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विशेष लेखः आर्थिक उदासीनता के साए में राज्य

जैसे-जैसे देश में आर्थिक सुस्ती बढ़ती जा रही है, राज्य सरकारों की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती चली जा रही है. केन्द्र सरकार को आर्थिक मोर्चे पर अभी बहुत कुछ करना है. सरकार किस हद तक सफल हो सकेगी, अभी कुछ कहना मुश्किल है. इस बीच राज्य सरकारों ने केन्द्र पर लगातार दबाव बना रखा है कि उन्हें टैक्स में और अधिक भागीदारी चाहिए. विस्तार से पढ़ें एक विश्लेषण

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Published : Nov 28, 2019, 9:26 AM IST

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आर्थिक उदासीनता के दौर से गुजर रहे राज्य

आर्थिक मंदी पिछले कुछ समय से लोगों के जीवन पर ऐसा असर डाल रही है कि अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही है. बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां जा रही हैं. लाखों परिवार आर्थिक दिक्कतों का सामना कर रहे हैं. ये संकट देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी खबर नही है. लोगों की खर्च करने की क्षमता में भारी गिरावट देखने को मिली है. लोग खरीददारी या तो कर नहीं पा रहे हैं या इसकी तरफ रुझान नहीं दिखा रहे हैं. इसी खरीददारी से सरकारी खजानों में कर के रूप में पैसे आते हैं.

बड़े उद्योगों में भी नये निर्माण पर ब्रेक से लग गये हैं. इसके चलते मांग और पूर्ति में भी फासला बढ़ गया है. इन कारणों से जीएसटी से सरकारी कमाई में भारी गिरावट आई है. नतीजतन केंद्र और राज्य सरकारों के सामने आर्थिक संकट खड़ा हो गया है.

जीएसटी कानून के मुताबिक, 14% से कम टैक्स जमा करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के नुकसान की भरपाई केंद्र सरकार को करनी पड़ेगी. ये भरपाई केंद्र सरकार द्विमासिक किस्तों में करती है. इस साल जून-जुलाई में केंद्र सरकार ने राज्यों को 28 करोड़ की भरपाई की है.

इसके अलावा अगस्त-सिंतबर की किस्त के रूप में राज्यों को और 40 करोड़ की रकम दी जानी थी, जो अभी तक नहीं दी गई है. इसके चलते अब राज्यों में परेशानी दस्तक देने लगी है. केरल के पास ओवरड्राफ्ट की सुविधा है, लेकिन राज्य सरकार अब तक अपनी क्रेडिट लिमिट को पार चुकी है, और अब उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा है.

जीएसटी लागू होने के बाद, पांच राज्य- दिल्ली, राजस्थान, पंजाब, केरल और पश्चिम बंगाल ने पहली बार जीएसटी काउंसिल की मीटिंग की मांग की है.

इसका मकसद जीएसटी के कई पहलुओं पर पुनर्विचार करना है. मौजूदा सिस्टम में मंदी के कारण कॉरर्पोरेट टैक्स राज्य सरकार के खाते में नहीं आ रहा है, इसलिये अब राज्य सरकारें अपने काबू से बाहर समस्याओं के निवारण के लिये केंद्र सरकार की तरफ देख रहीं हैं.

इस साल, ये अनुमान है कि केंद्र सरकार को कर से होने वाली कमाई में करीब 2 लाख करोड़ की कमी आयेगी. जानकारों को 15वीं फाइनेंस कमीशन की रिपोर्ट से इन हालातों के सुधरने की उम्मीद थी, हालांकि अगर मौजूदा जानकारी पर यकीन करें, तो एनके सिंह के नेतृत्व वाले फाइनेंस कमीशन की रिपोर्ट आने में अभी और समय लगेगा, इससे राज्यों को और नुकसान है.

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14 वें फाइनेंस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा जमा किये गये कर में राज्य सरकारों के हिस्से को 42% तक करने का सुझाव दिया था. इसे तत्कालीन एनडीए सरकार ने मान भी लिया. लेकिन 2017 में गठित 15वें फाइनेंस कमीशन ने राज्यों के हिस्से को कम करने की सिफारिश की है. इसके लिये मोदी सरकार ने केंद्र सरकार पर बढ़ती जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए राज्यों के हिस्से को कम करने की बात कही है.

