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कृषि कानूनों के खिलाफ विधेयक में महज राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति

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Published : Oct 21, 2020, 10:04 PM IST

Updated : Oct 21, 2020, 11:06 PM IST

कृषि सुधार कानूनों के खिलाफ पंजाब सरकार ने विधेयक पारित किए हैं. इसके बाद अन्य गैर भाजपा शासित राज्य भी इन कानूनों के खिलाफ विधेयक पारित कर सकते हैं. इस पर ईटीवी भारत ने कृषि विशेषज्ञ और भारतीय कृषि एवं खाद्य परिषद के अध्यक्ष एमजे खान से खास बातचीत की. उन्होंने कहा कि विधानसभा में पारित संशोधन विधेयक अब भी प्रस्तावित हैं, लेकिन कोई भी राज्य सरकार केंद्र के द्वारा बनाए गए कानून को रद्द नहीं कर सकती है. पढ़ें पूरी खबर...

एमजे खान
एमजे खान

नई दिल्ली : केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि सुधार कानूनों के विरोध में पंजाब सरकार ने मंगलवार को तीन संशोधन विधेयक विधानसभा में पारित किए. अब राजस्थान सरकार और महाराष्ट्र सरकार भी इसी तर्ज पर विधेयक लाने की तैयारी कर रही है और ऐसी जानकारी है कि गैर एनडीए शासित अन्य राज्य जो इन कानूनों के खिलाफ हैं. वह भी विधानसभा सत्र बुला कर संशोधन विधेयक ला सकते हैं.

हालांकि, विधेयक को कानून में तब्दील करने के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी भी आवश्यक है, लेकिन इस बात की संभावना नगण्य मानी जा रही है कि राज्य सरकारों के इस कदम को राज्यपाल और राष्ट्रपति का समर्थन मिले. ऐसे में अगला कदम यह है कि राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट का रुख करेंगी.

एमजे खान से खास बातचीत

इन परिस्थितियों में पंजाब सरकार या आगे किसी भी राज्य सरकार द्वारा लाए गए विधेयक का व्यावहारिक महत्व क्या होगा यह सवाल उठ रहे हैं. कृषि सुधार कानूनों के विरोध में पंजाब और हरियाणा में सबसे ज्यादा आंदोलन देखे जा रहे हैं और देश के अन्य राज्यों में भी किसान संगठनों का समर्थन मोदी सरकार के कानून के पक्ष में नहीं है. तमाम परिस्थितियों को देखते हुए गैर एनडीए सरकार द्वारा इन कानूनों के विरोध में विधानसभा में विधेयक पारित करने को कुछ विशेषज्ञ महज राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति मान रहे हैं.

ईटीवी भारत ने इस विषय पर कृषि विशेषज्ञ और भारतीय कृषि एवं खाद्य परिषद के अध्यक्ष एमजे खान से खास बातचीत की.

इस दौरान एमजे खान ने कहा है कि विधानसभा में पारित संशोधन विधेयक अब भी प्रस्तावित हैं, लेकिन कोई भी राज्य सरकार केंद्र के द्वारा बनाए गए कानून को निरस्त नहीं कर सकती है.

अंततः राज्य सरकार के विधेयक केंद्र के पाले में आएंगे और केंद्र की मंजूरी न मिलने के बाद राज्य सरकारें न्यायालय का रुख करेंगी. यह मुद्दा अब किसानों के आंदोलन से हट कर राजनीतिक नफा नुकसान पर आ गया है और ऐसे में विपक्षी दल यह चाहेंगे कि यह आंदोलन लंबे समय तक चलता रहे, ताकि वह केंद्र सरकार के खिलाफ किसान विरोधी होने की एक भावना लोगों में भर सकें.

केंद्र सरकार को कांग्रेस और उसके गठबंधन सरकार वाले राज्यों में ऐसा होने से ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ेगा, लेकिन अगर अन्य दलों द्वारा शासित राज्यों से भी इस तरह के प्रस्ताव आने लगे तब केंद्र सरकार को इसके बारे में सोचना पड़ेगा.

किसानों की मांग आज भी दो बिंदुओं पर आ कर अटकी हुई है, पहला न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी प्रावधान बनाने की और दूसरा एमएसपी से कम में खरीद पर सजा का प्रावधान.

पंजाब और हरियाणा में गेहूं और धान की 98% फसल सरकार द्वारा एमएसपी पर ही खरीदी जा रही है और अमरिंदर सरकार द्वारा पंजाब विधानसभा में पारित एमएसपी से संबंधित विधेयक यह कहता है कि यदि कोई व्यापारी किसानों को गेहूं या धान एमएसपी से कम दर पर खरीदने के लिए बाध्य करता है तो उसे तीन साल की सजा हो सकती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब पहले ही लगभग पूरी फसल एमएसपी पर खरीदी जा रही है, तो केवल गेहूं और धान के लिए इस कानून की क्या आवश्यता थी?

