'दुनिया शरीर है तो दिल्ली उसकी रुह', यह लिखते समय मिर्ज़ा गालिब ने यह साफ़ कर दिया था कि आने वाले समय में भी दिल्ली की अहमियत कम नहीं होने वाली है. दिल्ली चुनावों पर सारे देश की नज़रें टिकी हुई हैं. दिल्ली और राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे सामाजिक-राजनीतिक उथल पुथल के बीच दिल्ली में आठ फरवरी को मतदान होना है. नागरिकता के मुद्दे पर दिल्ली के लोग सड़कों पर हैं, तो वहीं, देश लंबे समय के बाद आर्थिक मंदी के खतरे से दो चार हो रहा है. हालांकि दिल्ली चुनावों को एक स्थानीय चुनाव कहा जा रहा है, लेकिन यह तय है कि इसके नतीजे कई राष्ट्रीय मसलों की दशा-दिशा और कई मुद्दों पर जनता के फैसले के तौर पर देखें जाएंगे.
दिल्ली इस बार क्यों ज्यादा महत्वपूर्ण है?
दिल्ली में चुनावों की हमेशा से ही सांकेतिक अहमियत रही है. मीडिया से करीबी और देश की राजनीति का केंद्र होने के कारण दिल्ली को हमेशा से ही ज्यादा राजनीतिक महत्व मिलता रहा है. लेकिन इस बार के दिल्ली चुनावों की अहमियत केवल सांकेतिक नहीं है, क्योंकि पहले तो इन चुनावों से देश में मतदान के पैटर्न का अंदाजा लगेगा, और दूसरे इससे देश में 'वैकल्पिक राजनीति' के बरकरार रहने पर भी फैसला आएगा. इसके साथ-साथ इन चुनावों से देश के संघीय ढांचे के काम करने के तरीके पर भी फ़ैसला आएगा.
दिल्ली के मतदाता राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में फर्क कर मतदान करने के लिए जाने जाते है. मतलब, दिल्ली के मतदाता, स्थानीय और राष्ट्रीय मुद्दों में फर्क करते आ रहे हैं. सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के लिए यह पैटर्न फायदेमंद रहा है और पार्टी का चुनावी प्रचार उसके पांच साल के कामकाज पर केंद्रित है. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) इस पैटर्न को तोड़ने की भरपूर कोशिश कर रही है. इसके लिए पार्टी केंद्र में उसके प्रदर्शन को आधार बना रही है और इसी आधार पर राज्य में वोट मांग रही है. पार्टी का ध्यान राज्य और केंद्र के बीच बेहतर तालमेल बनाने के लिए एक ही पार्टी की सरकार होने पर है. बीजेपी मतदाताओं को कह रही है कि दिल्ली की मांगे और जरूरतें तब ही पूरी हो सकती हैं, जब केंद्र और राज्य में एक पार्टी की सरकार हो. जहां एक तरफ अरविंद केजरीवाल लगातार अपनी पार्टी और सरकार के पांच सालों के कामकाज पर ध्यान रख रहे हैं वहीं, बीजेपी लोगों के बीच यह संदेश दे रही है कि कांग्रेस और आप जैसी पार्टियाँ राष्ट्रीय हितों को नजरअंदाज कर रही हैं.
वैकल्पिक राजनीति की चुनौतियाँ: पहचान की राजनीति नहीं केवल विकास
वोट की राजनीति आखिरकार आकड़ों का खेल है और इसलिए, कुछ लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाती है. विकास एक ऐसा जादुई शब्द है, जो जाति और पहचान की राजनीति को दरकिनार करने की क्षमता रखता है. इस बात का सबूत है, गरीबी हटाओ और सबका साथ, सबका विकास जैसे नारों की सफलता. गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी एक ऐसे आंदोलन से पैदा हुई है, जिसके अंतर्गत देश के समाज के लोगों ने राजनीति में आने वाली तीन बड़ी रुकावटों को हटाने के लिए पहल की थी. यह थे, पैसा, बल शक्ति और वंशवाद. 2010 के विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की शानदार जीत ने भारतीय राजनीति की पैसे पर आधारित भाषा को हमेशा के लिए वादों पर आधारित कर दिया. इस जीत के बाद वादों और उनको पूरा करने के राजनीतिक दौर की शुरुआत होने की उम्मीद थी. यह किस हद तक कामयाब रहा है. इस बारे में बहस की जा सकती है. लेकिन, यह तय है कि इसके कारण राजनीतिक सोच में बड़ा बदलाव आया है.
गौरतलब है कि अपने कामों के कारण आम आदमी पार्टी ने एक ऐसे सामाजिक गठबंधन की रचना की है, जिसने समाज के गतिरोधों और राजनीतिक दलों द्वारा संरक्षण पाने वाले अन्य तरीकों को हाशिये पर डाल दिया है. सामाजिक वैज्ञानिक, अमित अहूजा और प्रदीप छिब्बर मतदान के आधार पर समाज को तीन अलग समूहों में बांटते हैं. इसके तहत समाज के पिछड़े तबके के लिए मतदान एक अधिकार है, मध्यम वर्ग के लिए एक हथियार और संभ्रांत वर्ग के लिए नागरिक जिम्मेदारी. बड़ा सवाल यह है कि आम आदमी पार्टी इन समीकरणों को बैठाते हुए कब तक राजनीतिक सफलता की कहानी लिखती रहेगी? एक तरफ जहां पार्टी दिल्ली में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली पानी आदी के मुद्दों पर अपने कामों के आधार पर वोट मांग रही है, वहीं, क्या पार्टी इन मुद्दों को तेजी से देशभर और खासतौर पर दिल्ली में हो रहे ध्रुवीकरण से अलग रख सकेगी?