4 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर में दूरसंचार और इंटरनेट सेवाओं को निलंबित करने का आदेश दिया, जिससे अचानक लगभग एक करोड़ नागरिकों के सामने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल खड़ा हो गया. वह किसी से भी ऑनलाइन संपर्क नहीं कर सकते थे. सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंट्रे के इंटरनेट शटडाउन ट्रैकर के अनुसार जम्मू और कश्मीर ने पिछले सात वर्षों में 180 से अधिक बार आंशिक या पूर्ण इंटरनेट बंद का सामना किया है.
सबसे लंबे समय तक लिए बैन
यह संख्या इस बात के संकेत हैं कि राज्य में संचार अवरोधक घटना एक सामान्य बात हो गई है, लेकिन शायद कश्मीरियों को भी इसका अनुमान नहीं रहा होगा कि वह एक लोकतांत्रिक देश द्वारा लगाए गए सबसे लंबे समय तक इंटरनेट बंद का सामना करेंगे.
लोकतांत्रिक भागीदारी के लिए आवश्यक
आज की तारीख में इंटरनेट लोकतांत्रिक भागीदारी के लिए एक आवश्यक उपकरण बन गया है. नेटवर्क के बुनियादी ढांचे के नुकसान से सामाजिक और आर्थिक दोनों नुकसान होते हैं. छात्रों को महत्वपूर्ण शैक्षिक संसाधनों तक पहुंच से वंचित कर दिया जाता है. अस्पतालों और आपातकालीन सेवाओं को एक प्रशासनिक तबाही का सामना करना पड़ता है. स्थानीय व्यवसाय पर इसका बुरा असर पड़ता है.
इंटरनेट बंद करने हिंसा में बढ़ावा
स्कॉलर जन राइडजक ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि इंटरनेट बंद करने से सार्वजनिक व्यवस्था और शांति सुनिश्चित हो जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है. उनका तर्क है कि शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करने के दौरान समन्वय के लिए इंटरनेट की आवश्यकता होती है. इसके बजाए अगर उस पर पाबंदी लगा देंगे, तो हिंसा की संभावना बढ़ जाती है.
कश्मीरी टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन ने सुप्रीम कोर्ट से सामने अपनी याचिका में इस विषय को उठाया है. इस विशेष परिस्थिति ने नागरिक समाज की चिंताओं को गंभीर बना दिया. क्योंकि सरकार ने कानून की उपेक्षा की. सरकार अदालत के सामने भी पाबंदी को कानून के दायरे में साबित करने में असफल रही. 10 जनवरी, 2020 को अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने बुनियादी संवैधानिक सिद्धांतों की पुष्टि की. भविष्य में इस तरह के उठने वाले मामलों के लिए एक प्रगतिशील मिसाल कायम की. इस आदेश में कोर्ट ने इस बात की पुष्टि की है कि संविधान अनुच्छेद 19 के माध्यम से भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और किसी भी पेशे का अभ्यास करने या किसी भी (इंटरनेट) माध्यम पर कब्जे की स्वतंत्रता की रक्षा करता है.
अनिश्चित काल के लिए नहीं हो सकता इंटरनेट शटडाउन
कोर्ट ने माना कि इंटरनेट शटडाउन को अनिश्चित काल के लिए लागू नहीं किया जा सकता है. हर हफ्ते इसकी समीक्षा की जानी चाहिए. यह आदेश न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं. इस आदेश के बाद यह कहा जा सकता है कि भविष्य में कभी भी इंटरनेट शटडाउन की स्थिति आती है, तो आप इसे चुनौती दे सकते हैं. कश्मीरी नागरिकों को आंशिक राहत तो मिली, लेकिन कोर्ट से उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं.
केवल 301 वेबसाइटों तक पहुंच की अनुमति
कोर्ट द्वारा यह निर्णय दिए जाने के तुरंत बाद जम्मू और कश्मीर सरकार ने इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को टूजी इंटरनेट सेवाओं को बहाल करने के आदेश जारी किए. हालांकि केवल 301 वेबसाइटों तक पहुंच की अनुमति दी गई. इनमें जिस वेबसाइट का चयन किया गया है, उसे लेकर भी सवाल उठ रहे हैं. कई प्रमुख सेवाओं को छोड़ दिया गया. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इंटरनेट रेगुलेशन का यह अंश बहुत कम समझ में आता है, जब आप इंटरनेट या इसे संचालित करने वाले नियमों पर विचार करते हैं.
