नई दिल्ली: बाजारों में प्लास्टिक उत्पादों की तेजी से बढ़ोतरी का मूल कारण इसकी सहज उपलब्धता, कम लागत, टिकाऊ होना और रखरखाव हैं. सन 2030 तक भारत की शहरी आबादी वास्तव में 38 करोड़ से बढ़कर 60 करोड़ हो जाने का अनुमान है. ऐसी स्थिति के परिणाम स्वरूप नगर में ठोस कचरे का ढेर होगा.
माल और सेवाओं की आपूर्ति जनसंख्या की मांग के अनुसार बढ़ रही है. ऐसे समय में जब मानव के कर्मों के कारण हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित हो रही है, प्लास्टिक पर रोक अपरिहार्य है. प्लास्टिक के कचरे के ढेर जानवरों और पौधों की प्रजातियों के लिए भी खतरा बन रहे हैं. स्वच्छ भारत 2.0 के एक हिस्से के रूप में केंद्र ने प्लास्टिक कचरे के खतरे से निपटने पर विशेष जोर दिया है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वर्ष 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति दिन करीब 26 हजार टन प्लास्टिक कचरा पैदा होता है. पैकेजिंग से जुड़े 70 फीसद उत्पाद तुरंत प्लास्टिक कचरे में बदल रहे हैं. वे आसपास की मिट्टी को प्रदूषित करते हैं, भूजल में रिसते हैं और पारिस्थितिक तंत्र को तबाह करते हैं. कुल प्लास्टिक कचरे का 10 प्रतिशत से भी कम फिर से इस्तेमाल करने लायक बन रहा है.
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प्लास्टिक की बोतलों को मिट्टी के अंदर दबा देने पर उन्हें गलने में 450 या इससे भी अधिक साल लग सकते हैं. दुनिया भर में हर साल 80 लाख टन प्लास्टिक कचरे को जलाशयों में डाला जाता है. एक अनुमान के मुताबिक, 15 करोड़ टन प्लास्टिक समुद्र और नदियों में जमा हो गया है. 2050 तक समुद्र में मछली की तुलना में प्लास्टिक अधिक हो सकता है. कई अध्ययनों में हमारे देश में पीने के पानी में भारी मात्रा में प्लास्टिक दिखाया गया है. चौंकाने वाली बात यह है कि नवजात शिशुओं के प्लाज्मा नमूनों में भी प्लास्टिक के अवशेष पाए गए हैं. माइक्रोप्लास्टिक प्रदूषण के कारण कैंसर, हार्मोनल असंतुलन और हृदय संबंधी बीमारियों में बढ़ोतरी हो रही है.
पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 6, 8 और 25 के जरिए मिली शक्तियों का उपयोग करते हुए भारत सरकार की ओर से पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन में प्लास्टिक करचा प्रबंधन नियम 2015 प्रकाशित किए गए थे. ये नियम कचरा पैदा करने वाले स्थानीय निकायों, ग्राम सभाओं, उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों पर लागू होते हैं.