वर्तमान स्थिति और चुनौतियां सहकारी संस्थाएं विशेष रूप से उस आबादी में ऋण वितरण की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं जिनके खाते बैंकों में नहीं हैं. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय सहकारी आंदोलन की उत्पत्ति हुई, जब इसे गांवों में साहूकारों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया. मूल रूप से, सहकारी बैंक छोटे उधारकर्ताओं और व्यवसायों को उधार देने वाले समुदायों और इलाकों पर केंद्रित रहे हैं. अधिक ब्याज दरों और व्यक्तिगत ध्यान दिए जाने के कारण जमाकर्ता इन बैंकों की ओर आकर्षित होते हैं. वर्तमान में, सहकारी प्रणाली में 1,551 शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) और 2018 में 96,612 ग्रामीण सहकारी समितियां शामिल हैं. जहां ग्रामीण सहकारी समितियां अपने भौगोलिक और जनसांख्यिकीय पहुँच के माध्यम से गांवों और छोटे शहरों में वित्तीय सेवाएं प्रदान करती हैं, वहीं यूसीबी शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में ऋण प्रदान करते हैं.
ध्यान देने वाली बात है कि सहकारी बैंकों की वृद्धि बैंकिंग क्षेत्र के समग्र विकास के अनुरूप नहीं हुई है. परिणामस्वरूप, 2017 में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) की कुल संपत्ति में उसकी हिस्सेदारी केवल 11% रही जबकि 2004-5 में 19% थी. भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट 2017-18 भारत में सहकारी बैंकों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालती है. ग्रामीण सहकारी समितियों के भीतर परिसंपत्ति की गुणवत्ता और लाभप्रदता के मामले में प्रदर्शन अलग अलग है. जबकि राज्य सहकारी बैंकों ने एनपीए अनुपात और लाभप्रदता में सुधार किया, डीसीसीबी के मामले में दोनों मापदंडों पर खरे नहीं उतरे. कृषि में दीर्घकालिक सहकारी संस्थानों का वित्तीय प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है और स्तिथि और खराब हुई है.
शहरी सहकारी समितियों के बारे में, आरबीआई के आंकड़ों से पता चलता है कि हालांकि संपत्ति की गुणवत्ता में सुधार हुआ है, कुल मिलाकर लाभप्रदता में कमी आई है. 1551 बैंकों में, 26 नियामक के 'दिशानिर्देश' के अधीन थे और 46 का मूल्य ऋणात्मक था. शहरी सहकारी बैंकों में कई घोटाले हुए हैं. उदाहरण के तौर पर, 2001 में गुजरात में माधवपुरा सहकारी बैंक में एक बहुत बड़ा घोटाला हुआ था, इसमें स्टॉक ब्रोकर केतन पारेख को दिए गए ऋणों के रूप में संपत्ति का एक महत्वपूर्ण प्रतिशत था.
पीएमसी में हालिया घोटाले के मामले में, तीन समस्याएं हैं:
(ए) प्रमुख वित्तीय अनियमितताएं;
(बी) आंतरिक नियंत्रण और बैंक की प्रणालियों की विफलता;
(c) इसकी पहुँच का गलत / कम आंकना.
यह सर्वविदित है कि पीएमसी बैंक ने अपनी संपत्ति का 73% एचडीआईएल (हाउसिंग डेवलपमेंट एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड) को दिया है. इस बैंक में आरबीआई के पर्यवेक्षण से छिपाने के लिए 21000 से अधिक खातों का उपयोग किया गया है ताकि उनके नाम सामने न आयें जिनको पैसा दिया गया है. ये एक बहुत बड़ा फर्जीवाड़ा है जिसमें रियल एस्टेट की एक इकाई को लाभान्वित करके के लिए कई जाली खतों की आड़ ली गयी है.
1966 में सहकारी बैंक आरबीआई की सीधी निगरानी में तहत आ तो गये थे लेकिन उन्हें दोहरे विनियमन की समस्या का सामना करना पड़ा. एकल राज्य में शहरी सहकारी बैंकों को आरबीआई और सहकारी समितियों के राज्य रजिस्ट्रार (आरसीएस) द्वारा विनियमित किया जाता है, और जब कई राज्यों में हो तो सहकारी समितियों के केंद्रीय रजिस्ट्रार (सीआरसीएस) द्वारा विनिमियत किया जाता है.
