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विशेष : भारतीय माताओं और विदेश में रह रहे बच्चों के रिश्ते पर कोरोना का प्रभाव

कोरोना वायरस की वजह से भारतीय माताओं और विदेशों में रह रहे उनके बच्चे एक अभूतपूर्व संकट के कगार पर हैं. दुनिया भर में बिखरे हुए तीन करोड़ भारतीयों में से अधिकांश लोग भारत की उदारतापूर्वक सहायता करने के बजाय उल्टा उसी से मदद के लिए गुहार लगाने लगे हैं. इसके कारण प्रवासी भारतीयों के बीच जानमाल के नुकसान का वास्तविक खतरा है, जिसके परिणामस्वरूप वंचितता और दुख की स्थिति भी पैदा होगी. पढे़ं विस्तार से...

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भारत पर कोरोना का प्रभाव

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Published : Apr 9, 2020, 8:14 PM IST

आज, भारतीय माताओं और विदेशों में रह रहे उनके बच्चों के बीच संबंध कोरोना वायरस की वजह से एक अभूतपूर्व संकट के कगार पर हैं, जिससे दुनिया को खतरा है, उनमें से खासकर बहुत से ऐसे देश जहां भारतीय मूल के लोग काम कर रहे हैं और समृद्ध जीवन भी जी रहे हैं. भारत की प्राप्तकर्ता और प्रवासी भारतियों की प्रदानकर्ता की भूमिका उलट होने की संभावना तब बढ़ जाती है जबकि दुनिया भर में बिखरे हुए तीन करोड़ भारतीयों में से अधिकांश लोग भारत की उदारतापूर्वक सहायता करने के बजाय उल्टा उसी से मदद के लिए गुहार लगाने लगे हैं. इसके कारण प्रवासी भारतीयों के बीच जानमाल के नुकसान का वास्तविक खतरा है, जिसके परिणामस्वरूप वंचितता और दुख की स्थिति भी पैदा होगी. जब तक कोरोनो वायरस का प्रसार रुक नहीं जाता और विश्व की अर्थव्यवस्था ठीक नहीं हो जाती है, भारत के कंधों पर भारी बोझ आ पड़ेगा.

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में राष्ट्रवाद के विकास और अंतरराष्ट्रीय सहयोग में कमी के साथ, भारत बाहरी मदद पर ज्यादा भरोसा नहीं कर सकता है. संयुक्त राष्ट्र स्वयं चीन के अभिमानी दृष्टिकोण के कारण पंगु बना हुआ है. यहां तक कि यूरोपीय संघ के सदस्य, जो कि चरम राष्ट्रवाद के कारण राष्ट्रपति ट्रंप के आलोचक थे, प्रत्येक देश को उसके अपने हाल पर छोड़कर, खुद भी भीतर की ओर रुख कर रहे हैं, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क), जी-20 और जी-7 की आभासी बैठकों से संयुक्त रूप से वायरस से लड़ने के लिए कोई ठोस योजना नहीं दामने आई.

एक राष्ट्र जो खुद पर एक प्रवासी साम्राज्य, जिस पर सूरज कभी अस्त नहीं होता हो, होने के रूप में गर्व करता रहा है, उसे हाल में फैली वैश्विक महामारी अतीत के साम्राज्यों के परीक्षणों और क्लेशों की याद दिलाती है, जो अपने स्वयं के धन, महिमा और जिम्मेदारियों के भार के नीचे दब कर खत्म हो गए. भारतीय प्रवासी संपत्ति, प्रौद्योगिकी और बौद्धिक शक्ति का स्रोत रहे हैं. जब से भारतीय अर्थव्यवस्था उदारीकृत हुई और तेज गति से बढ़ने लगी, विकसित देशों में समृद्ध प्रवासी और खाड़ी में प्रवासी श्रमिकों की भारी संख्या भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन गई. खाड़ी के अरबपतियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी और स्कॉटलैंड यार्ड जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों को हासिल करके ब्रिटिश साम्राज्य को पछाड़ दिया. 3 करोड़ मजबूत भारतीय प्रवासियों की कुल संपत्ति का अनुमान भारत की जीडीपी को पार कर गया है और भारत राजनीतिक और आर्थिक मामलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके समर्थन पर निर्भर हो सकता था.

