हैदराबाद : मानसून की शुरुआत के साथ ही देश में खेतों में बोआई शुरू हो जाती है. बोआई के बाद से किसान हमेशा अनिश्चित रहता है कि अगर आपदा आती है तो उसके कठिन परिश्रम का लाभांश का क्या होगा. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में हर बार यही कहानी रही है. देश में इस असंगठित क्षेत्र में पहले से मौजूद अपर्याप्त बीमा कवरेज अब परीक्षण की स्थितियों में ईंधन को भी जोड़ रहा है, जिसका भार किसानों पर पड़ेगा.
1979 में प्रोफेसर दांडेकर की सिफारिशों के बाद किसानों की पर्याप्त सुरक्षा के लिए फसल बीमा योजना में कई बदलाव किए गए थे.
फसल सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने चार वर्ष पहले प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की घोषणा की थी और कहा था इससे किसानों की हालात में बहुत सुधार होगा, लेकिन किसानों को आज भी फसलों के लिए पूर्ण बीमा अभी एक सपने की तरह दिखता है!
दशकों से कृषि मंत्रालय फसल बीमा योजना को अधिकतम 23 फीसदी सीमित कर रहा था, इसी मंत्रालय ने प्रधानमंत्री मोदी की योजना को लेकर घोषणा की कि आने वाले दो से तीन वर्षों में आधे से अधिक किसानों को इस योजना के तहत लाभ दिया जाएगा.
हकीकत में तथ्य बताते हैं कि इस योजना के आने के बाद दो फसलें आ चुकी हैं, लेकिन इस योजना से किसानों के हजारों करोड़ रुपये का भुगतान अब तक नहीं किया गया, जिससे इस योजना से किसानों का विश्वास कम हो रहा है.
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बीमा की प्रीमियम का समय पर भुगतान करने के बाद भी किसानों को आपदा के समय में भी मामूली प्रतिपूर्ती समय पर नहीं हो पा रही है, जिससे किसान परेशान हो रहे हैं. बता दें कि पिछल वर्ष तक बैंकों द्वारा दिए गए फसली ऋणों में से प्रीमियम की कटौती की गई.
किसानों को फसल बीमा योजना में शामिल करने के लिए नियमों में छूट और कई विकल्प दिए गए हैं. इन सब के बावजूद योजना के प्रति किसानों की रुचि कम होती जा रही है.
आपदा के समय में पूरी फसल बर्बाद हो जाने के मामले में किसानों की सुरक्षा कहां है? जिन कारकों ने फसल बीमा को लगभग चार दशकों से खोखला बना दिया, अब उसके कारण सामने आ रहे हैं.