नई दिल्ली : कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि में इस समय डिजिटल शिक्षा को आगे बढ़ाया जा रहा है, लेकिन शिक्षाविदों का कहना है कि यह गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. विभिन्न कंपनियों द्वारा मुनाफे की दृष्टि से डिजिटल शिक्षा की जोर-शोर से पैरोकारी की जा रही है. शिक्षा पहले से ही ख़तरे में थी, अब तो समस्या और भी विकराल हो गई है.
डिजिटल पढ़ाई नियमित विद्यालय का विकल्प नहीं बन सकती. विद्यालय हमें सामाजिकता का बोध कराता है तथा गैर बराबरी और ऊंच-नीच की भावना को कम करता है. शिक्षा मानव जीवन की शुरुआत से समाजीकरण के जरिए व्यक्तित्व-निर्माण की व्यापक प्रक्रिया है. उसे सिर्फ लर्निंग आउटकम से जोड़कर देखना व्यक्ति और समाज के विकास में शिक्षा की भूमिका को कमतर कर के आकना है.
अफसोस है कि शिक्षा को समग्रता में देखने की बजाय उसे खंडित तरीकों से देखने और उन्हीं निष्कर्षों के आधार पर नीतियां तैयार करने का चलन बन गया है, लेकिन, एक लोकतान्त्रिक, समतामूलक, समावेशी और वैज्ञानिक समाज की स्थापना के लिए न केवल शिक्षा के विभिन्न आयामों पर विमर्श जरूरी है बल्कि समाज के हाशिये पर मौजूद दलित, वंचित, आदिवासी और कमजोर वर्गों तक तक शिक्षा के न पहुंच पाने से जुड़ी चुनौतियों की शिनाख्त हकीकत की धरातल पर उतरकर करनी जरूरी है. यह बातें वक्ताओं ने राईट टू एजुकेशन (आरटीई) फोरम द्वारा शिक्षा-विमर्श की सातवीं कड़ी में डिजिटल लर्निंग के जरिये गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा जमीनी हकीकत विषय पर आयोजित वेबिनार में कही.
दिल्ली विश्वविद्यालय, शिक्षा विभाग के सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एजुकेशन की प्रो. पूनम बत्रा ने अपने संबोधन में कहा कि डिजिटल शिक्षा को ही अब शिक्षा देने का विकल्प मान लिया गया है, जो गलत है. समाज के भीतर व्यापक आबादी की न्यूनतम डिजिटल पहुंच के ठोस आंकड़ों और जातिगत, संसाधनों की उपलब्धता, लैंगिक भेद-भाव जैसे सामाजिक-आर्थिक विभेद के कारकों की सघन मौजूदगी के बावजूद डिजिटल शिक्षा के पक्ष में उठाया जा रहा शोर हर बच्चे को शिक्षा मुहैया कराने और शिक्षा के लोकव्यापीकरण के घोषित लक्ष्यों के प्रति संदेह उत्पन्न करता है. ऐसा लगता है जैसे पहले से ही नव उदारवादी नीतियों की शिकार शिक्षा के ऊपर वर्चस्ववादी नजरिये का घेरा और तंग होता जा रहा है. शिक्षा को समानता, आर्थिक तथा सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखने की जरूरत है.
उन्होंने कहा,'डिजिटल पढ़ाई, शिक्षा के उद्देश्यों को संपूर्ण रूप से पूरा नहीं करती है. शिक्षा-विमर्श की विभिन्न धाराओं पर चर्चा करते हुए महात्मा ज्योतिबा बार्ई फुले सरीखे सामाजिक बदलाव के अगुआ जननायकों को यहां याद करना जरूरी होगा, जिन्होंने औपनिवेशिक शिक्षा के प्रारूप के खिलाफ जारी एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की सीमाओं से आगे जाकर बराबरी के समाज का निर्माण और उसमें शिक्षा की अविछिन्न भूमिका को रेखांकित करते हुए अपनी लड़ाई लड़ी.
उन्होंने शिक्षा को समग्रता में देखा था और उसी के हिसाब से आगे बढ़ाने का प्रयास किया था. पहले शिक्षा पर एक किस्म का वर्चस्ववाद हावी था. समाज के एक वर्ग द्वारा अपने को श्रेष्ठ मान कर और अपनी श्रेष्ठता कायम करने की दृष्टि से शिक्षा का स्वरूप तैयार किया गया था. लगातार संघर्ष के जरिये हमने शिक्षा के संदर्भ में कई अहम अधिकार और मुकाम हासिल किए, लेकिन धीरे-धीरे शिक्षा बाजार में पहुंच गया और फिर शिक्षा का ही बाजारीकरण हो गया. जैसे ही शिक्षा बाजार में पहुंचा, शिक्षा का संदर्भ भी बदल गया.
प्रो. बत्रा ने आगे जोड़ा,' कोरोना के रूप में आई वैश्विक आपदा की वजह से शिक्षा पर हावी होने की सतत कोशिश में लगे बाजार को अभी डिजिटल शिक्षा को बढ़ाने का अवसर मिल गया है. इसे मुनाफे की दृष्टि से देखा जा रहा है. अनेक कंपनियों की ओर से डिजिटल शिक्षा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है. यह निश्चित रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लक्ष्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है. शिक्षा पहले से ही ख़तरे में थी, अब तो समस्या और भी विकट हो गई है. शिक्षा को पहले भी महज सीखने या लर्निंग से जोड़कर उसके मकसद को सीमित करने का प्रयास किया गया और अब इसे उपभोक्तावाद पर पहुंचा दिया गया है. समाज में पहले से ही अनेक प्रकार के भेदभाव थे, डिजिटल शिक्षा उसे और बढ़ा देगी. सबसे खतरनाक बात तो यह है कि समाज में बहुतायत लोग अपने अधिकारों से वंचित हो जाएंगे, लिहाज़ा हमें डिजिटल शिक्षा के विकल्प की बात करनी होगी. हमें शिक्षा के ऐसे समावेशी स्वरूप की बात करनी होगी जो समतामूलक समाज के निर्माण की धुरी बन सके.'