार एक अपराध है?" प्रेम विवाह जिसमें धर्म परिवर्तन शामिल हो, ऐसी शादियों को आज ‘लव जिहाद’ के तौर पर देखा जा रहा है. साथ ही इस तरह की शादियों को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में एक अध्यादेश लाया गया है.
ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड में पहले से ही धर्मांतरण के खिलाफ कानून पारित हो चुके हैं. उन कानूनों में कहा गया है कि बलपूर्वक या प्रलोभन या छल से धर्मांतरण में लिप्त पाए जाने पर दंडित किया जाना चाहिए. उत्तरप्रदेश के कानून में आगे कहा गया है कि उपरोक्त राज्यों के कानूनों के अलावा, शादी के नाम पर दूसरे धर्म में शामिल करवाना भी दंडनीय है.
यह आदित्यनाथ की सोच थी जब वे हिंदू युवा वाहिनी के अध्यक्ष थे
हालांकि, यह दावा किया जाता है कि नवीनतम कानूनी अध्यादेश न्यायमूर्ति मित्तल की अध्यक्षता में स्टेट लीगल सोसायटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर जारी किया गया है, वास्तव में यह सोच योगी आदित्यनाथ की ही थी जब वे हिंदू युवा वाहिनी के अध्यक्ष थे. नया कानून कहता है कि यदि कोई भी अपना धर्म बदलने का इरादा रखता है, उसे दो महीने पहले जिला मजिस्ट्रेट को आवेदन करना अनिवार्य होगा. कानून आगे कहता है कि यदि धर्मांतरण के एकमात्र उद्देश्य से इस कानून के खिलाफ जाकर विवाह किया जाता है, और यदि शादी से पहले या बाद में लड़की का धर्म परिवर्तन किया जाता है, तो ऐसी शादी मान्य नहीं होगी.
जीवनसाथी चुनना व्यक्तिगत मामला
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यूपी का अध्यादेश 2018 में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का साफ़ तौर पर उल्लंघन करता है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संविधान के 21वें अनुच्छेद के तहत कोई भी शख्स किसी से भी व्यक्ति के साथ विवाह करने के लिए स्वतंत्र है. यही कारण है कि जस्टिस मदन लोकुर इस बात का पुरजोर विरोध कर रहे हैं कि यूपी अध्यादेश व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन करता है. साथ ही जीवनसाथी का चयन करना हर नागरिक का व्यक्तिगत मामला है.
नैतिक सिद्धांतों को नहीं करना चाहिए प्रभावित
भारत में धर्म के प्रचार को लेकर संविधान सभा में विस्तृत चर्चा हुई थी, जहां हर धर्म के लोगों का प्रतिनिधित्व था. ईसाई धर्म के प्रचार के अनुरोध को मानते हुए, धर्मांतरण से संबंधित वस्तु को संविधान में शामिल नहीं किया गया और इसे विधान सभाओं के विवेक पर छोड़ दिया गया था, लेकिन कानून और व्यवस्था, धार्मिक उपदेशों के कारण नैतिक सिद्धांतों को प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए.
ओडिशा और मध्य प्रदेश में 1967-68 में बना कानून
जबकि, ओडिशा और मध्य प्रदेश में 1967-68 में धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाया जा चुका है. सर्वोच्च न्यायलय ने 1977 में उनका समर्थन किया था. यह स्पष्ट किया गया था कि जब तनाव अधिक हो जाये, तो सरकारों को उन पर प्रतिबंध लगाने का पूरा अधिकार है. जबकि, भारत वर्ष में 36 हजार अंतर-धार्मिक विवाह होते हैं, जिनमें से लगभग 1/6 उत्तर प्रदेश में हो रहे हैं. विशेष जांच दल (एसआईटी) की रिपोर्ट इस बात की गवाही देती है कि उत्तर प्रदेश में इस तरह के विवाहों के कारण सामाजिक तनाव बढ़ रहा है.
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अदालत को करनी चाहिए निष्पक्ष मध्यस्थता
चिंता का विषय यह है कि धोखेबाज़ी या ज़बरदस्ती धर्मांतरण के बहाने, जो विवाह बड़ों की मंजूरी के साथ हो रहे हैं, उन्हें सख्त कानूनों के माध्यम से भी रोका जा रहा है. कई मौक़ों पर अदालतों ने कहा है कि अगर कोई अपना धर्म बदलता है, तो अन्य धार्मिक आस्थाओं के साथ सामंजस्य कायम होता है, जोकि अनुच्छेद 25 में शामिल मौलिक अधिकार के तहत आता है और प्रत्येक युवा को अपना जीवनसाथी चुनने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है. सर्वोच्च न्यायलय में उत्तर प्रदेश सरकार की जल्दबाजी में किए गए गलत फैसले के खिलाफ एक जनहित याचिका दायर की गई थी. जिसमें कहा गया था कि विधान निकायों को लोगों के मौलिक अधिकारों में संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है. केवल एक महीने में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अंतर-जाति, अंतर-धर्म के आधार पर शादी करने वाले 125 जोड़ों को संरक्षण देने का आदेश दिया है. इस संदर्भ में, ‘लव जिहाद’ के नाम से बदनाम किए जाने वाले विवाहों के खिलाफ इस तरह की जल्दबाजी में अदालतों को निष्पक्ष मध्यस्थता करनी चाहिए.