प्रवासी भारतीयों के विकास के इतिहास पर नजर डालें तो, हम देखेंगे कि देश से बाहर कई लहरों में जो असंगठित और तदर्थ थीं, प्रवास हुआ. नौकरियों और समृद्धि की तलाश में व्यक्तिगत पहल के परिणामस्वरूप विकसित देशों में बढ़ते विभिन्न व्यवसायों के कारण समय-समय पर प्रवासन हुआ. इसे एक समय में एक बौधिक पलायन माना जाता था, लेकिन यह एक बौधिक लाभ बन गया क्योंकि भारत के पास साझा करने के लिए पर्याप्त बौद्धिक शक्ति थी. अमेरिका ने जब प्रवासन के लिए अपने द्वार खोले तो कई भारतीय व्यवसायी यात्रा पर प्रतिबंध के बावजूद वहां जा बसे और बहुत कम समय में बहुत समृद्ध हो गये. अमेरिका में भारतीयों की आबादी प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ तेजी से बढ़ी, जो भारतीयों का तकरीबन एकाधिकार बन गया. इनमें से कोई भी प्रवासन किसी भी राष्ट्रीय योजना के हिस्से के रूप में नहीं हुआ और भारतीय जनसंख्या उन पर आधारित किसी आंकड़े के बिना बढ़ती गई. भारतीय नागरिकों का केवल एक हिस्सा भारतीय मिशनों के साथ पंजीकृत है.

श्रमिकों के लिए, विशेष रूप से अर्ध-कुशल और कुशल श्रमिकों के लिए अवसर जो खाड़ी क्षेत्र में उत्पन्न हुए थे, वे भी अनियोजित और अप्रत्याशित थे. व्यक्तिगत उद्यम के परिणामस्वरूप भारतीय कार्य बल तेजी से बढ़ा, जिसमें बेईमान एजेंट भी शामिल थे, जिन्होंने उनका शोषण किया. लेकिन अधिकांश प्रवासी यहां की तुलना में खाड़ी में अधिक कमाई करने में सक्षम थे और खाड़ी की ओर श्रमिकों का निरंतर प्रवाह बना रहा और उनके द्वारा भेजा जाने वाला पैसा भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती दे रहा था. लंबे समय के निवेश के लिए किसी भी योजना के अभाव में संपत्ति की खरीद और मकान के निर्माण जैसे अनुत्पादक व्यय पर बहुत सारा पैसा बर्बाद होता रहा. प्रवासियों में से कुछ ने काफी संपत्ति कमाई और सफेद गैर-श्रमिक नौकरियां भी पैदा हुईं. खाड़ी में प्राप्त समृद्धि ने धीरे-धीरे केंद्र और राज्य सरकारों का ध्यान आकर्षित किया और सरकार और प्रवासियों के बीच पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंध विकसित हुए. खाड़ी सरकारों और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंध कड़ी मेहनत और अखंडता के लिए भारतीयों की प्रतिष्ठा के आधार पर विकसित हुए.

भारत ने प्रवासी भारतीयों की आवश्यकताओं को दिल से पूरा करने की कोशिश की विदेशों में और राज्यों की राजधानियों और दिल्ली में अपने मिशन स्थापित करके और वार्षिक प्रवासी दिवस और प्रवासी सम्मान का आयोजन भी किया. दिक्कतें धीरे धीरे उनकी उन्नति से खत्म होती चली गईं और साकार और प्रवैयों के बीच आपसी सहयोग और सम्मान की गाथा लिखी जाने लगी.सरकार का हस्तक्षेप विभिन्न तरीकों से बहुत मददगार रहा और अमीर प्रवासियों ने बड़े पैमाने पर भारत में निवेश करना शुरू कर दिया. भारतीय समुदाय के नेताओं को साधने के लिए राजनीतिक दलों एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करने लगे जिन्होंने बदले में उन्हें वित्तपोषित किया और लाभ प्राप्त किया. जब भी घरेलू कानूनों ने भारतीयों की वापसी की मांग की, सरकार ने या तो उन्हें वहां बनाए रखने के लिए हस्तक्षेप किया या उन्हें भारत में पुनर्वास करने के लिए अनुदान या ऋण दिया.

दूसरे शब्दों में, खाड़ी में भारतीयों ने भारत के विकास में अपना योगदान दिया और राज्य द्वारा दिए जाने वाले विशेषाधिकारों को प्राप्त किया. भारत प्रवासियों ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जब भी किसी कठिनाई का सामना किया भारत ने हमेशा आगे बढ़कर उनकी सहायता की.