इससे पहले बीजेपी शासित गुजरात सरकार ने समय-समय पर इस बात को उठाया था कि 42% हिस्सेदारी भी राज्य के आर्थिक विकास को गति देने के लिये नाकाफी है. केंद्र सरकार ने देश की रक्षा और सुरक्षा के बढ़ते बजट का हवाला देते हुए कमीशन से राज्यों के हिस्से को कम करने को कहा है. इसके लिये केंद्र सरकार ने रक्षा मंत्रालय का भार राज्य सरकारों के साथ बांटने की भी बात कही है.

इस वजह से 'सुरक्षा निधि' का खांचा सामने आया. इस योजना के तहत भारत सरकार की पूरी कमाई का एक हिस्सा अलग करने के बाद, बचे हुए हिस्से को केंद्र और राज्य सरकरों के बीच बांटा जायेगा. इस योजना के बारे में कई स्तरों पर गंभीर चिंतन किया जा रहा है. इसके कारण राज्यों पर और ज्यादा बोझ पड़ने का अंदेशा है. इसका अर्थ है कि आम आदमी पर और अधिक बोझ बढ़ेगा.

प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष समय-समय पर कई विवादस्पद मुद्दे उठाते रहे हैं. जैसे जब राज्यों के स्वास्थ्य संबंधी खर्चे केंद्र सरकार उठा रही है, तो ऐसे में क्यों नहीं राज्य सरकारें देश की रक्षा और सुरक्षा के खर्चों में हिस्सदारी ले ?

हांलाकि इस संबंध में मौजूदा जमीनी हकीकत अलग है. जहां एक तरफ केंद्र सरकार टैक्स की कमाई में से सबसे ज्यादा हिस्सा लेती है, विकास से संबंधित सभी कार्यों को पूरा करने की जिम्मदारी राज्य सरकारों के ऊपर आती है. एक बेहतर आर्थिक संधीय ढांचे के लिये हर पांच साल में फाइनेंस कमीशन बना कर फंड के बंटवारे को लेकर नियम कायदे बनाने का प्रचलन है.

केंद्र सरकार अपनी कमाई अलग-अलग तरह के सेस लगाकर बढ़ा रही है. दशकों से केंद्र पोषित योजनाओं को राज्य सरकारों के खर्चों से जोड़ा जाता रहा है, इससे राज्य सरकारों की आर्थिक और कार्मिक जिम्दारी हो जाती है, मगर योजनाओं को लेकर अधिकार केंद्र सरकार का ही रहता है.

मोदी सरकार के कार्यकाल में केंद्र सरकार द्वारा पोषित योजनाओं में कमी आई है. वहीं राज्यों पर आर्थिक बोझ बढ़ता जा रहा है. इसके ऊपर से केंद्र सरकार से मिलने वाली रकम में देरी परेशानियों को और बढ़ा रही है. फाइनेंस कमीशन के सुझावों को 2020-2025 के बीच लागू किये जाने की उम्मीद है.

इस दौरान अनुमान है कि केंद्र सरकार की आय 175 लाख करोड़ तक पहुंच जायेगी. हांलाकि ये अभी साफ नहीं है कि आर्थिक मंदी का ये दौर कब तक रहेगा. जब तक केंद्र को सेस के रूप में पैसा जाता रहेगा, और राज्य सरकारें नुकसान सहन करती रहेंगी, आर्थिक संतुलन बना पाना बेहद मुश्किल होगा.

वहीं केंद्र सरकार ने लोक लुभावन योजनाओं को बनाने और तैयार करने की जिम्मेवारी 15वें फाइनेंस कमीशन पर डाल दी है. अब ये कमीशन के ऊपर है कि वो ऐसी योजनाओं को तैयार करे, जो सही मायनों में राज्यों और लोगों को फायदा पहुंचाये, न कि चुनावी लिहाज से लोकलुभावन योजनाएं बनकर रह जाएं. जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक राज्य सरकारों के लिये इस आर्थिक संकट से निकल कर अपने लोगों पर ध्यान देना मुमकिन नहीं हो सकेगा.

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