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गतिमान भू राजनीतिक समीकरण को सावधानी से परखने की जरूरत : विष्णु प्रकाश - विश्वव्यापी कोरोना महामारी

भू राजनीति और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था ने पहले शायद ही कभी इतना उतार-चढ़ाव और अनिश्चितता देखी हो, जितनी आज देख रही है. चाहे वह सुरक्षा प्रतिबद्धता हो, व्यापार व्यवस्था हो, बहुपक्षीय सम्बन्ध या समझ हो. किसी भी विषय में स्थायीपन नहीं रहा और न ही पूर्वानुमान लगा पाना संभव है. विश्वव्यापी कोरोना महामारी ने परिस्थिति को और भी गंभीर बना दिया है. इस परिस्थिति के लिए दो व्यक्ति जिम्मेदार हैं - अमेरिका के 45वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, जो 2017 मध्य जनवरी में सत्ता में आए, और 2012 से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 'सम्राट' शी जिनपिंग.

डोनाल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग
डोनाल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग

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Published : Jun 30, 2020, 11:34 AM IST

Updated : Jun 30, 2020, 12:19 PM IST

परंपराओं को तोड़ने वाले (iconoclast) शख्स की पहचान बन चुके अमरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका को फिर से महान बनाने और 'सर्वप्रथम अमेरिका' के वादे के बल पर सत्ता में आए. उन्होंने खुले तौर पर साथी देशों पर अमेरिकी उदारता का लाभ उठाने का आरोप लगाया. उन्होंने जी7 और नाटो देशों को मुफ्तखोर कहा, जो अमेरिका द्वारा स्थापित शांति और सुरक्षा का लाभ लेते रहे औप जिनका आर्थिक बोझ मुख्यत: अमेरिका को उठाना पड़ा क्योंकि ये देश खर्च में अपना बराबर का हिस्सा नहीं दे रहे थे. इनकी हिकारत करते हुए ट्रंप ने कहा कि ये देश अपने सकल घरेलू उत्पाद का एक प्रतिशत भी रक्षा पर खर्च नहीं करते थे.

ट्रंप अपने पूर्ववर्ती की विरासत को उखाड़ फेंकने के प्रति कृत संकल्पित लगे. एक बवंडर की तरह उन्होंने वह सब उखाड़ फेंका, जिस पर बराक ओबामा की छाप थी. वह महत्वाकांक्षी टीपीपी (ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप) व्यापार समझौते, जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते और जेसीपीओएए (संयुक्त व्यापक योजना) या ईरान परमाणु समझौते से बाहर निकल गए. भले ही ईरान ईमानदारी से समझौते को लागू कर रहा था, ट्रंप ने उस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए. उन्होंने दुनिया के अधिकतर नेताओं और जर्मनी, फ्रांस, कनाडा और दक्षिण कोरिया सहित अमेरिका के सबसे करीबी देशों को भी नहीं बक्शा. लेकिन एक मामले में ट्रंप सही निकले – चीन से खतरे के बारे में! दिसम्बर 2016 में मनोनीत राष्ट्रपति बनने के बाद ही उन्होंने ताइवान के राष्ट्रपति के बधाई संदेश को स्वीकार कर अमेरिका की 35 साल से चली आ रही 'एक चीन नीति' को धता बताते हुए चीन से शत्रुता का एलान कर दिया.