यह पहले के वर्षों में अहस्तक्षेप की भारतीय नीति के विपरीत था जब सरकार का काम सिर्फ दूसरे देशों जैसे बर्मा, कैरेबियाई देशों और युगांडा के आंतरिक कानूनों के कारण लौट कर आये हुए प्रवासियों को पुनर्वासित करने का होता था. नीति में बदलाव फिजी में भारतीयों के खिलाफ सैन्य तख्तापलट के समय हुआ था, जब 1988 में तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने सैन्य सरकार को राष्ट्रमंडल से निष्कासित करवा दिया था.

इस खुशी के माहौल में कोविड-19 ने सबसे अप्रत्याशित रूप से आ धमका और शेक्सपियर के खलनायक की तरह, सब कुछ उलट-पलट कर दिया, जिससे मुख्य नाटक के पात्र एक-दूसरे के साथ टकराव में आ गए. यह दुनिया भर में फैले भारतीय प्रवासी शुरुआती संक्रमण का कारण बने. पहला मामला बीमारी के उपरिकेंद्र वुहान से एक भारतीय छात्र के माध्यम से केरल में आया था, फिर इटली, स्पेन और ईरान जैसे सबसे अप्रत्याशित स्थानों में भारतीयों को देखा गया, जो जल्द से जल्द भारत लौटने के लिए उत्सुक थे. यदि समय रहते उड़ानों को निलंबित नहीं किया जाता और दुनिया भर में हवाई अड्डे बंद नहीं होते, तो हजारों भारतीय वायरस के साथ या उसके बिना भारत पहुंचते, जिससे हर क्षेत्र में आपातकाल की स्थिति बन जाती. भारत फिर भी कुछ देशों से अपने नागरिकों को वापस लाया है, लेकिन उम्मीद भारत की क्षमता से अधिक है.

प्रभावित भारतीयों ने जिस तरह से उन्हें वापस पाने में भारत की असमर्थता पर प्रतिक्रिया व्यक्त की वह अशोभनीय थी. उनमें से अधिकांश लोग स्वयं संबंधित देशों में जा बसे हैं और किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि वे इस तरह की कठिनाइयों का सामना करेंगे और इस अप्रत्याशित संकट से निपटने में भारत को समय लगा. लेकिन अगर वायरस का प्रकोप वर्तमान लॉकडाउन के बाद भी बना रहता है, तो अपने लोगों को वापस लाने का दबाव एक अत्यंत कठिन कार्य साबित होगा. भारत को स्वाभाविक रूप से मध्य पूर्व और संयुक्त राज्य अमेरिका से अपने लोगों को वापस लाने के लिए पहाड़ों काट नदी निकालनी होगी जहां स्थिति लगातार बिगड़ रही है. महान मानवीय संकट के बारे में सोच कर सिहरन पैदा होती ही कि क्या होगा जब सभी भारतीयों को विश्व के सुदूर कोनों से वापस लाना पड़ेगा.

कोविड-19 का एक दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि इसे एक आयातित बीमारी के रूप में देखा जाता है. अधिकांश मामले भारतीयों और विदेशियों से जुड़े थे जो त्रासदी की शुरुआत के तुरंत बाद भारत पहुंचे थे. उनमें से कुछ अपने समुदायों में मेल-जोल करते रहे बिना यह जाने कि वे वायरस से संक्रमित थे. कुछ ने जानबूझकर इस बात का खुलासा नहीं किया कि वे हाल ही में संक्रमित क्षेत्रों से वापस आए थे. अब भी, अधिकांश संक्रमण के तार वापस आये लोगों से जाकर जुड़ रहें हैं. प्रत्येक दिन, जब केरल के मुख्यमंत्री ने कोविड-19 की स्थिति के बारे में विस्तार से बताते हैं, वे नए संक्रमणों के स्रोत के रूप में खाड़ी से लौटे लोगों का उल्लेख करते हैं. हालांकि ये तथ्य हैं, कुछ इस लक्षण-वर्णन से नाराज हैं.

