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विशेष लेख : राष्ट्रीय राजनीतिक दल नागरिकता कानून पर खेल रहे राजनीति

नागरिक संशोधन एक्ट (सीएए) ने पूर्वी भारत में कोहराम मचा रखा है. मुख्यतौर पर असम, त्रिपुरा और शिलांग में युद्ध जैसे विरोध प्रदर्शन देखे जा रहे हैं. इस बारे में दो तरह के तर्क सुनाई दे रहे हैं. सीएए समर्थकों का कहना है कि यह कानून इतिहास की गलतियों को सुधारेगा तो विरोधियों का कहना है कि यह संविधान के मूल मंत्र के खिलाफ है और लोगों को धर्म के आधार पर बांटने की साजिश है.

editorial on politics over CAA
प्रतीकात्मक फोटो

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Published : Dec 17, 2019, 8:42 PM IST

वर्ष 1995 का नागरिकता एक्ट कहता है कि जो लोग भारत में बिना किसी दस्तावेजों के दाखिल हुए हैं, वह गैरकानूनी माने जाएंगे और उन्हें नागरिकता नही मिल सकेगी. हालांकि नए संशोधन के जरिये बंटवारे से पहले के भारत, जैसे कि पाकिस्तान, अफ्गानिस्तान और बांग्लादेश से आए अल्पसंख्यकों को शर्णार्थियों का दर्जा दिया जा सकेगा. इस नए संशोधन के बाद ऐसे लोगों को गैरकानूनी नहीं माना जाएगा, बल्कि वो भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं.

इन तीन इस्लामिक देशों से आने वाले अल्पसंख्यक- हिन्दू, सिख, जैन, इसाई, बौद्ध और पारसी धर्म के लोग भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं. गौरतलब है कि इन्ही तीन देशों से आने वाले मुसलमानों को इस लिस्ट में नहीं रखा गया है और वो भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन नहीं कर सकते. इसके पीछे यह मानना है कि उन्हे इन देशों में धार्मिक उत्पीड़न नहीं सहना पड़ा है और वह भारत एक बेहतर जीवन की तलाश में आए हैं. इस एक्ट का सारांश यही है.

दशकों पुरानी है समस्या
अपने देश से जो लोग अन्य जगहों पर बेहतर जीवन की तलाश में जाते हैं, उन्हें प्रवासी कहा जाता है और जो लोग अपने देश में अशांति या खराब हालातों के चलते वहां से निकलते हैं, उन्हें शरणार्थी कहा जाता है.1947 में भारत के बंटवारे के बाद, करीब डेढ़ करोड़ लोगों ने बॉर्डर दोनों तरफ से पार किया. इनमे से 1.2 करोड़ लोग भारत की पश्चिमी सरहद पर शरणार्थी बने वहीं 42 लाख लोग पूर्वी सरहद पर.

वर्ष 1959 की तिब्बत क्रांति के बाद करीब 80,000 लोगों ने भारत में शरण ली. यही नहीं बौद्ध गुरु और तिब्बती धर्म गुरु 14वें दलाई लामा ने खुद भारत में शरण ले रखी है. 1972 में युगांडा में तनाव के चलते कुछ भारतीय वापस आ गए, इसके अलावा श्रीलंका में गृह युद्ध के कारण भी एक लाख से ज्यादा तमिल शरणार्थियों ने भारत में शरण ली है. हालांकि इन शरणार्थियों से कोई समस्या नहीं है, लेकिन तकलीफ भारत में गैरकानूनी तरह से रहने वाले लोगों से है.

भारत के बंटवारे के दौरान, पश्चिमी सरहद पर रह रहे लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था क्योंकि उस समय पलायन धार्मिक आधार पर हो रहा था. जहां एक तरफ हिन्दू और सिखों ने भारत का रुख किया तो वहीं बड़ी संख्या में मुसलमानों ने नए बने पाकिस्तान का रुख कर लिया. हालांकि पूर्वी सरहदों पर हालात अलग हैं. इसके बाद, बदलते राजनीतिक समीकरणों के कारण लाखों की तादाद में लोगों ने पूर्वी पाकिस्तान और बांग्लादेश से निकलकर भारत में पलायन कर लिया. पलायन का वह दौर आज तक जारी है.

सरकार ने संसद में यह जानकारी दी थी कि बांग्लादेश से अब तक करीब 2.40 करोड़ लोग गैरकानूनी तरीके से भारत में दाखिल हो चुके हैं. इनमे से ज्यादातर पश्चिम बंगाल में हैं न कि असम में. 75 लाख से ज्यादा गैरकानूनी प्रवासी पश्चिम बंगाल में हैं, बाकी असम और त्रिपुरा में.

यही नहीं, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र भी गैरकानूनी प्रवासियों से अछूता नहीं है. करीब 7-8 लाख गैरकानूनी प्रवासी इन इलाकों में भी रह रहे हैं. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, केरल और हैदराबाद में भी बड़ी संख्या में गैर कानूनी प्रवासी पहुंचे हैं. लंबे समय से असम में ऐसे गैरकानूनी प्रवासियों के खिलाफ आवाज उठती रही है.