एमजे खान कहते हैं कि पंजाब सरकार किसानों को यह भरोसा दिलाना चाहती है कि वह किसानों के साथ मजबूती से खड़ी है. दूसरा उद्देश्य है कि यदि प्राइवेट कंपनियां आएंगी, तो वह भी एमएसपी पर खरीद करने को बाध्य होंगी. किसान भी यही मांग कर रहे हैं.

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उन्होंने कहा कि ऐसा माना जा रहा है कि केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कानूनों के बाद प्राइवेट सेक्टर बड़े स्तर पर किसानों तक पहुंचेगा और उनके फसल की खरीद भी करेगा. आम तौर पर यह देखा जाता है कि व्यापारी किसान से औसतन 500 रुपये प्रति क्विंटल कम कीमत पर खरीदता है. बतौर उदाहरण अभी कई जगहों से शिकायतें आ रही हैं कि धान की खरीद 1100 से 1200 रुपये प्रति क्विंटल मंडियों में जा रही हैं, जो तय एमएसपी से 500 रुपये से भी कम है. किसानों में आम अवधारणा यह है कि जब पहले ही व्यापारी कम कीमत पर खरीद कर रहे हैं, तो जब बड़े पैमाने पर प्राइवेट कंपनियां बाजार में उतरेंगी तब भी यही परिस्थिति बनी रहेगी. ऐसे में कंपनियों की चांदी होगी, लेकिन किसानों को नुकसान उठाना पड़ेगा.

एमएसपी के कानूनी प्रावधान के बाद किसानों को इस बात की सुरक्षा होगी कि उनसे कोई भी तय कीमत से कम पर खरीद नहीं कर सकेगा.

प्रतिस्पर्धी बाजार की बजाय कानूनी बाध्यता के आ जाने के बावजूद भी निजी कंपनियां किसानों तक पहुंचने में दिलचस्पी दिखाएंगी? केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कानूनों का मूल उद्देश्य कृषि क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देना है. ऐसे में राज्य सरकारों द्वारा विरोध से क्या प्राइवेट सेक्टर कृषि से दूरी बनाए रखना ही ठीक समझेगा?

इस सवाल पर विशेषज्ञ कहते हैं कि सरकार और किसान चाहे, तो बीच का रास्ता निकाल सकते हैं. यदि एमएसपी को थोड़ा नीचे लाया जाए और उस दर पर खरीद के लिए कानून हो उस परिस्थिति में प्राइवेट कंपनी को भी लाभ मिल सकेगा और किसानों से शत प्रतिशत खरीद भी सुनिश्चित की जा सकती है.

उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से एक मामला सामने आया जिसकी वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल हुई थी. वीडियो में डीएम ने खुद 1150 रुपये प्रति क्विंटल पर धान की खरीद करते हुए व्यापारी को पकड़ा था, लेकिन उसके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं हो सकी.

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यदि एमएसपी घोषित करने में किसानों और व्यापारियों की रजामंदी के साथ ऐसी कीमत तय की जाए, जिसमें खरीददार और किसानों दोनों के फायदे को ध्यान में रखा जाए और उसके बाद कानूनी प्रावधान कर दिया जाए, उस परिस्थिति में किसानों से तय कीमत पर शत प्रतिशत खरीद सुनिश्चित की जा सकती है, जिससे सभी किसानों का बराबर फायदा होगा साथ ही व्यापारियों को भी कुछ मुनाफे का अवसर होगा.

राज्य सरकारों द्वारा इस तरह के विधेयक लाने से क्या केंद्र सरकार पर दबाव बना सकता है या सिर्फ राजनीतिक संदेश के लिये विपक्षी दल यह पैंतरा आजमा रहे हैं?

इस पर एमजे खान ने कहा कि जब तक विरोध और आंदोलन में किसान सामने हैं तब तक केंद्र के लिए चिंता का विषय हो सकता है, क्योंकि केंद्र सरकार नहीं चाहेगी कि किसान विरोधी छवि किसी भी तरह से बनाई जाए, लेकिन यदि इस पर अत्यधिक राजनीति होती है तो सरकार दबाव में नहीं आएगी.

कुल मिलाकर पंजाब सरकार के द्वारा लाए गए विधेयक जो आगे राजस्थान, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य भी ले कर आ सकते हैं. उनका मूल उद्देश्य किसानों को इस बात के लिए मनाना है कि प्रमुख राज्यों में जो गैर एनडीए सरकारें हैं, वह किसानों के साथ खड़ी हैं, जबकि भाजपा और एनडीए किसान विरोधी हैं.

Last Updated : Oct 21, 2020, 11:06 PM IST

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