एक रहस्य यह है कि विमान में सवार होने के बाद कई लौटने वालों में लक्षण विकसित होते नजर आये, चूंकि लक्षण नजर आने की अवधि लंबी है, इसलिए यह विश्वसनीय तौर पर नहीं कहा जा सकता है. लेकिन एक सामाजिक कार्यकर्ता के अनुसार, जिन्होंने नागरिक उड्डयन क्षेत्र में कई साल बिताए हैं, इस क्षेत्र में उड़ान भरने वाले कम लागत वाले विमानों का खराब रखरखाव इस घटना के लिए जिम्मेदार हो सकता है. वह कहती हैं कि सैनिटाइजेशन का छिड़काव, जो सभी उड़ानों के लिए अनिवार्य है, इन उड़ानों पर नहीं किया जाता है.

इस कहानी का कोई खलनायक नहीं. विदेशों में बसे भारतीयों, कम से कम भारतीय नागरिकों को वापस आने का पूरा अधिकार है और भारत को उन्हें वापस लेने का दायित्व है. भारत माता निश्चित रूप से विदेश में अपने बच्चों के लिए अपने सभी दायित्वों को पूरा करेंगी. विश्व के अधिकांश देशों ने फिलहाल तय किया है कि जो जहां है वह वायरस के प्रकोप के खत्म होने तक वहीं रुका रहे, हमें इसका आदर करना होगा. यह खासतौर पर डॉक्टरों, नर्सों और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए महत्वपूर्ण है जिनकी जरुरत हालात के संभालने के बाद भी बनी रहेगी.

हम पहले से ही भारतीय प्रवासियों की दुर्दशा के लिए भारत की उपेक्षा और उदासीनता के बारे में सुन रहे हैं. लेकिन कोई भी दुनिया भर में लोगों के सबसे बड़े परिवहन का प्रबंधन नहीं कर सकता है अगर हर कोई एक ही समय में लौटने पर जोर दे. यह दूसरे देशों और भारत के लिए बेहतर होगा अगर प्रवासी श्रमिक मेहनत से काम करते हैं और उन देशों में उचित मुआवजा और सम्मान प्राप्त करें जहां वह हैं. उन्हें उस तरह की समस्याओं का सामना नहीं करना चाहिए जो आज भारत के विभिन्न राज्यों में प्रवासी श्रमिकों को करना पड़ रहा है. पहले खाड़ी युद्ध की पूर्व कुवैत और इराक से भारतीय कामगारों को वापस लाने की जल्दबाजी को स्थानीय सरकारों द्वारा नहीं पसंद नहीं किया गया था. देशों ने शिकायत की थी कि भारतियों ने देशों को तब छोड़ा जब उनकी सबसे ज्यादा जरुरत थी. इस नुकसान की भरपाई करने में भारत को काफी वक्त लगा और तब जाकर हमारे श्रमिक वापस कुवैत लौट पाए. इस घटना से सबक लेते हुए, भारत को अन्य देशों से बात करनी चाहिए की विदेश में रह रहे भारतियों को उचित उपचार और सुविधाएं दी जा सकें. यदि उनकी तनख्वाह बरकरार रखी जाती है और बेहतर वहां रहने के हालात बेहतर रहते हैं तो शायद उनमें से कई लोग भारत वापस आने का इरादा बदल दें और वहीं रुक जायें. यदि लोगों को वापस आने की होड़ लगी है तो स्थिति को संजना और उससे निपटना बहुत जटिल होगा. स्थिति पर नजर रखी जानी चाहिए और संकट को रोकने के लिए आकस्मिक योजना बनाई जानी चाहिए.

कोविद -19 महामारी की विशिष्टता यह है कि हमारे सामने प्रमुख मुद्दे जीवन और मृत्यु के तात्कालिक मुद्दे की तुलना में महत्वहीन दिखाई देते हैं, जो एक रूसी रूले की तरह है. कोई नहीं जानता की कौन इस महामारी से इसके किस्से सुनाने और दुनिया की नई व्यवस्था का मार्गदर्शन करने के लिए बच पायेगा. लेकिन भारतीय तब भी पूरे विश्व में मौजूद रहेंगे और भारत में किसी भी सरकार को प्रवासी भारतीयों के साथ पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंध बनाने होंगे. आखिरकार, हम जानते हैं कि हम भारतीय कहीं भी जा सकते हैं, लेकिन हम अपने भीतर से भारतियता को नहीं निकाल सकते.

(लेखक-टी पी श्रीनिवासन)

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