कोलकाता : उत्तरी कोलकाता के डिंगी बाइलेन की दीवारों पर लटके एक विशेष कैलेंडर में मई से अक्टूबर के महीने के आधे दिनों की तारीख लुप्त होती है. इसके साथ ही दिलचस्प बात यह है कि अक्टूबर महीने का 22वां दिन लाल रंग के गोले में घिरा होता है. ऐसी ही अचंभित करने वाली चीजें किसी को भी सोचने पर मजबूर कर देंगी कि आखिर ऐसा क्यों ?
गौरतलब है कि महाभाषी बंगाली पंचांग के अनुसार, वार्षिक दुर्गा पूजा की शुरुआत के लिए आधिकारिक तिथि तय की जाती है.
हर बार की तरह इस बार भी दुर्गा पूजा के लिए लोगों के मन में खासा उत्साह है, लेकिन लॉकडाउन के चलते अपने घरों में सिमटे लोग अपनी-अपनी तरफ से पूजा की तैयारियों में जुटे हुए हैं.
महानगर के कई दूर्गा पूजा आयोजक अपनी ओर से इस महापर्व को लेकर योजना बनाने में लगे हैं. सोच-विचार में डूबे इन बड़े-बड़े पूजा आयोजकों में कुछ तो योजना बना रहे हैं, तो कुछ लॉकडाउन के चलते इस साल की पूजा को छोड़ने के बारे में विचार कर रहे हैं.
लॉकडाउन : एक बुरे सपने जैसा
प्रतिवर्ष महानगर में 3,000 से भी ज्यादा, बड़ी, मध्यम और छोटी-छोटी पूजा आयोजित की जाती हैं लेकिन इसमें बदलाव आ सकता है. लॉकडाउन के चलते सब कुछ बंद होना खासतौर पर आयोजकों के लिए एक बुरे सपने जैसा है.
कोरोना महामारी ने भारतीय कॉरपोरेट जगत पर बहुत बड़ी मार की है. किसी भी पूजा पंडाल या अन्य कार्यक्रम के आयोजकों के लिए यह वाकई में बहुत बुरा है. इनका मुख्यालय ज्यादातर महानगरों में ही होता है और यहीं से इनके लिए बजट तैयार किया जाता है. ऐसे में दुर्गा पूजा आयोजकों का मानना है कि कॉर्पोरेट स्पॉंसर से किसी तरह के बजट की अपेक्षा करना एक ओवर स्टेटमेंट जैसा है.
अनगिनत छोटे कारीगरों का है पूजा से जुड़ाव
मिट्टी की मूर्तियां बनाने वाले कारीगर, आभूषण बेचने वाले, पंडाल की सजावट करने वाले, पंडाल को लाइट से चकाचौंध करने वाली रोशनी देने वाले, पारंपरिक ड्रमर और न जाने कितने ही कारीगर इस उत्सव में सीधे तौर पर शामिल होते हैं, जो बंगाल की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में सहायक हैं. यह लोग अपनी आजीविका के लिए कहीं न कहीं इस पूजा पर ही निर्भर करते हैं. ऐसे में लॉकडाउन का दौर इनके लिए अभिशाप साबित हो सकता है. ASSOCHAM की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पश्चिम बंगाल की वार्षिक दुर्गा पूजा उत्सव की कीमत 60,000 करोड़ रुपए से अधिक है.