दिल्ली

delhi

ETV Bharat / bharat

वनीकरण- एक बेहतरीन कोशिश, इंसानों के कल के लिए - editorial on climate change

राष्ट्रीय वन सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट(2017-19) हाल ही में वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जारी की, जिसमें वनों के संरक्षण और बढ़ाने से जुड़े कई सवाल और चुनौतियां सामने आईं हैं. 2015 में पेरिस की संधि से जुड़ने के बाद भारत ने देश में जंगलों और हरियाली में बढ़ोतरी करने पर हामी भरी थी ताकि पर्यावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड और जहरीली गैसों की मात्रा कम की जा सके, जिसके 2030 तक 250-300 मिलियन टन तक पहुंच जाने के आसार हैं. हाल ही में हुए सर्वे के मुताबिक पिछले दो सालों में वनों की जमीनों में सिर्फ 0.56% की बढ़त देखी गई है.

editorial on climate change
प्रतीकात्मक फोटो

By

Published : Jan 29, 2020, 12:07 AM IST

Updated : Feb 28, 2020, 8:38 AM IST

केंद्रीय मंत्री ने जावड़ेकर ने कहा कि पेरिस प्रस्ताव में किए गए वादों को बिना किसी चूक के निभाया जाएगा. दूसरी ओर वही रिपोर्ट से जाहिर होता है कि कई राज्यों में तो जंगलों को काटा गया है. बल्कि दसियों सालों से कम से कम 33% जंगलों को बढ़ाने का उद्देश्य है जो कि अभी हासिल करना बाकी है. राष्ट्रीय स्तर पर जंगलों के संरक्षण और उगाने के लिए व्यापक वन डिजाइन की योजना सालों से चल रही है. जंगलों की संख्या बढ़ाना, कार्बेन डाई ऑक्साइड के जहर को कम करना अब बहस का मुद्दा बन गया है, जिसके चलते अब वनों का विकास करना होगा.

लोगों तक साफ हवा, पानी और खाना पहुंचाने के लिए जंगलों को बचाए जाना सबसे ज़रुरी है.जिससे न केवल हवा से कार्बेन डाई आक्साइड का स्तर नीच होगा, साथ ही जमीन के नीचे पानी का स्तर बढ़ेगा और बदलते तापमान से भी लड़ने में मदद मिलेगी. जंगलों के बढ़ने से कई लाखों लोगों को नौकरियों के अवसर मिलेंगे. 1952 में बनी पहली राष्ट्रीय वन योजना के तहत देश की जमीन में 33% जंगलों का होना अनिवार्य है. 67 साल बाद भी यह आंकड़ा पार नहीं हो पाया है.

राष्ट्रीय वन सर्वेक्षण संस्थान ने सैटेलाइट की तस्वीरों की मदद से हर दो सालों में जंगल क्षेत्र की बढ़त की दरों का अनुमान लगाया है. एफ एस आई के मुताबिक जंगलो का क्षेत्रफल 7,12,249 वर्ग किमी(21.67%) है. 2017 में यह 21.54% था. इसका मतलब साफ है कि जंगलों में दो सालों में महज 0.56% की बढ़ोतरी हुई है. 2011 में जंगल 6,92,027 वर्ग किमी में फैले थे. दस सालों में यह बढ़कर 20,222 वर्ग किमी तक पहुंच गया है, जो कि केवल 3%.

जो कि देखने में काफी बड़ी उपलब्धि लगता है, लेकिन किस तरह के जंगलों का निर्माण हुआ है इस पर सवाल निशान बना हुआ है. कम घने जंगलों से कुल 3,08,472 वर्ग किमी क्षेत्र घिरा हुआ है. व्यवसायिक कामों में इस्तेमाल होने वाले काफी, बैंबू और चाय के पेड़ों वाले जंगल कुल 3,04,499 क्षेत्र में फैले है जो कि 9.26 प्रतिशत है.

पिछले दस सालों के विश्लेषण से पता चलता है कि व्यवसायिक जंगल 5.7 प्रतिशत में फैले हैं, जबकि मध्यम घने जंगले घट कर 3.8 प्रतिशत रह गए हैं. इस श्रेणी में आने वाले जंगल 2011 में 3,20,736 वर्ग किमी इलाके में फैले थे, लेकिन ताज़ा रिपोर्ट में यह घट कर 3,08,472 वर्ग किमी रह गए हैं. अगर एक हेक्टेयर में 70% हरियाली और पेड़ हैं तो उस क्षेत्र को घने जंगल का दर्जा दिया जाता है.