हिन्दुओं व मुसलमानों के बीच तनाव के कारण पलायन 25 लाख से बढ़कर 35 लाख पहुंच गया है. अपनी सांस्कृतिक और भाषा की पहचान को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे असम के मूल लोगों की तादाद 50% से नीचे पहुंच गई है. इसके चलते राज्य में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ और उसके बाद सरकार ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर बना कर 19 लाख के करीब गैरकानूनी प्रवासियों को चिह्नित करने का फैसला किया. इस एनआरसी को बनाने में अनियमितताएं बरती जाने की कई शिकायतें लोगों की तरफ से आई हैं. वहीं पश्चिम बंगाल में हालात काफी अलग हैं. राज्य में गैरकानूनी प्रवासियों की बड़ी संख्या होने के बावजूद यह मुद्दा बीजेपी के राज्य में सक्रिय होने से पहले तक ठंडे बस्ते में था.

बीजेपी का कहना है कि धार्मिक आधार पर जनसंख्या के बढ़ने के पीछे गैरकानूनी पलायन बड़ा कारण है. बंगाल में 1950 में मुस्लिम आबादी 20% थी, वहीं 2011 आते तक ये बढ़कर 27% जा पहुंची है. बीजेपी का आरोप है कि राज्य की पिछली कम्यूनिस्ट और तृणमूल सरकरों ने इस मामले को ठंडे बस्ते में रखा है. असम में लोग अपने अस्तित्व पर खतरे के कारण सड़कों पर उतर आए हैं, वहीं बंगाल में ऐसे हालात नही हैं.

बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल में यह समस्या नहीं है क्योंकि वहां लोग एक जैसी बोली और संस्कृति में जीते हैं. बंगाल से हो रहे पलायन के कारण त्रिपुरा के आदिवासी अल्पसंख्यक हो गए हैं. 1951 में इनकी आबादी 60% थी, जो 2011 में महज 31% रह गई है.

कई संगठनों से बातचीत करने के बाद, गृह मंत्री अमित शाह ने यह बिल तैयार किया. इसी कारण पूर्वी भारत के कई सांसदों ने इसका समर्थन किया. वे इलाके, जहां इनर लाइन परमिट लागू है और जो छठे शेड्यूल के तहत सेल्फ रूल में आते हैं, इस बिल के दायरे में नहीं आते हैं.
पूर्वी भारत में, असम (3 सेल्फ रूल क्षेत्रों के अलावा), त्रिपुरा (आदिवासी सेल्फ रूल क्षेत्रों के अलावा) और मेघालय की राजधानी शिलॉंग इस बिल के दायरे में आते हैं. इसी कारण से विरेध भी इन्ही इलाकों तक सीमित हैं.

इच्छाशक्ति की कमी
पूर्वी भारत की बात करें तो में असम और त्रिपुरा में पलायन ज्यादा है. त्रिपुरा में बंगाली बहुल होने के बावजूद आदिवासी आंदोलन ज्यादा बड़ा मुद्दा नहीं है. शुरू से ही असम इस मसले पर जलता रहा है और इसलिए 1985 में एक समझौता किया गया था. लेकिन असम के लोगों में विरोध लगातार जारी है क्योंकि इस समझौते को पिछले 35 सालों से पूरी तरह से लागू नहीं किया गया.

सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद एनआरसी का रास्ता साफ हुआ, जिससे करीब 19 लाख गैर कानूनी निवासियों का पता चला. इनमे से 5-6 लाख हिन्दू एनआरसी के संरक्षण के चलते भारत में रह सकते हैं. इससे असम के लोगों में गुस्सा और भड़क गया. अपनी भाषा, संस्कृति को बचाने के लिए ये लोग सड़कों पर उतर आए हैं.

इस मुद्दे से जुड़े मामलों पर दोबारा विचार करने के प्रधानमंत्री मोदी के आश्वासन के बाद भी असम के लोग शांत नही हैं. यह कहना गलत है कि यह विरोध बीजेपी के खिलाफ है. असम के लोगों का किसी भी राजनीतिक दल की तरफ सही राय नहीं है.

असम के लोगों को उनकी भाषा, संस्कृति और रीति रिवाजों के संरक्षण के लिए फौरन आश्वासन देने की जरूरत है. पश्चिम बंगाल में हालात अलग हैं. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रवासियों को नागरिकता देने को तैयार हैं. वहीं केरल, पंजाब और मध्यप्रदेश भी इसी तरह की बात कर रहे हैं. जाहिर तौर पर क्षेत्रीय दल लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए फैसले लेते हैं, लेकिन राष्ट्रीय दलों का नजरिया अलग है. उनका असम और पश्चिम बंगाल को लेकर अलग स्टैंड है. सभी राजनीतिक दल इस समस्या को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते दिख रहे हैं और वह इस मामले के निबटारे के लिए कोई ठोस सुझाव देते नहीं दिख रहे हैं.

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