ट्रंप ने ट्वीट कर कहा, 'ताइवान के राष्ट्रपति ने आज मुझे राष्ट्रपति पद के लिए जीत की बधाई दी. धन्यवाद! मजे की बात है कि जब अमेरिका, ताइवान को अरबों डॉलर के सैन्य उपकरण बेचता है तो, क्या मुझे उनसे एक बधाई कॉल भी स्वीकार नहीं करना चाहिए.' इससे चीन विचलित तो हुआ, लेकिन उसने कोई बड़ी हलचल मचानी नहीं चाही. इसलिए चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने इसे 'ताइवान की एक छोटी-सी शैतानी हरकत बताया' और कहा कि चीन, अमेरिका के साथ राजनीतिक नींव को हिलाना और बिगाड़ना नहीं चाहता. लेकिन ट्रंप ने अपना मन बना लिया था. उन्हें यकीन था कि चीन, जो एक मजबूत अर्थतंत्र पर खड़ा है, कई वर्षों से अमेरिका की खुली व्यवस्था का फायदा उठा रहा था. उन्होंने खुल कर चीन के साथ अमेरिका के 375 बिलियन डॉलर के घाटे के व्यापार की निंदा की. उन्होंने आरोप लगाया कि चीन अमेरिका के हितों के खिलाफ काम कर रहा है, औद्योगिक जासूसी कर रहा है, धूर्तता से उसकी हाई टेक कंपनियां हड़प रहा है और अपनी सैन्य ताकत दिखा रहा है. उन्होंने चीनी सामान पर जकात लगा दी, अमेरिकी उद्योगों को चीन से बाहर निकल जाने को कहा और चीन की सेना से सीधा संबंध रखने वाले सरकारी उपक्रमों जैसे हुअवेइ और जेड.टी.ई. पर प्रतिबंध लगा दिए.

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षा ने आग में घी डालने का काम किया. उन्होंने आंतरिक नियंत्रणों को कड़ा किया, भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के बहाने राजनीतिक विरोधियों को दबाने और असहमतिपूर्ण आवाज उठाने वालों की नकेल कसनी शुरू कर दी. शांतिपूर्ण प्रयासों का जामा उतार दिया. ताइवान, तिब्बत, हांगकांग और झिंजियांग को डराने और धमकाने की रणनीति अपनाई. दक्षिण चीन सागर के सैन्यीकरण की गति बढ़ा दी. बीजिंग ने जापान, ऑस्ट्रेलिया, आसियान देशों और भारत जैसे पड़ोसियों के साथ अनावश्यक आक्रामकता का प्रदर्शन किया.

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क्षेत्रीय महाशक्ति के रूप में अमेरिका का स्थान लेने के लिए 13.5 ट्रिलियन डॉलर अर्थतंत्र का दावा करने वाले चीन ने अपनी सेना का आधुनिकीरण शुरू कर दिया, गहरे समुद्र में जल सेना का विकास करना शुरू किया और भारत-प्रशांत महासागर क्षेत्र में सैनिक गढ़ बनाने शुरू कर दिए. साथ ही उसने बेल्ट और रोड कार्यक्रम के माध्यम से अपने निर्यात बढ़ाने के साथ-साथ विकासशील देशों को कर्ज के जाल में फंसाने का काम शुरू किया. अमेरिका के साथ वार्ता करते समय चीन ने खुद बलशाली होने का रुख अपनाया, जिस कारण वह अमेरिका की जाल में फंस गया. एक दादागिरी करने वाले को ट्रंप जैसा दादागिरी करने वाला मिल गया और ट्रंप ने बाजी पलट दी.

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा, 'यह स्पष्ट है कि चीन दुनिया के लिए एक खतरा बन चुका है क्योंकि वह अन्य की तुलना में अपनी सैन्यशक्ति ज्यादा तेजी से बढ़ा रहा है, वह भी अमेरिकी धन का इस्तेमाल कर.' उन्होंने उत्साहपूर्वक भारत-प्रशांत महासागर गठबंधन का विचार रखा, जिसमें चीन का कोई स्थान नहीं था. ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका चतुर्भुज के लिए वार्ता को सितम्बर 2019 में मंत्री स्तर तक ले जाया गया. अब अमेरिका इस चतुर्भुज को दक्षिण कोरिया, वियतनाम, न्यूजीलैंड और संभवतः फ्रांस को शामिल कर व्यापक बनाने की कोशिश कर रहा है.

मई, 2020 में ट्रंप ने जी7 में ऑस्ट्रेलिया, रूस, दक्षिण कोरिया और भारत को शामिल कर जी11 बनाने की मंशा जाहिर की, जिसमें चीन को स्पष्ट रूप से दूर रखने की बात कही गई. इससे यह भी झलकता है कि अब उनके सम्बन्ध जी7 देशों के नेताओं से तनावपूर्ण हो गए हैं. उनके वाशिंगटन में कोविड-19 संकट पर जी7 सम्मलेन की मेजबानी करने का प्रस्ताव जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल ने ठुकरा दिया था.