कार्बेन डाई आक्साइड से बचने के लिए इन जंगलों का अहम योगदान है. भारत में यह सिर्फ 99,278 वर्ग किमी क्षेत्र पर ही फैले हैं. रिकोर्ड में इन जंगलो की बढ़त सिर्फ 1.14 प्रतिशत दर्ज है. आखिरी रिपोर्ट के मुताबिक 2015-17 के दौरान 14 प्रतिशत की बढ़त दर्ज हुई थी, जिसमें से 1,025 स्केयर किमी हिस्सा कर्नाटक में आता है और 990 वर्ग किमी आंध्रप्रदेश में शामिल है, 823 स्केयर किमी केरल में है, 371वर्ग किमी जम्मू कश्मीर के इलाके में हैं और 344 वर्ग किमी हिमाचल प्रदेश में आता है. यही कारण है कि इन राज्यों को 5 बड़े राज्यों का स्थान मिला है जो अपने राज्य में वनीकरण को बढ़ा रहे हैं. यहां देश भर में सबसे ज्यादा जंगलों का विकास हुआ है.

लेकिन इन सर्वेक्षणों में जंगलों के बढ़ने की दर और घटने की दर एक ही बताए जाने पर संदेह बढ़ रहा हैं. जंगलो की हरियाली का अनुमान लगाते समय जंगलो की मालिकाना हक, पेड़ों की प्रजातियों और प्रबंधन को इस सर्वेक्षण से दूर रखा गया है. कई सालों से सैटेलाइड की तस्वीरों में हरियाली से भरपूर इलाकों को जंगल में शामिल करने पर बहस छिड़ी है. तस्वीरों में एक हेकटेयर में 10 प्रतिशत क्षेत्र नज़र आ रहा है. अकसर व्यावसायिक फसलें और बाग जैसे काफी, इकोलिपटिस, नारियल, आम और दूसरे फलों के पेड़ ऊपर से काफी हरे भरे दिखते हैं. यही वजह है कि सैटेलाइट की तस्वीरों पर पूरा भरोसा करना सही नहीं है.

सीएएमपीए(क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्रधिकरण) से उम्मीद

वन संरक्षण एक्ट(1980) के तहत जंगलों की कटाई रोकने और जंगलों को बनाने के लिए पूरे देश में कई खास मुहिम छिड़ी हैं.. लाखों एकड़ जमीन इसके लिए तैयार की जा रही है. वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट से जाहिर है कि 1980-2016 के बीच कई योजनाओं के तहत देश की 22,23,000 एकड़ जमीन में जंगल काटे जा चुके हैं. जो कि देश का 1.2% जंगल क्षेत्र है. वन कानून के तहत जंगल काटने के बदले जंगल उगाने का प्रावधान है. पर इस बात की भी कोई पुष्टि नहीं है कि वन सर्वेक्षण संस्थान ने जंगलो के बदले जंगलो के निर्माण के बात उठाई हो. 2009 में क्षतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन एवं योजना प्रधिकरण जैसी संस्था को वनीकरण के लिए धनराशि इक्ट्टठी करने के लिए निर्मित किया गया.

बहरहाल इस पैसे का इस्तेमाल वन संरक्षण के अलावा दूसरे कार्यक्रमों के लिए धड़ल्ले से हो रहा है. जिसके बाद सीएजी, सीएएमपीए को न्यायिक दर्जा मिल गया और राज्यसभा में 2016 एक्ट भी पास कर दिया गया है. माननीय सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद केंद्र और राज्य सरकारों को कुल 54,000 करोड़ रुपये की राशि सीएएमपीए के खजाने में जमा करने के निर्देश दिए गए हैं. वहीं केंद्र मंत्री जावड़ेकर ने पिछले साल अगस्त में 27राज्यों को 47,000 करोड़ देने फैसला सुनाया. अहम उद्देश्य देश के राज्य जैसे आंध्रप्रदेश, तेलंगाना को जंगलों और हरियाली से हरा भरा बनाने का है. अगले साल तेलंगाना को हरिता हारम के नाम से जाना जाए के लिए 230 लाख से भी ज्यादा पेड़ उगाने का बीड़ा उठा लिया है. हर दो गांवों के बीच कम से कम एक नर्सरी को तैयार किया जाएगा. ताकि अलग अलग तरह के पेड़ पौधे उगाए जा सकें. किसी से छांव मिले, तो किसी से फल तो कोई दवाई बनाने के काम में लाया जाए. आध्रप्रदेश सरकार पौधों की अलग अलग प्रजातियों के उगाने के मकसद से वनम मनम नाम से कार्यक्रम शुरु कर रही है.

