पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के बयान में कहा गया है कि, 'दोनों विदेश मंत्रियों ने कश्मीर मामले में ओआईसी के रोल के बारे में बातचीत की. इसकी पृष्ठभूमि में पाकिस्तान की तरफ से भारत द्वारा 5 अगस्त को कश्मीर में गैरकानूनी और एकतरफा कार्यवाही थी (आर्टिकल 370 को खत्म करना).' इसके साथ ही पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने नागरिक संशोधन एक्ट और एनआरसी का जिक्र करते हुए भारत पर योजनाबद्ध तरीके से मुस्लमानों को निशाना बनाने का आरोप भी लगाया.
कश्मीर को लेकर पाकिस्तान का जुनून जगजाहिर है. लेकिन, सऊदी अरब का फैसला नीचे लिखे पहलुओं के विपरीत दिखाई देता है.
भारत द्वारा अपने संविधान के आर्टिकल 370 को खत्म कर जम्मू-कश्मीर के खास स्टेटस को खत्म करना और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटना, पाकिस्तान के लिए एक सुनहरा मौका था, भारत को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर बदनाम करने का. यह बात किसी से छुपी नही है कि पाकिस्तान कश्मीर मसले का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का कोई मौका नहीं छोड़ता है और कश्मीर में आजादी की लड़ाई को राजनीतिक और राजनयिक समर्थन भी देता है. इसके कारण, सितंबर में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ घेराबंदी करने की कोशिश भी की. हांलाकि, इस मुद्दे पर वो खुद ही यह मान बैठे कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय भारत पर दबाव बनाने में पीछे हट गया है. केवल मलेशिया और तुर्की ने ही इस मुद्दे पर पाकिस्तान के नजरिए का समर्थन किया. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने दुनिया के देशों के इस रुख को भारत के एक बड़े बाजार होने पर मढ़ा, लेकिन वो यह भूल गए कि भारत ने दुनिया के तमाम देशों को अपनी तरफ करने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम किया था. इसमें यह पहलू भी शामिल था कि पिछले कुछ वर्षों में भारत ने सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे बड़े इस्लामिक देशों से अपने संबंध मजबूत किए हैं.
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत को कश्मीर मुद्दे पर घेरने में नाकामयाबी के कारण, पाकिस्तान, मलेशिया और तुर्की ने एक मीटिंग कर यह फैसला किया कि पहले एक इस्लामिक टीवी शुरू किया जाएगा और दूसरे, इस्लाम से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों के लिए एक इस्लामिक सम्मेलन शुरू किया जाएगा.
मलेशिया ने इस्लामिक सम्मेलन की मेजबानी करने के लिए हामी भरी. कई अन्य देशों के अलावा, कई गैर अरब मुस्लिम देशों ने इस सम्मेलम में शिरकत करने के लिए हामी भरी. इनमें पाकिस्तान, तुर्की, मलेशिया, ईरान और कतर शामिल हैं. यहां यह दिलचस्प बात है कि, जहां एक तरफ तुर्की, ईरान और मलेशिया के संबंध सऊदी अरब से अच्छे नहीं हैं, वहीं जून 2017 में यूएई के साथ मिलकर सऊदी अरब ने, कतर से सभी रिश्ते खत्म कर दिए थे. इस नए इस्लामिक सम्मेलन को, सऊदी अरब ने इस्लामिक समुदाय पर अपने नेतृत्व को चुनौती और ओआईसी की बराबरी करता एक और संगठन खड़ा करने की कोशिश की तरह देखा.
सऊदी अरब इस्लामिक सम्मेलन को होने से रोक नहीं सका और यह सम्मेलन मलेशिया के क्वालालंपुर में दिसंबर 2019 के मध्य में हुआ. लेकिन सऊदी अरब ने पाकिस्तान पर दबाव बनाकर, सम्मेलन से आखिरी समय पर नाम वापस लेने में कामयाबी हासिल कर ली. पाकिस्तान के पास भी सऊदी दबाव में आने के वाजिब कारण थे. इनमें, पाकिस्तान को सऊदी अरब से मिलने वाली आर्थिक मदद और सऊदी अरब में काम कर रहे हजारों पाकिस्तानियों द्वारा अपने घरों को भेजे जाने वाला पैसा, देश की अर्थव्यवस्था के लिए जरूरी था. पाकिस्तान के इस कदम के बदले में, सऊदी अरब ने ओआईसी के मंच पर कश्मीर के मुद्दे पर विचार के लिए हामी भर दी. इस कदम से सऊदी अरब ने न केवल पाकिस्तान को खुश किया, बल्कि ओआईसी की साख को धक्का लगने से बचाया और इस्लामिक समुदाय में अपनी खुद की साख को भी बचाया. लेकिन इसके चलते, बिना किसी सीधे ताल्लुक के, कश्मीर, इस्लामिक समुदाय में वर्चस्व की लड़ाई का केंद्र बन गया.
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क्या सऊदी अरब का यह कदम, भारत-सऊदी रिशतों पर अलर डालेगा? यह इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत क्या प्रतिक्रिया देता है. पिछली कई बार ओआईसी में कश्मीर मुद्दे पर बात हो चुकी है, लेकिन इन बातों से भारत की कश्मीर नीति या इस मसले पर अंतर्राष्ट्रीय रुख पर कोई असर नहीं पड़ा. मेरे विचार से, जहां एक तरफ, भारत इस मसले पर अपना विरोध जताने पर सही होगा, वहीं भारत को इस मसले को इतना तूल नहीं देना चाहिए, जिससे भारत-सऊदी द्विपक्षीय रिश्तों पर असर पड़ने का खतरा हो. यह सब वो भी ऐसे मसले पर, जो भारत को निशाना बनाने की जगह, अंतर्राष्ट्रीय मंच पर इस्लामिक समुदाय में वर्चस्व की लड़ाई से जुड़ा है.
(लेखक - अचल मल्होत्रा, पूर्व राजनयिक)