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ट्रंप ने कहा, 'मुझे नहीं लगता कि जी7 दुनिया में क्या चल रहा है और उसका ठीक से प्रतिनिधित्व हो रहा है. यह देशों का समूह पुराना हो चुका है.' उन्होंने कहा कि वह अब राष्ट्रपति चुनाव के बाद सितम्बर में यूएनजीए की बैठक के दौरान विस्तृत स्वरूप में इसकी मेहमाननवाजी करेंगे. जी7 अमीर लोगों का क्लब मात्र है. इसका चार्टर और दृष्टिकोण उचित रूप से पुनर्गठित करना होगा. यदि भारत जैसी तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को, जिन्हें कभी कभार आमंत्रित मेहमान के तौर पर बुलाया जाता है, इस समूह का सदस्य बनाया जाना हो.

टेलीफोन पर वार्तालाप के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप को इस सम्मलेन की सफलता के लिए समर्थन देने का आश्वासन दिया. चीन के ग्लोबल टाइम्स अखबार ने इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, 'जी7, जी11 या जी12 भले ही बन जाए, वह केवल नाम मात्र के लिए रह जाएगा, असरदायक नहीं.'

वैसे इसका विस्तार अभी हुआ नहीं है. इसके लिए जी7 देशों में सर्वसम्मति न सही, पहले आम सहमति होनी आवश्यक है क्यों कि वे चाहेंगे कि उसका वर्तमान स्वरूप कायम रहे और नए अमेरिकी राष्ट्रपति से पहले जैसा भाईचारा कायम हो सके. और फिर जी20 की प्रासंगिकता का भी सवाल है. समानांतर में इंग्लैंड ने डी10 (प्रजातांत्रिक) देशों के समूह को बनाने का विचार प्रस्तावित किया है, जिसमें जी7 के अलावा भारत, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया को शामिल किया जाए.

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भारतीय विदेश मंत्री डॉ जयशंकर ने बहुपक्षवाद के लिए गठबंधन की एक मंत्रिस्तरीय बैठक को संबोधित करते हुए स्पष्ट रूप से कहा, ''कोई भी महत्वपूर्ण संस्था अपनी स्थापना के स्वरूप में जमी नहीं रह सकती. यही कारण है कि हम इस जटिल और अनिश्चित समय में 'सुधारे हुए बहुपक्षवाद' के लिए आह्वान करना जारी रखते हैं.'' चीन के व्यवहार ने इस काम को और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बना दिया है. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ ने चीन के विस्तारवाद को 'आज की चुनौती' कहा. उन्होंने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को बिगडैल रंगकर्मी बताया. उन्होंने यह भी बताया कि चीनी सेना का सामना करने के लिए अमेरिकी स्थल और नौ सेनाओं को एशिया में सही जगह पर भेजा जा रहा है.

विश्व में चीन का सम्मान आज जितना गिरा है, उतना पहले कभी नहीं गिरा. चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग की स्थिति उनके व्यवहार से आज सांप-छछुंदर जैसी हो गई है. वह दूसरों पर आक्रमण कम करें और अपने ही घर में विरोध को आमंत्रित करें या वर्तमान व्यवहार को जारी रखते हुए दुनिया से दुश्मनी मोल लें. जो भी हो, अभी तो चीन, भारत को अपने से दूर धकेल रहा है और उसे मजबूर कर रहा है कि वह पश्चिमी ताकतों का साथ दे. संक्षेप में कहा जाए तो दुनिया इस समय परिवर्तन के दौर से गुजर रही है. अभी बताना मुश्किल है कि आगे वह कैसा स्वरूप लेगी. कोई भी कदम उठाने से पहले अपने सभी पर्याय को सावधानी से तौलना जरूरी है.

लेखक- पूर्व राजनयिक विष्णु प्रकाश

(विष्णु प्रकाश ओटावा और सोल में राजदूत रहने के अलावा विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता, शंघाई में कौंसुल जनरल. मास्को, न्यूयॉर्क, व्लादिस्टोक, टोक्यो, इस्लामाबाद और काहिरा में अधिकारी के तौर पर काम कर चुके हैं.)

Last Updated : Jun 30, 2020, 12:19 PM IST

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