सरकार चाहती है कि 2029 तक कम से कम 50% क्षेत्र को जंगल में शामिल किया जाए. वन के महकमे में सालों बाद नई नियुक्तियां और खाली पद भरे गये है. जंगलों में बार बार आग लगने से मिट्टी की ताकत और उपजाऊपन कम हो रही है. इस तरह की आपदाओं से बचने के लिए जंगलों में खाइयों को बनाना होता है.

पढ़ें-विशेष लेख : प्रदूषण– धरती पर जीवन के लिए खतरा !

अगर ऐसी समस्या से बचना है तो जंगलों की जमीनों पर कब्जा और पेड़ों की कटाई को जल्द रोकना होगा.स्कूल और कालेजों के छात्रों को अच्छा प्रदर्शन करने पर पौधे उपहार में देने से उनमें पौधों के लिए प्रेम और जागरुकता बढ़ेगी. जियो टैगिंग और पेड़ो को लगाने के बाद उनकी देखभाल भी उतनी ही ज़रुरी है. जमीनों के मालिक जो अपनी जमीनों पर जंगल बनाना चाहते हैं उन्हें प्रोत्साहन राशि मिलनी चाहिए ताकि वे बिना किसी रुकावट के कमाऊ बाग और खेती कर सकें.
जंगल की आग से बचना बड़ी चुनौती

कई महीनों आग की चपेट में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों से हम सबको यह सबक लेना चाहिए कि अगर जल्द ही पर्यावरण के बदलते रुख पर ध्यान नहीं दिया गया तो पानी सिर से ऊपर चला जाएगा, इसके लिए पेड़ पौधे लगाने होंगे. भयंकर आग से नुकसान केवल इंसानों को ही नहीं बल्कि जंगली जानवर भी इसके शिकार हैं. पिछले दस सालों में तापमान एक डिगरी सेलसियस तक बढ़ चुका है. सालों से बढ़ते तापमान ने सूखा की समस्या पैदा कर दी है. पिछले सितंबर से शुरु हुए, कंगारुओं के इस देश में हुए कहर की भरपाई नामुमकिन के बराबर है. साऊथ वेल्स और स्टेट आफ क्वीनस्लैंड में इसका नुकसान सबसे भयानक रुप में देखा गया है. आग लगने से 80 किमी प्रति घंटा की गति से गर्म हवाएं दूसरे शहरों जैसे मेलबर्न और सिडनी पर भी बुरा असर डाल रही है. 10 लाख एकड़ से भी ज्यादा जंगल अब तक आग की चपेट मे आ चुके हैं. जिसमें कम से कम 24 लोगो के मरने की आशंका भी है.

न्यू साऊथ वेल्स में करीब 1300 लोग बेघर हो गए. 3000 से भी ज्यादा नौसैना के जवान स्थिति पर से काबू पाने में जुटे हैं. वहीं पर्यावरणविद् आग में झुलसे 48 अरब से भी ज्यादा जानवरों और पंछियों के मारे जाने से दुखी हैं. सिडनी के विश्वविद्यालय ने 30 प्रतिशत से भी ज्यादा टेडी बेयर जैसे दिखने वाले कोआला के खत्म होने की आशंका जाहिर की है.धीमी चाल चलने वाले कोआला पांडा जैसे दिखते हैं. यही वजह है कि वे तेज़ी से बढ़ती आग का सामना कर भाग नहीं सके. कई कगांरु, ऑस्ट्रेलियाई औमबैट और पक्षी भी आग से खुद को नहीं बचा सके. और जो बच गए है वे खाने और घर के लिए दर दर भटक रहे हैं. सैंकड़ो जानवर आसपास के घरों में घुस रहे हैं. इस भयानक हालत के जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि प्रकृति से छेड़छाड़ ही है. अब भी वक्त है कि हम इस हादसे सीख ले ले क्योंकि कहीं धरती मां ने सबक सिखाने के लिए अपना प्रकोप और भयानक रुप दिखा दिया तो जीना मुश्किल हो जाएगा.

Last Updated : Feb 28, 2020, 8:38 AM IST

ABOUT THE AUTHOR

...view details