वेब नियमों को नहीं समझा गया
तकनीकी अर्थों में बात करें, तो वेब नियन किस तरह से काम करता है, इसे ठीक तरीके से नहीं समझा गया है. जब कोई भी यूजर किसी वेबसाइट से जुड़ता है, तो यह वेबसाइट अक्सर अन्य सर्वरों से सिस्टम डाउनलोड को महत्वपूर्ण संसाधन बनाती हैं. यदि इंटरनेट सेवा प्रदाता केवल विशिष्ट वेबसाइटों की अनुमति देते हैं, तो अन्य अप्रकाशित स्रोतों से सामग्री अभी भी अप्राप्य है. रोहिणी लखनसेन और प्रतीक वाघरे के हालिया प्रयोग ने इस अनुभव की पुष्टि की. सूची में 301 वेबसाइटों में से केवल 126 ही किसी न किसी रूप में प्रयोग करने योग्य थीं.
इस आदेश के लिए विधायी आधार को लेकर भी विवाद है. यह आदेश औपनिवेशिक युग के भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम के तहत 2017 में जारी किए गए टेंपरेरी सस्पेंशन ऑफ टेलीकॉम सर्विसेज (पब्लिक इमरजेंसी या पब्लिक सेफ्टी) नियमों का हवाला देता है.
यह नियम सरकार को दूरसंचार और इंटरनेट सेवाओं को बंद करने की अनुमति देते हैं, लेकिन सरकार को ऐसे आदेश जारी करने की अनुमति नहीं देते हैं जो इस तरह के 'श्वेतसूची' की अनुमति देते हैं. सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम, अर्थात धारा 69 ए के माध्यम से, केंद्र सरकार और अदालतों को कुछ वेबसाइटों को अवरुद्ध करने का आदेश देने की अनुमति देता है. यहां तक कि सरकार द्वारा इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को जारी किए गए लाइसेंस समझौते ही सरकार को राष्ट्रीय सुरक्षा के आधार पर कुछ निश्चित ऑनलाइन संसाधनों को अवरुद्ध करने का आदेश देते हैं. इसलिए, वेबसाइटों के एक 'श्वेतसूची' के आदेश का कानून में कोई आधार नहीं है क्योंकि यह केवल वेबसाइटों को अवरुद्ध करने के तर्क को आधार देता है.
इंटरनेट सेंसरशिप को रोकने के लिए कोई कानून नहीं
कश्मीरियों द्वारा वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क (वीपीएन) का उपयोग करके 'श्वेतसूची' को दरकिनार करने का एक तरीका मिलने के बाद, रिपोर्टें सामने आईं कि सुरक्षा बल इन आवेदनों की स्थापना रद्द करने के लिए कश्मीरियों को मजबूर कर रहे थे. इस तथ्य के बावजूद कि वीपीएन के उपयोग को रोकने या सामान्य रूप से इंटरनेट सेंसरशिप को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है.
कश्मीरियों को बुनियादी अधिकारों से वंचित करना गलत
कश्मीर में इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं को निलंबित किए जाने में अब लगभग सात महीने हो गए हैं. लंबे समय तक कश्मीरियों को बुनियादी अधिकारों से वंचित करना गलत है. आगे भी ऐसा हो, तो इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता है. पूर्ण रूप से बंद होने के महीनों के बाद केवल सीमित और आंशिक पहुंच बहाल करने से बेहतर स्थिति हो सकती है, ऐसा नहीं है. इसमें संशोधन आवश्यक है. आज हमें पूरी दुनिया देख रही है. इतिहास उन लोगों को माफ नहीं करेगा, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा और सार्वजनिक व्यवस्था के नाम पर नागरिकों के अधिकारों के पर कतरे हैं.
(लेखक- गुरशबद ग्रोवर, सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के प्रमुख)