आरसीएस ऑडिटिंग के साथ-साथ चुनाव प्रबंधन और कई और प्रशासनिक जिम्मेदारियों को निभाता है. आरबीआई पर्यवेक्षण में लाइसेंस देने, नकदी आरक्षित बनाए रखने, वैधानिक तरलता और पूंजी पर्याप्तता अनुपात और इन बैंकों के निरीक्षण जैसे सभी नियामक पहलूओं में शामिल हैं. लेकिन, ऐसी भावना है कि सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण के कारण किसी का अधिक नियंत्रण नहीं है जैसा आरबीआई का निजी क्षेत्र के बैंकों पर नियंत्रण है.
भारतीय रिज़र्व बैंक ने 1993-2004 के दौरान शहरी सहकारी बैंकों के लिए एक सक्रिय लाइसेंसिंग नीति का अनुसरण किया जिसके कारण उनकी संख्या में तेज वृद्धि हुई. इसके बाद, जैसे-जैसे इस क्षेत्र में समस्याएं और तनाव स्पष्ट होते गए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने नए लाइसेंस जारी करना बंद कर दिए और अपने विज़न डॉक्यूमेंट में उचित विनियामक और पर्यवेक्षी नीतियों को शामिल किया जिसमें कमजोर लेकिन व्यवहार्य शहरी सरकारी बैंकों का विलय / समामेलन शामिल था और अलाभकारी बैंकों को बंद करना था.
सही नियामक जांचों के बावजूद, कमजोर कॉर्पोरेट प्रशासन, व्यावसायिकता की कमी और अपनाई गई प्रौद्योगिकी में अनिच्छा के कारण कुछ चिंताएं बनी रहीं हैं. अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के विस्तार और उनके द्वारा प्रौद्योगिकी को अपनाने के साथ सहकारी बैंकों की भूमिका में गिरावट आई है. उन्हें भुगतान बैंकों, छोटे वित्तीय बैंकों और एनबीएफसी या गैर बैंकिंग वित्तीय निगम से प्रतिस्पर्धा का भी सामना करना पड़ रहा है. इसमें पूंजी से जुड़े मुद्दे भी हैं. शहरी सहकारी संस्थाएं सार्वजनिक निर्गम या प्रीमियम पर शेयरों को जारी करके पूंजी नहीं जुटा सकतीं हैं.
सहकारी संरचना में समस्या यह है कि उसमें पेशेवर बोर्ड के सदस्य नहीं हो सकते हैं. सहकारी बैंक के निदेशक मंडल का चुनाव बैंक के सदस्यों द्वारा किया जाता है और इस प्रक्रिया में अक्सर राजनेताओं द्वारा बैंक पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए अपना दांव खेला जाता है. कई राज्यों में, ऐसे संस्थानों पर राजनीतिक नियंत्रण ऋण के माध्यम से ही ऐसे नौकरियों के माध्यम से राजनीतिक संरक्षण एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.
आगे की राह क्या है?
जमाकर्ताओं और अन्य हितधारकों के विश्वास को बनाए रखने के लिए सहकारी बैंकों के विनियमन और शासन पर ध्यान देने की आवश्यकता है. नियामक आरबीआई और सरकार को ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचने के लिए वर्तमान वित्तीय परिदृश्य में सहकारी बैंकों के महत्व का पुनः मूल्यांकन करने की सख्त ज़रुरत है.
एक भावना है कि सहकारी बैंकों में से कुछ में शासन की कमी है. बैंक बोर्ड, लेखा परीक्षक, बैंक प्रबंधन, रेटिंग एजेंसियां और नियामक शासन की कमी और खराब विनियमन इसके लिए जिम्मेदार रहे हैं. हमें बेहतर प्रशासन के साथ जमाकर्ताओं और अन्य के बीच विश्वास का पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता है.